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गीत संदर्भ सहित व्याख्या

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 गीत संदर्भ सहित व्याख्या:–



निरख सखी, ये खंजन आये,

फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाये! 

फैला उनके तन का आतूप, मन से सर सरसाय, 

घूमें वे इस ओर वहाँ, ये हंस यहाँ उड़ छाये! 

करके ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुसकाये, 

फूल उठे हैं कमल, अधर-से यह बन्धूक सुहाये! 

स्वागत, स्वागत, शरद, भाग्य से मैंने दर्शन पाये, 

नभ ने मोती वारे, लो, ये अश्रु अर्घ्य भर लाये


सन्दर्भ:–

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी की पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘गीत’ शीर्षक से उधत है।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में दर्शाया गया है कि वर्षा समाप्त हो गई है शरद ऋत आरम्भ हो रही है। विरहिणी उर्मिला इस शरद ऋत का स्वागत कर रही है। ।


व्याख्या:–

 विरहिणी उर्मिला अपनी संगिनी से कह रही हैं कि देखो सखी। ये खंजन पक्षी आ गए हैं। मुझे ऐसा लगता है, जैसे आनन्द देने वाले प्रियतम ने इन खंजन पक्षियों के रूप में सुन्दर लगने वाले अपने नेत्र मेरी ओर घुमा दिए हैं। । चारों ओर धूप के रूप में प्रियतम के शरीर की गर्मी (तपस्या के कारण उत्पन्न) फैली हुई है और उनके (लक्ष्मण के) मन की सरसता और स्निग्धता के कारण सरोवर कमल के फूलों से खिल उठे हैं अर्थात कमलों से भरे सरोवर को देखकर मेरा मन ऐसे प्रसन्न हो उठा है, मानो उसे प्रियतम के सरस-स्निग्ध शरीर की समीपता प्राप्त हो गई हो। वन में मेरे प्रियतम घूम रहे होंगे और उस मन्द-मन्द गति का स्मरण दिलाने के लिए ही ये हंस उड़कर यहाँ आ गए हैं। मेरे। प्रियतम, वन में मुझे याद करके अवश्य मसकाए होंगे, तभी तो यहाँ ये कमल खिल उठे हैं और लाल रंग के बन्धूक के फूल प्रियतम के लाल अधरों के समान सुन्दर लग रहे हैं।

उर्मिला कहती है कि हे शरद! तुम्हारा स्वागत है। मैंने बड़े भाग्य से आज । तुम्हारे दर्शन किए। आकाश ने तुम्हारे स्वागत में ओस की बूंदों के रूप में असंख्य मोती न्योछावर किए हैं। लो मेरे ये नेत्र तुम्हारे स्वागत के लिए आँसूरूपी अर्घ्य । लेकर प्रस्तुत हैं।


काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – शुद्ध परिष्कृत खड़ीबोली ।

शैली – मुक्तक ।

छन्द – गेय पद।

अलंकार – अपहृति, हेतुत्प्रेक्षा एवं उपमा ।

गुण – माधुर्य ।

शब्द शक्ति – लक्षणा एवं व्यंजना।





शिशिर, न फिर गिरि-वन में ,

जितना माँगे, पतझड़ दूँगी मैं इस निज नन्दन में, 

कितना कम्पन तुझे, चाहिए, ले मेरे इस तन में । 

सखी कह रही, पाण्डुरता का क्या अभाव आनन में ? 

वीर, जमा दे नयन-नीर यदि तू मानस- भाजन में, 

तो मोती-सा मैं अकिंचना रक्खूँ उसको मन में ।

 हँसी गई, रो भी न सकूँ मैं, अपने इस जीवन में, 

तो उत्कण्ठा है, देखूँ फिर क्या हो भाव-भुवन में। 


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में विरहिणी उर्मिला शिशिर ऋतु से संवाद कर रही है। व उसे अपने पास बुला रही है, उर्मिला शिशिर ऋतु से कह रही है कि वो पर्वतों । व वनों में न जाए, जिससे लक्ष्मण शीत से बच जाएँ।


