महादेवी वर्मा का संक्षिप्त जीवन परिचय:–
• जन्म सन् 1907 ई०।
• जन्म-स्थान- फर्रुखाबाद (उ0प्र0)।
• पिता श्री गोविन्द सहाय ।
• माता श्रीमती हेमरानी।
• मृत्यु सन् 1987 ई० ।
• उ0 प्र0 विधान परिषद् की सदस्या रहीं।
गीत सन्दर्भ सहित व्याख्या:–
चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना ! जाग तुझको दूर जाना!
अचल मिगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले,
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले; आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
जाग या विद्युत-शिखाओं में निदुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना !
जाग तुझको दूर जाना!
सन्दर्भ:–
प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘गीत-1’ शीर्षक कविता से उद्धृत है, जो उनके काव्य संग्रह ‘सान्ध्यगीत’ से लिया गया है।
प्रसंग:–
प्रस्तुत गद्यांश में कवयित्री अपने साधना-पथ में तनिक भी आलस्य नहीं आने देना चाहती हैं तथा इस पथ पर निरन्तर धैर्य के साथ आगे बढ़ते रहने के लिए अपने प्राणों को सम्बोधित कर रही हैं।
व्याख्या :–
कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं कि हे प्राण! निरन्तर जागरूक रहने वाली आँखें आज नींद से भरी अर्थात् आलस्ययुक्त क्यों हैं? तुम्हारा वेश आज इतना अव्यवस्थित क्यों है? आज अलसाने का समय नहीं। आलस्य एवं प्रमाद को छोड़कर अब तुम जाग जाओ, क्योंकि तुम्हें बहुत दूर जाना है। तुम्हें अभी बहुत बड़ी साधना करनी है। चाहे आज दृढ़ हिमालय कम्पित हो जाए या फिर आकाश से प्रलयकाल की वर्षा होने लगे अथवा घोर अन्धकार प्रकाश को निगल जाए या चाहे चमकती और कड़कती हुई बिजली में से तूफान बोलने लगे, तो उस विनाश वेला में भी तुम्हें अपने चिह्नों को छोड़ते चलना है और किसी भी परिस्थिति में साधना-पथ से विचलित नहीं होना है। महादेवी जी पुनः अपने प्राणों को उद्बोधित करती हुई कहती हैं कि हे प्राण! तुझे साधना-पथ पर चलते हुए लक्ष्य प्राप्त करना है। अब तू जाग जा, क्योंकि तुझे बहुत दूर जाना है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – शुद्ध खड़ीबोली ।
शैली – गीतात्मक, प्रतीकात्मक ।
छन्द – मुक्त।
अलंकार – मानवीकरण ।
गुण – ओज एवं प्रसाद ।
शब्द शक्ति –लक्षणा।
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बन्धन सजीले ?
पन्थ को बाधा बनेंगे तितलियों के पर रँगीले ?
विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले ?
तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।
प्रसंग :–
प्रस्तुत पद्यांश में महादेवी वर्मा ने साधना मार्ग में उत्पन्न होने वाली विभिन्न बाधाओं व कठिनाइयों का उल्लेख किया है।
व्याख्या :–
कवयित्री कहती हैं कि हे प्राण! क्या मोम के समान शीघ्र नष्ट (पिघलना) हो जाने वाले अस्थिर, परन्तु सुन्दर सांसारिक बन्धन तुम्हें बाँधकर साधना मार्ग में बाधा उत्पन्न कर देंगे? क्या तितलियों के पंखों के समान यह रंगीन संसार का आकर्षण तुम्हारे मार्ग में बाधा बन जाएगा? क्या सांसारिक क्रन्दन या रूदन की ध्वनि भौरे की मधुर [जार को सुनने में बाधा उत्पन्न करेगी अर्थात् तुम्हारे साधना मार्ग को अवरुद्ध करेगी? क्या पुष्पों (फूलों) की पंखुड़ियों पर पड़ी हुई मोतीरूपी ओस की बूदों का सौन्दर्य तुम्हें स्वयं में लिप्त करके या डुबोकर साधना-पथ से विचलित कर देगा? कवयित्री अपने प्राण (प्रिय) को प्रेरित करते हुए कहती है, तुम इन बातों से विमख रहो। यह सभी बातें निरर्थक हैं, इनमें से कुछ भी तुम्हारे साधना मार्ग को अवरुद्ध नहीं कर सकते। तुम अपनी प्रतिछाया को अपना बन्धन मत बनाना अर्थात संसार के विविध आकर्षण तो तुम्हारे छाया मात्र हैं। अतः उन आकर्षणों के माया-जाल के बन्धन में बँधकर तुम अपने वास्तविक लक्ष्य (साधना मार्ग) को भूल न जाना। महादेवी जी पुनः अपने प्राणों को उद्बोधित । करती हई कहती हैं कि हे प्राण! आलस्य त्याग कर अब तू जाग जा, क्योंकि तझे बहत दर जाना है तथा साधना मार्ग के अनेक चरणों (सोपानों) को पार। करके अपने लक्ष्य (ईश्वर प्राप्ति) को प्राप्त करना है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – शुद्ध खड़ीबोली ।
शैली – गीतात्मक, प्रतीकात्मक ।
छन्द – मुक्त।
अलंकार – मानवीकरण ।
गुण – ओज एवं प्रसाद ।
शब्द शक्ति –लक्षणा।
वज्र का उर एक छोटे अश्रुकण में धो गलाया,
दे किसे जीवन-सुधा दो घूँट मदिरा माँग लाया ?
