श्रद्धा-मनु संदर्भ सहित व्याख्या:–
“कौन तुम? संसृति-जलनिधि तीर
तरंगों से फेंकी मणि एक;
कर रहे निर्जन का चुपचाप
प्रभा की धारा से अभिषेक ?
मधुर विश्रान्त और एकान्त-
जगत का सुलझा हुआ रहस्य;
एक करुणामय सुन्दर मौन
और चंचल मन का आलस्य !”
सन्दर्भ:–
प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।प्रसंग:–
प्रलय के अनन्तर श्रद्धा-मनु को निर्जन स्थान में मौन बैठे देखकर उसके बारे में पूछती है। वह मनु के बारे में जानने के लिए उत्सुक है।।व्याख्या:–
श्रद्धा, मनु से प्रश्न करती है कि तुम कौन हो? जिस प्रकार सागर की लहरें अपनी तरंगों से मणियों को अपने किनारे पर फेंक देती हैं. उसी प्रकार संसाररूपी सागर की लहरों द्वारा इस निर्जन स्थान में फेंके हुए। तम कौन हो? तुम चुपचाप बैठकर इस निर्जन स्थान को अपनी आभा से उसी प्रकार सशोभित कर रहे हो, जैसे सागर तट पर पड़ी हुई मणि उसके निर्जन तट को आलोकित करती है। श्रद्धा कहती है कि हे अपरिचित! तुम मुझे मधरता नीरवता से परिपूर्ण इस संसार में सुलझे हुए रहस्य की भाँति प्रतीत हो रहे हो। अपरिचित होने के कारण तुम रहस्यमय हो, फिर भी तुम्हारे मुख के भाव तुम्हारे रहस्य को सुलझा रहे हैं। तुम्हारा सुन्दर और मौन रूप करुणा से । परिपूर्ण है और तुम्हारे चंचल मन ने आलस्य धारण कर लिया है।काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक
छन्द श्रृंगार छन्द (16 मात्राओं का)
अलंकार – रूपक, उत्प्रेक्षा एवं से गुण माधुर्य ।
शब्द शक्ति – लक्षणा।
सुना यह मनु ने मधु गुंजार
मधुकरी का-सा जब सानंद,
किये मुख नीचा कमल समान
प्रथम कवि का ज्यों सुन्दर छंद ।
एक झटका सा लगा सहर्ष,
निरखने लगे लुटे से, कौन-
गा रहा यह सुन्दर संगीत ?
कुतूहल रह न सका फिर मौन ।
सन्दर्भ:–
पूर्ववत्।प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में उस समय का वर्णन है जब प्रलय के उपरान्त मनु की भेंट श्रद्धा से होती है और वह उसके सुमधुर स्वर को सुनकर आश्चर्यचकित रह जाता है।व्याख्या:–
मनु और श्रद्धा की प्रथम भेंट होने पर जब श्रद्धा उससे उसका परिचय पूछती है तो उसकी आवाज उन्हें भौंरों के मधुर गुंजार के समान आनन्ददायक प्रतीत होती है। अपरिचित मनु का परिचय पूछने के क्रम में श्रद्धा लज्जावश अपना सिर नीचे झुकाए रहती है जिसे देख मनु को ऐसा आभास होता है, जैसे कोई खिला हुआ कमल पृथ्वी की ओर झुका हो। मनु को कमल सदृश सुन्दर दिखने वाले उसके मुख से निकले मधुर बोल आदि कवि के सुन्दर छन्द-से प्रतीत होते हैं। उस निर्जन स्थान पर जहाँ किसी के होने की कोई सम्भावना न थी, श्रद्धा जैसी अनुपम रूपवती को देखकर मनु आश्चर्यचकित हो उठते हैं और उनका मलिन मुख निखर उठता है। श्रद्धा के कण्ठ से निकले गीत सदृश बोल का उन पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वह उससे बोले बिना नहीं रह पाते और उसके विषय में सब कुछ जान लेना चाहते हैं।काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक।
छन्द – शृंगार ।
छन्द – अलंकार उपमा, उत्प्रेक्षा एवं अनुप्रास।
गुण – माधुर्य ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।
और देखा वह सुन्दर दृश्य
नयन का इंद्रजाल अभिराम;
कुसुम - वैभव में लता समान
चंद्रिका से लिपटा घनश्याम;
हृदय की अनुकृति बाह्य उदार
एक लम्बी काया, उन्मुक्त;
मधु पवन क्रीड़ित ज्यों शिशु साल
सुशोभित हो सौरभ संयुक्त ।
मसृण गांधार देश के, नील
रोम वाले मेषों के चर्म,
ढक रहे थे उसका वपु कांत
बन रहा था वह कोमल वर्म ।
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में श्रद्धा की अपूर्व सुन्दरता और आन्तरिक गुणों का उल्लेख किया गया है।व्याख्या:–