व्याख्या:–

 विरह अग्नि में जलती हुई उर्मिला शिशिर ऋत को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि हे शिशिर! तू पर्वतों तथा वनों में मत घूमा कर, मैं तुझे नन्दनवन के सदृश अपने इस शरीर से ही जितना चाहो पतझड़ अर्थात् पीले मुरझाए हुए पत्ते दे दूँगी। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार पतझड़ में वृक्ष के सारे पत्ते पीले पड़ कर झड़ने लगते हैं, उसी प्रकार लक्ष्मण से दूर रहने वाली उर्मिला के शरीर के सारे अंग विरह अग्नि से तप्त होकर या पीले होकर अपना अस्तित्व खोने लगे हैं। उर्मिला शिशिर से आगे कहती हैं कि तझे कितने कम्पन की आवश्यकता है, मैं तुझे अपने ही शरीर से उसकी आपूर्ति कर दूँगी। यहाँ उर्मिला के कहने का अर्थ है कि पति के वियोग के कारण शीत ऋत में उसका शरीर काँपता रहता है। उर्मिला शिशिर से कह रही हैं कि मेरी सखी मेरे मुख को पीला बताती है। अत: त मेरे मुख से पीलापन ले ले। हे वीर! यदि तू मेरे अश्रू-जल को मनरूपी पात्र में जमा दे तो मैं दीन (गरीब) उसे बड़े ही यत्न से सँजोकर अपने मन में रख लँगी अर्थात अश्रु-जल को मन-ही-मन में पीकर स्वयं को सँभाले रखेंगी। मेरी इसी छिन गई है, पर क्या इस जीवन में अब मैं रो भी नहीं सकती। सचमच यदि ऐसा ही हो यानी मेरा हँसना-रोना दोनों बन्द हो जाएँ तो उस स्थिति में मैं यह जानने के लिए उत्सुक रहूँगी कि आखिर तब मेरे भाव रूपी संसार में शेष क्या रह जाएगा अर्थात हँसी और रुदन के अभाव में मेरे मन में और कौन-से भाग उत्पन्न होंगे।


काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – शुद्ध परिष्कृत खड़ीबोली ।

शैली – मुक्तक।

छन्द – गेय पद ।

अलंकार – रूपक, मानवीकरण, उपमा एवं काव्यलिंग।

गुण – माधुर्य ।

शब्द शक्ति – लक्षणा एवं व्यंजना।



मुझे फूल मत मारो,

मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो । 

होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु, गरल न गारो, 

मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो। 

नहीं भोगिनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो, 

बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह-यह हरनेत्र निहारो ! 

रूप-दर्प कन्दर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो, 

लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो ।।3।।


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग :–

वसन्त ऋतु के सुहावने समय में चारों ओर खिले हुए फूल अपने रंग-रूप से अपूर्व मादकता बिखेर रहे हैं, परन्तु विरहिणी उर्मिला को वसन्त ऋतु का विकास और फूलों का रंग-रूप कष्टकारी प्रतीत हो रहा है।


व्याख्या :–

प्रस्तुत पद्यांश में काम-व्यथित उर्मिला कामदेव से प्रार्थना करती है। कि हे कामदेव! तुम मुझे अपने पुष्पबाणों से घायल मत करो, क्योंकि मैं तो वह अबला युवती हूँ जो विरहिणी है, वियोगिनी है। तुम्हें मुझ पर विचारपूर्वक दया करनी चाहिए। तुम वसन्त के मित्र हो और चतुर हो, इसलिए मुझ पर कामरूपी विष की वर्षा मत करो अर्थात् मेरी स्थिति देखकर मुझे और कष्ट मत दो। तुम्हारे पुष्पबाण के प्रहार से मेरा मन व्याकुल हो जाता है। इसमें तुम्हें भी असफलता ही मिलती है। तुम मुझे विचलित करने के लिए बहुत परिश्रम कर चुके हो, इसलिए अब विश्राम करो और अपनी थकान दूर करो। कहने का भाव यह है कि चाहे तुम मुझे कितना भी दुःख क्यों न दो, मैं भोग-विलास की इच्छा रखने वाली कोई विलासिनी नहीं बन सकती हूँ। यदि तुममें शक्ति है, साहस है, तो शिवनेत्र के समान बाधाओं को भस्म कर देने वाले मेरे इस सिन्दूर बिन्दु की ओर देखो।

