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मैथिलीशरण गुप्त का संक्षिप्त जीवन परिचय, कैकेयी का अनुताप संदर्भ सहित व्याख्या

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 मैथिलीशरण गुप्त का संक्षिप्त जीवन परिचय:–



• जन्म-3 अगस्त, सन् 1886 ई० ।

• जन्म-स्थान-चिरगाँव (झाँसी) ।

• पिता- सेठ रामचरण गुप्त ।

• मुख्य रचना - साकेत ।

• मृत्यु - 12 दिसम्बर, सन् 1964 ई० ।




कैकेयी का अनुताप संदर्भ सहित व्याख्या:–

कैकेयी का अनुताप:–

तदनन्तर बैठी सभा उदज के आगे,
नीले वितान के तले दीप बहु जागे ।
टकटकी लगाये सुरो के थे वे,
परिणामोत्सुक उन भयातुरो के थे वे।
उत्फुल्ल करौंदी कुंज वायु रह रहकर,
करती थी समको पुलक पूर्ण मह महकर।
वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी,
प्रभु बोले गिरा गभीर नीरनिधि जैसी

सन्दर्भ:–

प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘कैकेयी का अनुताप’ शीर्षक से उद्धृत है।

प्रसंग:–

प्रस्तुत पद्यांश में पंचवटी की प्राकृतिक छटा का मनोहरी वर्णन किया गया है। प्रकृति के सौन्दर्य का यह वर्णन उस क्षण का है जब यहाँ भरत सहित अयोध्या के वासियों को श्रीराम से भेंट करने हेतु रात्रि-सभा का आयोजन किया जाता है

व्याख्या:–

भरत सहित अयोध्यावासियों के पंचवटी पहुँचने के पश्चात् रात्रि में श्रीराम की कुटिया के सामने सभा बैठाई गई, जिसे देख ऐसा आभास हो रहा था कि मानो आकाश रूपी मण्डप के नीचे बहुत से तारे रूपी दीपक जगमगा रहे हों, सभा में लिए। जाने वाले महत्त्वपूर्ण निर्णय का परिणाम जानने के लिए उत्सुक देवतागण भी वहाँ । एकटक नजरें गड़ाए हुए थे। सभी इस बात को लेकर भयभीत थे कि कहीं भरत के । आगमन का श्रीराम कुछ और ही अर्थ निकालकर कोई कठोर निर्णय न कर लें।
वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अनुपम था। खिले हुए करौंदे पुष्पों से भरे हुए । बगीचों से रह-रह कर आने वाली मन्द, शीतल व सुगन्धित पवन वहाँ उपस्थित लोगों को पुलकित कर रही थी। वहाँ ऐसी मनोहर चाँदनी छिटक रही थी, जिसका अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। वह सभा चन्द्रलोक-सी प्रतीत हो रही थी। अलौकिक दृश्यों से परिपूर्ण उस शान्त सभा में श्रीराम ने सागर सदृश अति गम्भीर स्वर में बोलना प्रारम्भ किया।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – परिष्कृत खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक।
छन्द – मालिनी ।
अलंकार – उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक एवं अनुप्रास।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।

"हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना",
सब सजग हो गये, भंग हुआ ज्यों सपना ।
"हे आर्य, रहा क्या भरत अभीप्सित अब भी ?
मिल गया अकण्टक राज्य उसे जब तब भी ?
है पाया तुमने तर तले अरण्य-बसेरा,
रह गया अभीप्सित शेष तदपि क्या मेरा ?
तन तड़प तड़पकर तप्त सात ने त्यागा,
क्या रहा अभीप्सित और तथापि अभागा ?

सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।

प्रसंग:–

प्रस्तुत पद्यांश में पंचवटी में आयोजित की गई रात्रि-सभा में श्रीराम, भरत से उनकी इच्छा पूछते हैं। इस पर भरत अति व्याकुलतापूर्ण शब्दों में अपनी मनोदशा राम के समक्ष व्यक्त करते हैं।

व्याख्या:–

जब राम अपने अनुज भरत से कहते हैं कि अब तुम अपनी इच्छा व्यक्त करो तो वहाँ उपस्थित सभी लोग वैसे सावधान हो जाते हैं, जैसे स्वप्न टूटने पर कोई व्यक्ति। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि सभी लोग राम-भरत संवाद को सुनने और उसका परिणाम जानने के लिए व्याकुल थे। राम की बात सुनकर भरत कहते हैं कि हे आर्य! अब भला मेरी और क्या अभिलाषा शेष होगी, जब मुझे अयोध्या का एकछत्र राज्य और आपको वनवास मिल गया। पिता जी ने भी दु:ख में तड़प-तड़प कर प्राण त्याग दिए। ऐसे में भला इस अभागे की और कौन-सी चाह (इच्छा) पूरी होनी, शेष रही होगी। इस प्रकार, भरत ने दुःखपूर्ण शब्दों में राम के सम्मुख अपनी मनोदशा को व्यक्त कर दिया हा उन्हें राम, लक्ष्मण और सीता का पेड़ के नीचे वन में निवास करना अत्यधिक कष्ट पहुँचा रहा है।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – परिष्कृत खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक।
छन्द – शिखरिनी ।
अलंकार – उपमा एवं अनुप्रास।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं व्यंजना।


हा! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा,
निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा ।
अब कौन अभीप्सित और आर्य, वह किसका?
संसार नष्ट है प्रष्ट हुआ घर जिसका ।
मुझसे मैंने ही आज स्वयं मुँह फेरा,
हे आर्य, बता दो तुम्ही अभीप्सित मेरा?
" प्रभु ने भाई को पकड़ हृदय पर खींचा,
रोदन जल से सविनोद उन्हें फिर सींचा!
"उसके आशय की चाह मिलेगी किसको?
जनकर जननी ही जान न पाई जिसको ?"

सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।

प्रसंग:–

प्रस्तुत पद्य में राम के पूछने पर भरत अपनी बातें उनके सम्मुख रखते हुए अपनी माता कैकेयी के किए पर पछतावा व्यक्त करते हैं और स्वयं को अपनी ही नजरों में उपेक्षित बताते हैं।

व्याख्या:–

भरत अपने भाग्य को कोसते हुए राम से कहते हैं कि विधाता ने मुझे इसी अपयश हेतु जना (जन्म देना) था। अपनी ही माता के हाथों मेरा वध करने के लिए। भला बताएँ आर्य! उस व्यक्ति की क्या इच्छा शेष रही होगी, जिसका घर-संसार सब कुछ नष्ट हो गया हो! आज मैं स्वयं अपनी ही नजरों में दोषी हूँ। स्वयं मैं ही अपनी उपेक्षा करता हूँ। ऐसे में आप ही कहें आर्य कि मेरी
कौन-सी मनोकामना शेष रह गई होगी। भरत की विषादपूर्ण बातों को सुनकर राम ने अपने अनुज को हृदय से लगा लिया। प्रसन्नता के कारण उनकी आँखें भर आईं और उन्होंने भावुक होकर भरत की प्रशंसा करते हुए कहा कि जिसे स्वयं जन्म देने वाली माता ही न समझ सकी, भला उसके हृदय की गहराई को और कौन समझ सकेगा।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – परिष्कृत खड़ीबोली ।
शैली – प्रबन्धात्मक।
छन्द – मन्दाक्रान्ता ।
अलंकार – अनुप्रास और उपमा।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं व्यंजना।



"यह सच है तो अब लौट चलो तुम पर को "
सब स्कर अटल केकमी-स्वर को।
सबने रानी की ओर अचानक देखा,
वैधव्य-तुषारावृता तथा विधु -लेखा ।
बैठी थी अचल तथापि असंख्यतरंगा,
वह सिंही अब थी हहा! गोमुखी गंगा-
"हाँ, जनकर भी मैंने न भरत को जाना,
सब सुन ले, तुमने स्वयं अभी यह माना ।
यह सच है तो फिर लौट चलो घर भैया,
अपराधिन मैं हूँ तात, तुम्हारी मैया।

सन्दर्भ:–

पूर्ववत्।

प्रसंग:–

प्रस्तुत पद्यांश में राम की बात सुनकर माता कैकेयी स्वयं को दोषी सिद्ध करती हुई उनसे अयोध्या लौटने की बात कहती हैं।