श्रद्धा की समधुर ध्वनियों को सुनने के पश्चात जब मन का ध्यान उसके रूप की ओर गया तब वह दृश्य उनकी आँखों को जादू के समान सुन्दर और मोहक लगा। श्रद्धा फलों से परिपूर्ण लता के समान सुन्दर और शीतल चाँदनी में लिपटे हुए बादल-सी आकर्षक प्रतीत हो रही थी। उसका हृदय उदार और विस्तृत था। वह लम्बे कद की उन्मुक्त युवती थी। लम्बे और सुन्दर दिखने वाले शरीर में वह ऐसे शोभायमान थी मानो वसन्त की बयार अर्थात् वसन्ती हवा में झूमता हुआ साल का कोई छोटा-सा वृक्ष सुगन्ध से सराबोर होकर चारों ओर अपनी शोभा बिखेर रहा हो।श्रद्धा के वस्त्र गन्धार देश में पाई जाने वाली नीले बालों की भेड़ों की खाल से बने थे। अत्यन्त कोमल होते हए भी वे वस्त्र न केवल उसके सुन्दर तन को ढक रहे थे, बल्कि कवच के समान शरीर की रक्षा भी कर रहे थे। कहने का तात्पर्य है कि श्रद्धा उन वस्त्रों में सुन्दर और सुरक्षित दिख रही थी।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
छन्द – श्रृंगार छन्द (16 मात्राओं का) ।
अलंकार – उपमा, रूपकातिशयोक्ति, उत्प्रेक्षा एवं अनुप्रास।
गुण – माधुर्य ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।
नील परिधान बीच सुकुमार
खुल रहा मृदुल अधखुला अंग,
खिला हो ज्यों बिजली का फूल
मेघ-बन बीच गुलाबी रंग ।
ओह! वह मुख! पश्चिम के व्योम-
बीच जब घिरते हों घन श्याम;
अरुण रवि मंडल उनको भेद
दिखाई देता हो छविधाम !
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।प्रसंग :–
प्रस्तुत काव्यांश में श्रद्धा के रूप-सौन्दर्य की तुलना प्रकृति के सुन्दर दृश्यों से की गई है।व्याख्या :–
मनु के भावों की अभिव्यक्ति करते हुए प्रसाद जी लिखते हैं कि श्रद्धा भेड़-चर्म के बने नीले वस्त्र में अत्यन्त आकर्षक दिख रही है। वस्त्रों के मध्य कहीं-कहीं से दिखाई दे रहे उसके कोमल अंग ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, जैसे वे नीले बादलों के समूह में चमकती हुई बिजली के गुलाबी-गुलाबी फूल हों। नीले वस्त्र के मध्य श्रद्धा के लालिमायुक्त तेज मुख को देख ऐसा आभास होता है, मानो साँझ के समय काले बादलों को भेदकर चारों ओर लाल किरणें बिखेरता सूर्य शोभायमान हो।काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
रस – शृंगार ।
छन्द – (16 मात्राओं का) ।
अलंकार – उत्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति एवं रूपक।
गुण – माधुर्य ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।
घिर रहे थे घुँघराले बाल
अंश अवलंबित मुख के पास;
नील घन- शावक-से सुकुमार
सुधा भरने को विधु के पास।
और मुख पर वह मुसक्यान
रक्त किसलय पर ले विश्राम;
अरुण की एक किरण अम्लान
अधिक अलसाई हो अभिराम ।
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।प्रसंग :–
प्रस्तुत काव्यांश में श्रद्धा के सुन्दर मुखड़े और मुसकान की चर्चा की गई है।व्याख्या :–
श्रद्धा के केश सुन्दर और घुघराले थे। वे उसके चेहरे से होकर कन्धों पर ऐसे झूल रहे थे मानो अमृत पान हेतु नन्हें बादल सागर तल को स्पर्श करने की कोशिश कर रहे हों। उसके सुन्दर मुख पर बिखरी हुई मुसकान को देख ऐसा आभास हो रहा था, जैसे सूर्य की कोई अलसाई-सी उज्ज्वल किरण लाल नवीन कोपल पर विश्राम कर रही हो।काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
अलंकार – अनुप्रास, उपमा एवं मानवीकरण।
गुण –माधुर्य ।
शब्द शक्ति – लक्षणा।
कहा मनु ने, “नभ धरणी बीच
बना जीवन रहस्य निरुपाय ;
एक उल्का सा जलता प्रांत,
शून्य में फिरता है असहाय।"
'कौन हो तुम वसंत के दूत
बिरस पतझड़ में अति सुकुमार;
घन तिमिर में चपला की रेख
तपन में शीतल मंद बयार !'