सो गई आँधी मलय की बात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या चिर नींद बनकर पास आया ? अमरता-सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना ? जाग तुझको दूर जाना!
सन्दर्भ:–
पूर्ववत्।
प्रसंग :–
प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री साधना मार्ग पर चलने वाले साधक का। उदबोधित करती हुई कह रही हैं कि हे साधक! तू इस सांसारिक मोह में पड़कर। अपनी साधना से कभी विचलित नहीं होना।
व्याख्या :–
महादेवी वर्मा साधक को उद्बोधित करते हुए कहती हैं कि हे साधक . तेरा हृदय जो वज्र के समान कठोर अर्थात् दृढ़-निश्चयी था, वह आज प्रियजनों के जरा-से रोने भर से पिघल गया है अर्थात् तू अपने साधना-मार्ग पर आगे बढ़ने के। निश्चय से विचलित हो गया है। तेरे अन्तर्मन में अपार शक्ति व साहस विद्यमान था, किन्तु तूने भावनाओं के आवेग में उठे आँसुओं में गलाकर उसको नष्ट कर दिया है। तूने अपने जीवन की अमृतरूपी शक्ति और साहस को त्यागकर तथा साधनामय जीवन को छोड़कर मदिरापान करने वाले व्यक्ति के समान तुच्छ और आलस्य का जीवन जीना कहाँ से सीख लिया है? ये सब कार्य निरर्थक थे, जो तेरे योग्य नहीं थे।
मलय पर्वत से आने वाली हवा का तकिया लगाकर तेरे उत्साह की आँधी क्यों विश्राम करने लगी है, तू सांसारिक आकर्षण में पड़कर अपनी साधना के उत्साह को क्यों शिथिल (कमजोर) बना रहा है? क्या सांसारिकता के सभी आकर्षण तुझे आलस्य की नींद सुलाने तो नहीं आ गए हैं? तेरा आलस्य तेरी साधना-जीवन के लिए अभिशाप बनकर उसे नष्ट कर देगा। हे साधक! तू अविनाशी, परमात्मा का अंश है, तू अमर पुत्र है, इसके पश्चात् भी तू सांसारिकता के जीवन-मृत्यु के चक्र में स्वयं को क्यों बन्धक बनाना चाहता है? इसलिए अपने पतन के सभी कारकों को इस संसार से त्यागकर अपने उत्थान की ओर अग्रसित होते हुए साधना पथ पर आगे बढ़ता चल। अतः हे साधक! तू अपनी अज्ञानतारूपी नींद से जाग, क्योंकि तुझे अभी बहुत दूर जाना है। तुझे साधना मार्ग पर चलते हुए बहुत लम्बा मार्ग तय करना है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – शुद्ध खड़ीबोली ।
शैली – गीतात्मक, प्रतीकात्मक ।
छन्द – मुक्त।
अलंकार – अनुप्रास, मानवीकरण ।
गुण – ओज एवं प्रसाद ।
शब्द शक्ति –लक्षणा।
कह न ठंडी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी,
हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार- शय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना !
जाग तुझको दूर जाना!