व्याख्या:–

राम की इस बात को सुनकर कि भरत को स्वयं उसकी माता भी न पहचान सकी, कैकेयी कहती हैं कि यदि यह सच है, तो अब तम अपने घर लौट चलो अर्थात् मेरी उस मूर्खता को भूलकर अयोध्या। चलो जिसके परिणामस्वरूप मैंने तुम्हारे लिए वनवास की माँग की थी।
कैकेयी के मुख से दृढ स्वर में कही गई इस बात को सुनकर सब विस्मित रह गए और अचानक उनकी ओर देखने लगे। उस समय विधवा रूप में श्वेत वस्त्र धारण कर वे ऐसी प्रतीत हो रही थीं मानो कुहरे ने चाँदनी को ढक लिया हो। स्थिर बैठी होने के पश्चात भी उनके मन में विचारों की अनगिनत तरंगें उठ रही थीं। कभी सिंहनी-सी प्रतीत होने वाली रानी कैकेयी आज दीनता के भावों से भरी थीं। आज वह गंगा के सदृश शान्त, शीतल और पावन थीं।
कैकेयी आगे कहती हैं कि सभी लोग सुन लें-मैं जन्म देने के पश्चात् भी भरत को न पहचान सकी। अभी-अभी राम ने भी इस बात को स्वीकार किया है। वह राम से कहती हैं कि यदि तुम्हारी कही बात सच है तो तुम अयोध्या लौट चलो। अपराधिनी मैं हूँ, भरत नहीं। तुम्हें वन में भेजने का अपराध मैंने किया है। इसके लिए मुझे जो दण्ड चाहो दो, मैं उसे स्वीकार कर लूँगी, परन्तु घर लौट चलो, अन्यथा लोग भरत को दोषी मानेंगे।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – परिष्कृत खड़ीबोली।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
छन्द – मन्दाक्रान्ता।
अलंकार – उत्प्रेक्षा, उपमा एवं रूपक।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।



दुर्बलता का ही चिह्न विशेष शपथ है,
पर, अवलाजन लिए कौन-सा पथ है?
यदि मैं उकसाई गई परत से होऊ,
तो पति समान ही स्वयं पुत्र भी खोऊँ।
ठहरो, मत रोको मुझे कहूँ सो सुन लो,
पाओ यदि उसमें सार उसे सब चुन लो ।
करके पहाड़-सा पाप मौन रह जाऊँ?
राई भर भी अनुताप न करने पाऊँ?"
थी सनक्षत्र राशि-निशा ओस टपकाती,
रोती थी नीरव सभा हृदय थपकाती।
उल्का-सी रानी दिशा दीप्त करती थी,
सबमें भय-विस्मय और खेद भरती थी।

सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।

प्रसंग :–

प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कवि ने कैकेयी के पश्चाताप को अपूर्व ढंग से अभिव्यंजित किया है।

व्याख्या :–

कैकेयी, भरत की सौगन्ध खाते हुए राम से कहती हैं कि सौगन्ध खाने से व्यक्ति की दुर्बलता प्रकट होती है, परन्तु स्त्रियों के लिए इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं हैं। वह राम को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि हे राम! मुझे तुम्हारे वनवास के लिए भरत ने नहीं उकसाया था। यदि यह सच नहीं तो मैं पति के समान ही। अपना पुत्र भी खो बैलूं। मुझे यह कहने से कोई न रोके। मैं जो कह रही हैं, सभी सुन लें। यदि मेरे कथनों में कोई यथार्थ बात हो तो उसे ग्रहण कर लें। मुझसे यह न सहा। जा सकेगा कि मैं इतना बड़ा पाप करके थोड़ा भी पश्चाताप प्रकट न करूँ और मौन रह जाऊँ।