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।प्रसंग:–
श्रद्धा के पूछने पर उसे अपना परिचय बताते हुए मनु अपनी दयनीय दशा का वर्णन करते हैं।व्याख्या:–
श्रद्धा की जिज्ञासा को शान्त करने के उददेश्य से मनु अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि इस पृथ्वी और आकाश के मध्य भटकता हुआ मेरा जीवन रहस्य बन गया है, किन्तु मैं इसी स्थिति में जीने के लिए विवश हूँ। मुझे इससे उबरने का कोई मार्ग नहीं सूझता। जिस प्रकार एक उल्का शून्य में यूँ ही भटकता फिरता है, उसी प्रकार मैं भी इस धरती पर तरह-तरह की मुसीबतों को झेलता हुआ असहाय और अकेला भटक रहा हूँ। तत्पश्चात् मनु श्रद्धा से पूछते हैं कि इतनी सुकुमार दिखने वाली तुम कौन हो? जिस प्रकार पतझड़ के बाद वसन्त के आगमन से चारों ओर हरियाली छाने लगती है, उसी प्रकार मेरे नीरस एवं समस्याओं से ग्रस्त इस जीवन में तुम्हारे आगमन से नई आशाओं का संचार हुआ है। तुम काले बादलों के मध्य घनघोर अन्धकार में बिजली की चमक बनकर आई हो और प्रचण्ड गर्मी में शीतलता प्रदान करने वाली धीमी-धीमी बहने वाली हवा की तरह सुखदायक हो अर्थात् तुम दुःख एवं सन्ताप से भरे मेरे इस गतिहीन और सूने जीवन में नव-चेतना भरने वाली हो।काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
अलंकार – श्लेष, उपमा, रूपकातिशयोक्ति एवं रूपक।
शब्द शक्ति – लक्षणा ।
गुण – माधुर्य।
लगा कहने आगंतुक व्यक्ति
मिटाता उत्कंठा सविशेष;
दे रहा हो कोकिल सानन्द
सुमन को ज्यों मधुमय सन्देश-
"भरा था मन में नव उत्साह
सीख लूँ ललित कला का ज्ञान;
इधर रह गंधवों के देश
पिता की हूँ प्यारी संतान।
सन्दर्भ:–
पूर्ववत्।प्रसंग :–
प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से मनु के पूछने पर श्रद्धा उन्हें अपने बारे में जानकारी देती है।व्याख्या:–
श्रद्धा को देख मनु के मन में यह जानने की तीव्र आकांक्षा होती है। कि आखिर वह है कौन? मनु की आकांक्षा को शान्त करती हई श्रद्धा नाम की वह आगन्तुक मीठी वाणी में अपना परिचय देती है। उस समय अमृत रस टपकाती हुई उसकी आवाज ऐसी प्रतीत हो रही थी, जैसे कोयल अति प्रसन्नता। के साथ अपनी सुमधुर ध्वनि में पुष्पों को ऋतुराज अर्थात् वसन्त के आगमन का सन्देश सुना रही हो। श्रद्धा मनु से कहती है कि मैं अपने पिता की अत्यन्त प्रिय सन्तान हूँ। मेरा। मन नवीन उत्साह से परिपूर्ण था। मेरी प्रबल इच्छा थी कि मैं ललित कलाएँ। सीखू। इसी उद्देश्य से इन दिनों मैं गन्धर्व देश में निवास कर रही हूँ।।काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
अलंकार – रूपक, उत्प्रेक्षा एवं अनुप्रास ।
गुण – माधुर्य ।
शब्द शक्ति – अभिधा।
दृष्टि जब जाती हिम-गिरि ओर
प्रश्न करता मन अधिक अधीर;
धरा की यह सिकुड़न भयभीत
आह कैसी है? क्या है पीर ?