उर्मिला कहती है कि हे कामदेव! यदि तुम्हें अपने रूप (सौन्दर्य) पर गर्व है, तो तुम अपने इस गर्व को मेरे पति के चरणों पर न्योछावर कर दो अर्थात् सौन्दर्य में तुम मेरे पति के चरणों की धूल के समान हो। यदि तुम्हें इस बात का घमण्ड है कि तुम्हारी स्त्री रति अत्यन्त सुन्दर है, तो तुम मेरे चरणों की धूल को रति के सिर पर रख दो अर्थात तम मझे विचलित करने में कभी सफल नहीं हो सकोगे।


काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – शुद्ध परिष्कृत खड़ीबोली ।

शैली – मुक्तक।

छन्द – गेय पद ।

अलंकार – श्लेष, यमक, रूपक एवं अनुप्रास।

गुण – माधुर्य ।

शब्द शक्ति – लक्षणा एवं व्यंजना।



यही आता है इस मन में,

धाम-धन जाकर मैं भी रहूँ उसी वन में।

प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ, रहूँ निकट भी दूर, 

व्यथा रहे, पर साथ-साथ ही समाधान भरपूर । 

हर्ष डूबा हो रोदन में, 

यही आता है इस मन में ।

बीच बीच में उन्हें देख लूँ मैं झुरमुट की ओट, 

जब वे निकल जायँ तब लेदूँ उसी धूल में लोट । 

रहें रत वे निज साधन में, 

यही आता है इस मन में ।

जाती जाती, गाती गाती, कह जाऊँ यह बात- 

धन के पीछे जन, जगती में उचित नहीं उत्पात । 

प्रेम की ही जय जीवन में। 

यही आता है इस मन में ।।4।।


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में उर्मिला अपने प्रिय लक्ष्मण के साथ वन में रहने की । इच्छा व्यक्त करती हैं, पर वह उनकी तपस्या में बाधा भी नहीं पहुँचाना चाहतीं।


व्याख्या :–

वियोगिनी उर्मिला कहती है कि अब मेरा मन घर-परिवार और धन-दौलत में नहीं लगता, मैं इन सबको छोड अपने प्रिय के पास वन में जाकर। रहना चाहती हूँ, किन्तु वहाँ उनके पास जाकर भी मैं उनसे दूर ही रहूँगी ताकि उनके व्रत में बाधा न उत्पन्न हो। इस प्रकार यहाँ उर्मिला के द्वारा वनवासी की। तरह जीवन बिताने की चाह व्यक्त की गई है। वह कहती हैं कि मेरा दुःख अर्थात् विरह की स्थिति यथावत बनी रहे पर साथ-ही-साथ उसका पूर्णत: निदान भी। होता रहे। यहाँ कहने का अर्थ है कि उर्मिला शरीर से दूर रहकर भी अपने प्रियतम के दर्शन का सख भोग सकें। उर्मिला को अपने प्रिय से दूर रहकर उनको न पा सकने के दुःख में रोते रहना स्वीकार है, पर वह उन्हें अपनी आँखों से इतनी दूर जाने नहीं देना चाहती जहाँ से वह उन्हें नजर ही न आएँ। उर्मिला कहती हैं कि वन में रहने के क्रम में मैं बीच-बीच में पेड़-पौधों की आड़ लेकर अपने प्रियतम को देख कर अपनी आँखों की प्यास को तृप्त कर लूँगी और जब वह उस स्थान को छोड़कर चले जाएँगे, तो मैं वहाँ की धूल-मिट्टी में लोट कर उनके साथ होने का सुख प्राप्त करती रहूँगी इससे उनकी साधना भी भंग नहीं होगी और मुझे आत्मिक सुख की प्राप्ति भी होती रहेगी। उर्मिला आगे कहती हैं कि मेरा मन करता है कि मैं जाते-जाते और गाते-गाते यही सन्देशा दे जाऊँ कि इस संसार में धन और वैभव की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना तथा एक-दूसरे को मारना-काटना सर्वथा अनुचित है। मानव-जीवन में सदा से प्रेम की ही जीत होती है।


काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – शुद्ध परिष्कृत खड़ीबोली। 

शैली – मुक्तक ।

छन्द – गेय पद।

अलंकार – विरोधाभास, पुनरुक्तिप्रकाश एवं अनुप्रास।

गुण – माधुर्य ।

शब्द शक्ति – लक्षणा एवं व्यंजना।




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