कैकेयी के यह सब कहने के दौरान तारों से भरी चाँदनी रात ओस के रूप में अश्रु-जल बरसा रही थी और नीचे मौन सभा हृदय को थपथपाते हुए रुदन कर रही थी। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि कैकेयी के हृदय-परिवर्तन और उनके पश्चाताप को देख सभा में उपस्थित सभी लोगों की संवेदना उनके साथ थी मानो सभासद सहित प्रकृति ने भी उन्हें उनके अपराध के लिए क्षमा कर दिया हो।
रानी कैकेयी, जिसने अपनी अनुचित माँग से पूरे अयोध्या और वहाँ के निवासियों का जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया था, आज पश्चाताप की अग्नि में जलकर चारों ओर सदभाव की किरणें बिखेर रही थीं। उनके इस नए रूप के परिणामतः वहाँ उपस्थित लोगों में एक साथ भय, आश्चर्य और शोक के भाव उमड़ रहे थे।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – परिष्कृत खड़ीबोली।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
छन्द – मन्दाक्रान्ता।
अलंकार – उत्प्रेक्षा, उपमा एवं रूपक।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।



"क्या कर सकती थी मरी मन्थरा दासी,
मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी।
जल पंजरगत अब अरे अधीर, अभागे,
वे ज्वलित भाव से स्वयं तुझीमें जागे
पर था केवल क्या ज्वलित भाव ही मन में?
क्या शेष बचा था. कुछ ने और इस मन में?
कुछ मूल्य नहीं वात्सल्य मात्र क्या तेरा?
पर आज अन्य-सा हुआ वत्स भी मेरा।
थूके, मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके,
जो कोई जो कह सके, कहे, क्यों चूके ?
छीने. न. मातृपद किन्तु भरत का मुझसे,
रे राम, दुहाई करूँ और क्या तुझसे?

सन्दर्भ:–

पूर्ववत्।

प्रसंग:–

प्रस्तुत पद्यांश में कैकेयी, राम को वनवास भेजने के लिए स्वयं को दोषी ठहराते हुए पश्चाताप कर रही है।

व्याख्या :–

कैकेयी, मन्थरा को निर्दोष बताते हुए कहती हैं कि मन्थरा तो साधारण-सी दासी है। वह भला मेरे मन को कैसे बदल सकती! सच तो। यह है कि स्वयं मेरा मन ही अविश्वासी हो गया था।
अपने मन को अधीर और अभागा मान कैकेयी अपने अन्तर्मन को कहती हैं कि मेरे शरीर में स्थित हे मन! ईर्ष्या-द्वेष से परिपूर्ण वे ज्वलन्त भाव स्वयं तझमें ही जागे थे। तत्पश्चात् वह अगले ही क्षण सभा को सम्बोधित करते हुए प्रश्न पूछती हैं कि क्या, मेरे मन में केवल आग लगाने वाले भाव ही थे? क्या मुझमें और कुछ भी शेष न था? क्या मेरे मन के वात्सल्य भाव अर्थात् पुत्र-स्नेह का कुछ भी मूल्य नहीं? किन्तु हाय आज स्वयं मेरा पुत्र ही मुझसे पराए की तरह व्यवहार करता है। अपने कर्मों पर पछताते हुए कैकेयी आगे कहती हैं कि तीनों लोक अर्थात् धरती, आकाश और पाताल मुझे क्यों न धिक्कारे, मेरे विरुद्ध जिसके मन में जो आए वह क्यों न कहे, किन्तु हे राम! मैं तुमसे दीन स्वर में बस इतनी ही विनती करती हूँ कि मेरा मातृपद अर्थात् भरत को पुत्र कहने का मेरा अधिकार मुझसे न छीना जाए। ।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – परिष्कृत खड़ीबोली।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
छन्द – मन्दाक्रान्ता।
अलंकार – उत्प्रेक्षा, उपमा एवं रूपक।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।




कहते आते थे यही अभी नरदेही,
'माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र पुत्र कुपुत्र भले ही ।'
अब कहें सभी यह हाय! विरुद्ध विधाता,
'है पुत्र पुत्र ही, देखा, ही, रहे कुमाता माता।'
बस मैंने  इसका बाह्य मात्र ही दृढ़ हृदय न देखा,
मृदुल गात्र ही देखा, स्वार्थ ही साधा, परमार्थ न देखा, पूर्ण स्वार्थ ही इस कारण ही तो हाय आज यह बाधा ! युग युग तक चलती रहे कठोर कहानी- 
'रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी ।'

सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।

प्रसंग:–

प्रस्तुत पद्यांश में कैकेयी स्वयं को धिक्कारते हुए भरत के हृदय को न समझ पाने की असमर्थता को व्यक्त कर रही हैं।

व्याख्या :–

आत्मग्लानि में डूबी हुई कैकेयी कहती हैं कि अभी तक तो मानव जाति में यही कहावत प्रचलित थी कि पुत्र, कुपुत्र भले ही हो जाए, माता कभी कमाता नहीं होती अर्थात् पुत्र माता के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने में चाहे कितनी भी लापरवाही क्यों न दिखाए, उनके प्रति कितना भी अपराध क्यों न करे, माता उसे क्षमा करके उसके प्रति अपना उत्तरदायित्व सदा निभाती ही रहती है, किन्तु अब तो सभी लोग यह कहेंगे कि विधाता के बनाए नियमों के विरुद्ध यहाँ पुत्र तो पत्र ही है, माता ही कमाता हो गई है अर्थात् संसार मुझ पर बुरी माता होने का आरोप लगाएगा. क्योंकि मैंने पुत्र के हित के विरुद्ध कार्य किया है।

कैकेयी अपने दोष गिनाते हुए आगे कहती हैं, कि मैंने अपने पुत्र (भरत) का केवल बाहरी रूप ही देखा है, उसके दृढ़ हृदय को मैं न समझ सकी। मेरी दृष्टि बस उसके कोमल शरीर तक गई, उसके परमार्थी स्वरूप को मैं अब तक न देख सकी। इन्हीं कारणों से आज मैं इन समस्याओं से घिरी हूँ और मेरा जीवन दुभर हो गया है। अब तो युगों-युगों तक मैं दुष्ट माता के रूप में जानी जाऊँगी। मुझे याद कर लोग कहेंगे कि रघुकुल में एक अभागिन रानी थी, जिसे स्वयं उसके पुत्र ने त्याग दिया था।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – परिष्कृत खड़ीबोली।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
छन्द – मन्दाक्रान्ता।
अलंकार – उत्प्रेक्षा, उपमा एवं रूपक।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।


निज जन्म जन्म में सुने जीव यह मेरा-
'धिक्कार! उसे था महा स्वार्थ ने घेरा।"_ '
सौ बार धन्य वह एक लाल की माई,
जिस जननी ने है 'भरत-सा भाई।'
पागल-सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई-
'सौ बार धन्य वह एक लाल की माई।"
'हा! लाल ? उसे भी आज  गमाया मैंने,
विकराल कुयश ही यहाँ कमाया मैंने।

सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।

प्रसंग :–

यहाँ कैकेयी द्वारा पश्चाताप व्यक्त करने पर राम सहित उपस्थित सभाजनों ने उन्हें भरत जैसे पुत्र की माता होने पर धन्य कहा है।

व्याख्या:–

कैकेयी पश्चाताप व्यक्त करते हुए कह रही हैं कि अब तो जन्म-जन्मान्तर तक मेरी आत्मा यह सुनने के लिए विवश होगी कि अयोध्या की रानी कैकेयी को महा स्वार्थ ने घेरकर ऐसा अनुचित कर्म कराया कि उसने धर्म के मार्ग का त्याग कर अधर्म के मार्ग का अनुसरण किया। कैकेयी की इन बातों को सुनकर राम सहित सभासदों ने एक स्वर में कहा कि भरत जैसे महान् पुत्र रत्न को जन्म देने वाली माता सौ-बार धन्य हैं। अतः । यहाँ सभी लोगों द्वारा एक मत से कैकेयी को निर्दोष कहा जा रहा है। – सभासदों की बात को सुनकर कैकेयी ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उनकी बात दोहराई और कहा कि हाँ मैं उसी पुत्र की अभागिन माता हूँ, जिसे बात मैंने खो दिया है वह पत्र भी अब मेरा नहीं रहा। उसने मुझे माता मानने से। इनकार कर दिया है। मैंने हर प्रकार से अपयश ही कमाया है और स्वयं को । कलंकित भी कर लिया है।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – परिष्कृत खड़ीबोली।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
छन्द – मन्दाक्रान्ता।
अलंकार – पुनरूक्ति प्रकाश, उपमा एवं रूपक।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।