बढ़ा मन और चले ये पैर
शैल मालाओं का शृंगार;
आँख की भूख मिटी यह देख
आह कितना सुन्दर सम्भार ।
सन्दर्भ:–
पूर्ववत्।प्रसंग:–
अपना परिचय देकर श्रद्धा मनु को यह बताती है कि वह किस प्रकार उस स्थान पर पहुंची।व्याख्या:–
श्रद्धा कहती है कि मेरी दृष्टि जब हिमालय की ओर जाती है, तब मेरे मन में न जाने कितने ही तरह के प्रश्न उठने लगते हैं और मैं उनके । उत्तर जानने के लिए बेचैन हो उठती हूँ। इतने विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई धरती की सिकुड़न के रूप में इस पर्वत श्रृंखला का वास्तविक स्वरूप क्या है? इसकी। आह कैसी है? इसकी पीड़ा कितनी गहरी है? अर्थात् इन दुर्गम स्थलों पर रहने वाले लोगों का जीवन कितना कष्टप्रद और चुनौतियों से भरा है। ऐसे । कितने ही प्रश्न मेरे मन को व्याकुल कर देते हैं। श्रद्धा अपनी बात को आगे बढ़ाती हई कहती है कि इन प्रश्नों का कोई समाधान न मिलने पर मेरा मन हिमालय के दर्शन को व्याकुल हो उठा और मेरे कदम उस ओर चल पड़े। हिमाच्छादित गगनचुम्बी पर्वत-चोटियों और चारों ओर फैले ऊँचे-ऊँचे हरे-भरे वृक्षों के समूहों को देखकर मेरी आँखों की भूख शान्त हो गई। सचमुच सौन्दर्य सम्पन्नता का कितना अद्भुत दृश्य है यह पर्वत श्रृंखला।काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
अलंकार – रूपक, अनुप्रास एवं मानवीकरण।
गुण – प्रसाद।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।
यहाँ देखा कुछ बलि का अन्न
भूत-हित-रत किसका यह दान!
इधर कोई है अभी सजीव,
हुआ ऐसा मन में अनुमान ।
तपस्वी! क्यों इतने हो क्लांत,
वेदना का यह कैसा वेग ?
आह! तुम कितने अधिक हताश
बताओ यह कैसा उद्वेग?
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।प्रसंग :–
प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से श्रद्धा-मनु को वहाँ तक पहुँचने का कारण बताते हुए उन्हें उदास न रहने की प्रेरणा भी देना चाहती है।व्याख्या:–
श्रद्धा मन से कहती है कि विराट हिमालय के दर्शन करने के दौरान इस स्थान पर पहुँचने पर जब मेरी दृष्टि सभी जीव-जन्तुओं के भरण-पोषण हेत प्रतिदिन अपने भोजन में से गृहस्थों द्वारा निकाले गए अन्न के हिस्से पर पड़ी तो मैंने सोचा कि यहाँ पर निश्चय ही कोई व्यक्ति निवास कर रहा है, अन्यथा इस वीरान क्षेत्र में दान का अन्न कहाँ से आता। मुझे इस विश्वास ने ही तम तक पहुँचा दिया कि इस निर्जन क्षेत्र में कोई जीवित व्यक्ति। अवश्य विद्यमान है। तत्पश्चात् श्रद्धा मनु से पूछती है कि किन्तु, हे तपस्वी! आखिर किस कारण से तुम इतने दुःखी और उदास हो? तुम्हारे मन में इतनी तीव्र पीड़ा क्यों है? तुम्हारे निराश होने के पीछे क्या कारण हैं? यह कैसी चिन्ता है जो तुम्हारे मन-मस्तिष्क में लगातार विराजमान है।काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
अलंकार – अनुप्रास ।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा।
दुःख की पिछली रजनी बीच
विकसता सुख का नवल प्रभात;
एक परदा यह झीना नील
छिपाये है जिसमें सुख गात।
जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल;
ईश का वह रहस्य वरदान
कभी मत इसको जाओ भूला।”
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से श्रद्धा मनु को उदासी त्यागकर प्रसन्नचित और आशान्वित होकर जीने की प्रेरणा दे रही है।व्याख्या:–
श्रद्धा-मनु को प्रेरित करते हुए कहती है कि दुःख की रात के ही मध्य सुख का नया सेवरा उदित होता है। जिस प्रकार प्रभात का प्रकाश अन्धकार के महीन परदे में छिपा रहता है, उसी प्रकार सुख भी दु:ख के महीन आवरण में छिपा रहता है कहने का तात्पर्य यह है कि दुःख का यह प्रभाव अधिक देर तक नहीं टिकता और नई आशाओं को सँजोए हुए सुख का आगमन होकर रहता है।श्रद्धा आगे कहती है कि जिस दुःख से परेशान होकर तुमने उसे अभिशाप मान लिया है और उसे ही सभी समस्याओं का कारण समझ बैठे हो, वास्तव में वह दुःख ईश्वर से हमें वरदान सदृश प्राप्त हुआ है, किन्तु इस रहस्य को समझ पाना आसान नहीं। बावजूद इसके तुम्हें इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए कि दुःखरूपी वरदान ही मानव को सुख प्राप्त करने के लिए सदा प्रेरित करता रहता है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली।
शैली – प्रबन्धात्मक।
अलंकार – रूपक, उपमा एवं अनुप्रास ।
गुण – प्रसाद।
शब्द शक्ति– लक्षणा।
लगे कहने मनु सहित विषाद-
"मधुर मारुत से ये उच्छ्वास;
अधिक उत्साह तरंग अबाध
उठाते मानस में सविलास।
किंतु जीवन कितना निरुपाय !
लिया है देख नहीं संदेश;
निराशा है जिसका परिणाम
सफलता का वह कल्पित गेह।"
सन्दर्भ:–
पूर्ववत्।प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में मनु श्रद्धा के प्रेरणाजन्य कथनों पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं।व्याख्या:–
श्रद्धा की बातों को सुनकर मनु दुःख भरे शब्दों में कहते हैं कि शीतल मन्द पवन की तरह सुखद प्रतीत होने वाले तुम्हारे ये उच्छवास निश्चय ही आनन्द प्रदान करने वाले और मन को सौन्दर्य की अनुभूति से परिपूर्ण कर देने वाले हैं। इनके परिणाम स्वरूप मन में निरन्तर ही उत्साह की तरंगें हिलोरे ले रही हैं, किन्तु इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि मनुष्य का जीवन विषाद से परिपूर्ण है और वह उसके सम्मुख विवश और असहाय है। हम जीवन में अनेक सफलताओं की कामना करते हैं, लेकिन सच्चाई तो यह है कि हमें उन सबका परिणाम एकमात्र निराशा के रूप में ही प्राप्त होता है। इस छोटे-से जीवन में हम अपनी विभिन्न चाहों की पूर्ति कभी नहीं कर पाते और एक दिन हमें इस संसार को छोड़कर जाना पड़ता है। अतः कहा जा सकता है कि हमारा जीवन सफलता की कल्पनाओं का घर है।काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक।
अलंकार – उपमा एवं अनुप्रास।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं व्यंजना।
कहा आगंतुक ने सस्नेह-
"अरे, तुम इतने हुए अधीर;
हार बैठे जीवन का दाँव
जीतते मर कर जिसको वीर।
तप नहीं केवल जीवन सत्य
करुण यह क्षणिक दीन अवसाद;
तरल आकाश से है भरा
सो रहा आशा का आहलाद ।
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में श्रद्धा निराशा में डूबे हुए मनु के मन में आशा, उत्साह और हर्ष का संचार करने का प्रयत्न करती है।व्याख्या:–
मनु की बात सुनकर आगन्तुक श्रद्धा कहती है कि हे तपस्वी! तुमने धैर्य खो दिया है। अब तुममें उस सफलता को पाने की तीव्र उत्कण्ठा भी शेष नहीं; जिसे वीर पुरुष अथक परिश्रम के बल पर प्राप्त करते हैं, क्योंकि साहसी और कर्मवीर बनने की जगह तुम निराश और हतोत्साहित हो गए हो। हे तपस्वी! केवल तपस्या को जीवन का ध्येय बनाना कदापि उचित नहीं, क्योंकि बस यही एक जीवन का सत्य नहीं है। तुम जिस करुणा और दीनतापूर्ण दुःख की स्थिति में जी रहे हो वह अविलम्ब ही समाप्त होने वाली है। वास्तव में मानव-जीवन आशा, उत्साह और खुशियों से परिपूर्ण है। बस आवश्यकता है। उन्हें जगाने की। अतः हमें पूरे उत्साह के साथ आशान्वित होकर जीना चाहिए। निराशा का दामन हमेशा के लिए छोड़ देना चाहिए।काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
अलंकार – मानवीकरण एवं अनुप्रास ।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – लक्षणा।
प्रकृति के यौवन का श्रृंगार
करेंगे कभी न बासी फूल;
मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र
आह उत्सुक है उनकी धूल ।
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से श्रद्धा ने बासी फूल का उदाहरण देकर मनु के निराश मन में उत्साह भरने का प्रयास किया है।व्याख्या:–
श्रद्धा निराश मनु को समझाते हुए कहती है कि प्रकृति की शोभा कभी भी बासी अथवा मुरझाए हुए फूल नहीं बढ़ाते, जो फूल ताजे हों और खिले हुए हों उन्हीं की सुन्दरता और खुशबू से उद्यान अथवा वन सुशोभित होते हैं। डाल से टूटे हुए फूलों का तो बस एक ही परिणाम होता है और वह है-धूल में मिलकर अपना अस्तित्व समाप्त कर लेना। अत: मानव को भी निराशा और अकर्मण्यता त्याग कर आशा और उद्यम के सहारे अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहिए।काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक।
अलंकार – मानवीकरण एवं रूपक।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – लक्षणा।
एक तुम, यह विस्तृत भू खंड
प्रकृति वैभव से भरा अमंद,
कर्म का भोग, भोग का कर्म
यही जड़ का चेतन आनंद।
अकेले तुम कैसे असहाय
यजन कर सकते? तुच्छ विचार;
तपस्वी! आकर्षण से हीन
कर सके नहीं आत्म विस्तार।
सन्दर्भ:–
पूर्ववत्।प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में श्रद्धा-मनु को कर्मयोगी बनने के लिए प्रेरित कर रही है।व्याख्या:–
श्रद्धा निराशा से भरे मनु के मन में आशा के दीप जलाना चाहती है। वह कहती है कि एक ओर तुम हो कि बस निराशा और असफलता की ही बातें करते रहते हो और दूसरी ओर प्राकृतिक सम्पदाओं से परिपूर्ण यह विस्तृत भ-भाग है, जो हमें नित आशाओं और उत्साह से भरकर कर्मवीर बनने का सन्देश देता रहता है। तुम्हें इस प्रकार निराश और उद्यमहीन होकर जीवन नहीं । बिताना चाहिए, बल्कि कठिन परिश्रम करते हुए इस पथ्वी पर स्थित संसाधनों का उचित रूप से उपभोग करना चाहिए। हमें अपने कर्म के अनुसार ही फल की प्राप्ति होती है। हम इस जन्म में किए गए अच्छे या बुरे कर्मों के आधार पर ही अगले जन्म में सुख या दुःख का भोग करते हैं। हमें निष्काम कर्मयोग’ अर्थात फल पाने की चिन्ता को त्यागकर कर्म में रत रहने के सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए जीवन जीना चाहिए। हमारी प्रकृति में भी इसी सिद्धान्त का पालन किया जाता है। पेड-पौधे, जिन्हें जड माना गया है, निःस्वार्थ भाव से फूलते-फलते हैं। यह जड़ प्रकृति का चेतन आनन्द है। अतः हमें प्रकृति से सीख लेकर अपने जीवन को कर्म में लगाए रखना चाहिए।