निज स्वर्ग उसी पर वार दिया था मैंने,
हर तुम तक से अधिकार लिया था मैंने।
पर वही आज यह दीन हुआ रोता है,
शंकित सबसे धृत हरिण-तुल्य हरिण - तुल्य होता है, श्रीखण्ड आज अंगार-चण्ड है मेरा, 
तो इससे बढ़कर कौन दण्ड कौन दण्ड है मेरा ?
पटके मैंने मैंने पद-पाणि मोह के नद में,
के जन क्या क्या करते नहीं स्वप्न में, मद में?

सन्दर्भ:–

पूर्ववत्।

प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में कैकेयी, राम के समक्ष अपनी एवं भरत की दीन दशा का वर्णन कर रही है।

व्याख्या:–

पश्चाताप की अग्नि में जलती हुई कैकेयी, राम से कहती हैं कि मैंने अपने उस पुत्र पर अपना स्वर्ग-सुख भी न्योछावर कर दिया था और उसी के कारण मैंने तुम्हारा अधिकार (राज्य) भी तुमसे छीन लिया। मेरा वही पुत्र आज दीन-हीन होकर करुण क्रन्दन कर रहा है। वह तब से किसी पकड़े गए हिरन की तरह सभी से भयभीत हो रहा है। चन्दन के समान शीतल स्वभाव वाला मेरा पुत्र भरत, आज जलते हुए अंगारे की तरह प्रचण्ड दिख रहा है। इससे बढ़कर मुझ अभागिन के लिए दूसरा दण्ड और क्या हो सकता है कि मेरा पुत्र ही मुझसे अलग हो गया है, वह मुझसे कपित है। हे राम! अब मुझे और बड़ा दण्ड मत दो। मैंने अपने हाथ-पैर मोहरूपी नदी में फेंके और पटके अर्थात् राज्य के मोह में फँस कर ही मैंने यह सब किया। मेरा यह कार्य ऐसा ही था, जैसे कोई व्यक्ति पागलपन में अथवा स्वप्न में व्यवहार करता है। अतः मेरे इस कार्य को पागलपन अथवा स्वप्न में किया गया कार्य समझकर मुझे क्षमा कर दो।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – परिष्कृत खड़ीबोली।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
छन्द – मन्दाक्रान्ता।
अलंकार – पुनरुक्तिप्रकाश एवं अनुप्रास, उपमा ।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।,
गुण प्रसाद शब्द शक्ति अभिधा एवं लक्षणा




हा! दण्ड कौन, क्या उसे डरूंगी अब भी ?
मेरा विचार कुछ दयापूर्ण हो भी।
तब हा दया! हन्त वह घृणा! अहह वह करुणा! वैतरणी सी हैं आज जाह्नवी - वरुणा!
सह हूँ चिर नरक, सुनें सुविचारी,
पर मुझे स्वर्ग की दया दण्ड से भारी ।
लेकर अपना यह कुलिश-कठोर कलेजा,
मैंने इसके ही लिए तुम्हें वन भेजा।
घर चलो इसीके लिए, न रूठो अब यों,
कुछ और कहूँ तो उसे सुनेंगे सब क्यों ?

सन्दर्भ:–

पूर्ववत्।

प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में कैकेयी स्वयं पर पश्चाताप प्रकट करते हुए राम को । घर लौट चलने के लिए कह रही हैं।