तत्पश्चात् श्रद्धा मनु के कहे पूर्व कथन को दोहराते हुए कहती है कि तुम्हारा कहना है कि मैं अकेला और असहाय हूँ, किन्तु तुम्हीं सोचो; क्या ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया यज्ञ कभी सफल हो सकता है जो अकेला और उत्साहहीन हो! क्या तुम्हारे द्वारा अकेले यज्ञ करने से तुम्हारे तुच्छ विचार पुष्ट नहीं होते। यज्ञ करने के दौरान पत्नी का साथ होना यज्ञ की सफलता हेतु आवश्यक है। तुम्हारे द्वारा स्वयं को विवश और निराश्रित मानना भी तुम्हारे हीन विचारों का ही प्रतिफल है। सच तो यह है कि दीन-हीन विचारों से आत्म-विस्तार करना कदापि सम्भव नहीं। अतः हे तपस्वी! तुम्हें जीवन से विरत रहकर जीने की इच्छा त्याग देनी चाहिए और जग के कल्याणार्थ कर्मवीर बनकर जीने का संकल्प लेना
चाहिए।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
गुण – प्रसाद।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
अलंकार – अनुप्रास ।
शब्द शक्ति – लक्षणा।
समर्पण लो सेवा का सार
सजल संसृति का यह पतवार
आज से यह जीवन उत्सर्ग,
इसी पद तल में विगत विकार।
बनो संसृति के मूल रहस्य
तुम्हीं से फैलेगी वह बेल;
विश्व भर सौरभ से भर जाय
सुमन के खेलो सुन्दर खेल।
सन्दर्भ:–
पूर्ववत्।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में श्रद्धा-मनु के समक्ष आत्मसमर्पण करती है, ताकि दोनों मिलकर सम्पूर्ण मानवता की सेवा कर सकें।
व्याख्या:–
श्रद्धा मानवता के हितार्थ स्वयं को मनु को सौंप देना चाहती है। वह मनु से कहती है कि मैं तुम्हारी सेवा करना चाहती हूँ, इसलिए तुम मुझे स्वीकार कर लो। तुम्हारे द्वारा मेरा समर्पण स्वीकार कर लेने से हम इस सृष्टि अर्थात् सम्पूर्ण मानव जाति की भी सेवा कर सकेंगे। इस प्रकार, मेरा सेवा-कर्म इस जलमग्न अर्थात् समस्याओं से ग्रस्त संसार हेतु पतवार बनकर लोक कल्याण में सहायक होगा। तुम्हारे पिछले सभी दोषों को भूलकर मैं आज से अपना जीवन तुम्हें सौंप रही हूँ। जग कल्याणार्थ मुझे अपनी जीवनसंगिनी स्वीकार कर लो। मैं जीवन भर तुम्हारा साथ देकर अपने कर्तव्यों का पूर्णतः निर्वाह करूँगी। श्रद्धा आगे कहती है कि हे तपस्वी! मुझे अपनाकर सृष्टि को आगे बढ़ाने में सहायक बनो और इसके रहस्यों अर्थात् जीवन-मरण के सच का साक्षात्कार करो। इस सृष्टि को तुम्हारी नितान्त आवश्यकता है। तुम्हारे द्वारा ही सृष्टि की बेल जीवन पा सकेगी। अतः मुझे अपनी संगिनी अर्थात् पत्नी के रूप में सहर्ष स्वीकार कर संसार रूपी बेल को सूखने से बचा लो। तुम्हारे ऐसा करने अर्थात् सृष्टि के सुन्दर खेलों को खेलने से सम्पूर्ण विश्व मानव रूपी सुगन्धित पुष्पों से सुवासित हो उठेगा और प्रकृति खुश होकर झूमने लगेगी।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक।
अलंकार – अनुप्रास एवं यमक।
गुण – माधुर्य ।
शब्द शक्ति – अभिधा।
और यह क्या तुम सुनते नहीं
विधाता का मंगल वरदान-
'शक्तिशाली हो, विजयी बनो'
विश्व में गूंज रहा, जय गान।
डरो मत अरे अमृत संतान
अग्रसर है मंगलमय वृद्धि;
पूर्ण आकर्षण जीवन केन्द्र
खिची आवेगी सकल समृद्धि !!
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में मनु के एकान्त एवं निराश जीवन में आशा का संचार करती श्रद्धा उसे नवीन मानव-सृष्टि का प्रवर्तक बनने की प्रेरणा देती है।
व्याख्या:–
श्रद्धा मनु से कहती है कि तुमने इस संसार की रचना करने वाले विधाता का कल्याणकारी वरदान नहीं सुना, जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘शक्तिशाली बनकर विजय प्राप्त करो। श्रद्धा कहती है कि हे देवपुत्र मन। तम इस नवीन सष्टि का विकास करने के लिए तैयार हो जाओ। किसी भी पकार की आशंका से भयभीत न हो, क्योंकि कल्याणकारी उन्नति तुम्हारे सम्मुख है। तुम्हारा जीवन आकर्षण से भरा हुआ है। अतः सभी सुख-सम्पन्नता और वैभव । स्वयं ही तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हो जाएगा।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक।
अलंकार – अनुप्रास।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा।
विधाता की कल्याणी सृष्टि
सफल हो इस भूतल पर पूर्ण
पढ़ें सागर, बिखरे ग्रह-पुंज
और ज्वालामुखियाँ हो चूर्ण।
उन्हें चिनगारी सदृश सदर्प
कुचलती रहे खड़ी सानन्द
आज से मानवता की कीर्ति
अनिल, भू जल में रह न बंद ।
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।
प्रसंग :–
स्वयं को मनु को सौंप देने का प्रस्ताव रख श्रद्धा मनु को विश्वास दिलाती है कि हम दोनों के प्रयास से सम्पूर्ण जगत् में अर्थात् सभी दिशाओं में । मानवता की कीर्ति फैल जाएगी।
व्याख्या :–
सृष्टि की रचना में सहायक बनने के लिए मनु को प्रेरित करते हुए श्रद्धा कहती है कि मानव-सृष्टि संसार के समस्त जीव-जन्तुओं एवं प्रकृति के लिए कल्याणकारी है। तुम अपने मानवोचित कर्तव्यों का निर्वहन कर ईश्वर द्वारा रचित इस सृष्टि के क्रम को चलाने में अपना योगदान दो, ताकि वंश-वृद्धि के द्वारा पृथ्वी अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सके। तुम्हारे योगदान से अर्थात् सृष्टि-क्रम को आगे बढ़ाने से मानव-शक्ति के द्वारा सारे उफनते समुद्रों पर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया जाएगा। सारे ग्रह-नक्षत्र चारों ओर फैलकर सृष्टि को आलोकित करते हुए मानव-शक्ति का गुणगान करेंगे। उसके समक्ष विध्वंसकारी ज्वालामुखियों की भी एक न चलेगी और उन्हें भी शान्त कर दिया जाएगा अर्थात् मानव समस्त प्राकृतिक आपदाओं पर विजय पाकर उनसे होने वाली हानियों से समस्त जीवों की रक्षा करेगा। आज से वायु, पृथ्वी एवं जल जैसे प्राकृतिक तत्त्व भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैलने वाले मानवता के यश को अवरुद्ध नहीं कर पाएँगे।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक।
अलंकार – उपमा एवं अनुप्रास।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं व्यंजना ।
जलधि के फूटें कितने उत्स
द्वीप, कच्छप डूबे-उतराय;
किंतु वह खड़ी रहे दृढ मूर्ति
अभ्यय का कर रही उपाय।
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में श्रद्धा मनु को कर्मवीर होकर जीने की सीख देती हुई कहती है कि मानवता विकास के नित नए मार्गों को ढूँढते रहती है।
व्याख्या:–
प्रलय अर्थात् पृथ्वी के जलमग्न होने की बातों का उल्लेख करते हुए श्रद्धा मन को समझाती है कि भीषण प्रलय में समुद्र के बहुत से स्रोत फूट गए थे और चारों ओर जल-ही-जल हो जाने की स्थिति में द्वीपों सहित कछआ आदि समस्त जीव-जन्तु उसमें डूबने और बहने लगे थे इसके बावजूद मानवता की रक्षा और उत्थान हेतु नव प्रयास जारी हैं। मानवता की दृढ़ मूर्ति के रूप स्वयं हम दोनों यहाँ एक साथ विद्यमान हैं। यहाँ श्रद्धा की बातों का आशय यह है कि महाप्रलय के बाद भी मानवता अपने अस्तित्व की रक्षा करने में विजयी रही है। अतः मनु का। स्वयं को निरुपाय न मानकर समस्या के समाधान पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक।
अलंकार – अनुप्रास।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा।
शक्ति के विद्युत्कण, जो व्यस्त
विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय;
समन्वय उसका करे समस्त
विजयिनी मानवता हो जाय।"
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।
प्रसंग :–
प्रस्तुत पद्यांश में श्रद्धा ने मनु को मानवता की विजय का उपाय बताया है।
व्याख्या:–
श्रद्धा कहती है कि इस सृष्टि की रचना शक्तिशाली विद्युतकणों से । हुई है, किन्तु जब तक विद्युतकण अलग-अलग होकर भटकते हैं, तब तक ये शक्तिहीन होते हैं और जब ये परस्पर मिल जाते हैं, तब इनमें अपार शक्ति का स्रोत प्रस्फुटित होता है। ठीक उसी प्रकार जब तक मानव अपनी शक्ति को संचित न करके उसे बिखेरता रहता है, तब तक वह शक्तिहीन बना रहता है और जब वह समन्वित हो जाता है, तो वह विश्व को जीत लेने की अपार शक्ति प्राप्त कर लेता है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
अलंकार – दृष्टान्त ।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – लक्षणा।
2 Comments
Thanks to you
ReplyDeleteThank you
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