व्याख्या:–

 कैकेयी, राम के समक्ष अपनी पीड़ा व्यक्त करती हुई कहती हैं कि मेरे घोर अपराध हेतु जो भी दण्ड मुझे दिया जाएगा वह कम ही होगा। मेरी दीनतापूर्ण याचना के स्वर को सुनकर यह न समझा जाए कि मैं दण्ड भोगने से भाग रही हूँ अथवा मुझे दण्ड स्वीकार नहीं। वस्तुतः आज दया, घृणा, करुणा, सबने अपने अर्थ खो दिए हैं। आज गंगा और वरुणा जैसी पावन नदियाँ भी मेरे लिए नरक की भाँति अति दूषित नदी वैतरणी बन गई हैं। मैं सभी सज्जन व प्रबुद्ध लोगों से कहती हूँ कि मैं लम्बी अवधि तक नरक का दुःख भोग सह सकती हूँ, किन्तु स्वर्ग पाने की याचना का भार मुझसे नहीं सहा जाएगा, क्योंकि वह नरक की पीड़ा से कहीं बढ़कर है। कैकेयी आगे कहती हैं कि हे राम, मैंने जिसके (भरत) लिए अपने हृदय को वज्र-सा कठोर बनाकर तुम्हें वन में भेजा था, आज उसी के हितार्थ तुम रूठना छोड़ दो और घर लौट चलो। मैं इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ कहना चाहूँ भी तो मेरी कही गई बातों को भला कौन विश्वास करेगा।

काव्य गत सौन्दर्य:–

कला पक्ष
भाषा – परिष्कृत खड़ीबोली।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
छन्द – मन्दाक्रान्ता।
अलंकार – उत्प्रेक्षा, उपमा एवं रूपक।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।


मुझको यह प्यारा और इसे तुम प्यारे,
मेरे दुगुने प्रिय रहो न मुझसे न्यारे ।
मैं इसे न जानूँ, किन्तु जानते हो तुम
अपने से पहले इसे मानते हो तुम।
तुम भ्राताओं का प्रेम परस्पर जैसा,
यदि वह सब पर यों प्रकट हुआ है वैसा,
तो पाप-दोष भी पुण्य-तोष है मेरा,
मैं रहूँ पंकिला, पद्म-कोष है मेरा ।
आगत ज्ञानीजन उच्च भाल ले लेकर,
समझावें तुमको अतुल युक्तियाँ देकर।
मेरे तो एक अधीर हृदय है बेटा,
उसने फिर तुमको आज भुजा भर भेटा।

सन्दर्भ:–

पूर्ववत्।

प्रसंग:–

कैकेयी स्वयं पर दोषारोपण करते हुए राम से अयोध्या लौट चलने के लिए विनती कर रही हैं।

व्याख्या:–

कैकेयी, राम से कहती हैं कि हे पुत्र! मुझे भरत प्रिय है और भरत को तुम प्रिय हो। अतः मेरे लिए तुम दोगुने प्रिय हो। इस कारण तुम मुझसे अलग न रहो। यह सत्य है कि मैं भरत को अब तक न पहचान सकी, पर तुम तो इसे पूर्णरूपेण जानते हो और इसे स्वयं से बढ़कर प्यार करते हो। तुम दोनों भाइयों के आपसी प्रेम की अभिव्यक्ति के प्रभाव से आज मेरे पाप का दोष भी पुण्य के सन्तोष में परिणत हो गया है।
कैकेयी आगे कहती हैं कि कीचड के समान होने पर भी मुझे इस बात का सन्तोष है कि मैंने अपनी कोख से कमल रूपी रत्न भरत को जन्म दिया है। भविष्य में ज्ञानी लोग तम दोनों भाइयों के प्रेम को तरह-तरह से प्रमाणित करेंगे और उसे श्रेष्ठ सिद्ध करेंगे और ऐसा होना भी चाहिए, किन्तु एक विवश माँ के लिए इन तर्क-वितर्कों का भला क्या महत्त्व। इस धैर्यहीन माँ की तो अब बस एक ही इच्छा है कि वह तुम-दोनों पुत्रों को सदा अपनी आँखों के सम्मुख देखे। अपने से कभी दूर न होने दे। आज इस माँ का अधीर हृदय तुम्हें अपनी बाँहें फैलाकर तुमसे विनती कर रहा है कि अयोध्या लौट चलो।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – परिष्कृत खड़ीबोली।
शैली – प्रबन्धात्मक ।
छन्द – मन्दाक्रान्ता।
अलंकार – पुनरुक्तिप्रकाश एवं अनुप्रास, उपमा ।
गुण – प्रसाद ।
शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।,
गुण प्रसाद शब्द शक्ति अभिधा एवं लक्षणा



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