सन्दर्भ:–
पूर्ववत्।
प्रसंग:–
कवयित्री ने मनुष्य की आत्मा को साधना-पथ पर बढ़ते रहने की प्रेरणा देते हुए आत्मबल को जगाने का आह्वान किया है।
व्याख्या:–
प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री महादेवी जी का कहना है कि मनुष्य जब अपने उदेश्य की साधना में लगता है, तो उसके सामने अकर्मण्यता एवं आलस्य उसके शत्रु बनकर खड़े हो जाते हैं। वस्तुतः जीवन में दुःख भी आता है और परिस्थितियों का दारुण आक्रमण भी होता है, परन्तु मनुष्य को उन्हें भूलकर ऊँचे लक्ष्य को प्राप्त करने की साधना में निरन्तर लगे रहना चाहिए। वे कहती हैं कि उन कष्टों को ठण्डी साँस लेते हुए दोहराने से कोई लाभ नहीं। जब तक हृदय में आग नहीं होती, तब तक मनुष्य की आँखों से टपकते आँसुओं का कोई मूल्य नहीं होता। हृदय की वह आग, वह तड़प ही मनुष्य को कठिन साध्य अर्थात् लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है और परमात्मा को पाने का साधन या माध्यम बनती है। कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं कि यदि उद्देश्य की प्राप्ति हेतु किए गए प्रयत्न में असफलता भी हाथ लगती है, तो वह भी किसी सफलता से, किसी विजय से कम नहीं है। पतंगा अपने उददेश्य के लिए दीपक पर जल कर राख के समान हो जाता है फिर भी उसकी राख दीपक की लौ से मिलकर अमर हो जाती है। साधक को भी याद अपने उददेश्य की प्राप्ति के लिए मिट जाना पड़े, तो वह भी अमर हो जाएगा। महादेवी जी कहती हैं कि तझे अपनी तपस्या से संसाररूपी इस अंगार-शय्या अथात् कष्टों से भरे इस संसार में फलों की कोमल कलियों जैसी आनन्दमय परिस्थितियों का निर्माण करना है। इसीलिए हे साधक! तू जाग, क्योंकि अभी तुझे बहुत दूर जाना है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – शुद्ध खड़ीबोली ।
शैली – गीतात्मक, प्रतीकात्मक ।
छन्द – मुक्त।
अलंकार – अनुप्रास,रूपक,मानवीकरण ।
गुण – ओज एवं प्रसाद ।
शब्द शक्ति –लक्षणा।
गीत-2
पथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला !
घेर ले छाया अमा बन,
आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन;
और होंगे नयन सूखे,
तिल बुझे आँ' पलक रूखे,
आर्द्र चितवन में यहाँ
शत विद्युतों में दीप खेला!
सन्दर्भ:–
प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘गीत-2’ शीर्षक कविता से उद्धृत है, जो उनके प्रमुख काव्य-संग्रह ‘दीपशिखा’ से लिया गया है।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में महादेवी वर्मा ने साधना के अपरिचित पथ की कठिनाइयों का वर्णन किया है।
व्याख्या :–
कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं कि भले ही साधना-पथ अनजान हो, उस मार्ग पर तुम्हारा साथ देने वाला भी कोई न हो, तब भी तुम्हें घबराना नहीं चाहिए, तुम्हारी स्थिति डगमगानी नहीं चाहिए। महादेवी जी कहती हैं कि मेरी छाया भले ही आज मुझे अमावस्या के गहन अन्धकार के समान घेर ले और मेरी काजल लगी आँखें भले ही बादलों के समान आँसुओं की वर्षा करने लगें, फिर भी चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। कठिनाइयों को देखकर जो आँखें सूख जाती हैं, जिन आँखों के तारे निर्जीव व धुंधले हो जाते हैं और निरन्तर, रोते रहने के कारण जिन आँखों की पलकें रूखी-सी हो जाती हैं, वे किसी और की होंगी। मैं उनमें से नहीं हूँ जो विघ्न-बाधाओं से घबरा जाऊँ। अनेक कष्टों के आने पर भी मेरी दृष्टि आर्द्र (गीली) अर्थात आँखों में आँसू रहेंगे ही, क्योंकि मेरे जीवन दीपों ने सैकड़ों विद्यतों में खेलना सीखा है। कष्टों से घबराकर पीछे हट जाना मेरे जीवन-दीप का स्वभाव नहीं है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – शुद्ध खड़ीबोली ।
शैली – गीतात्मक एवं प्रतीकात्मक।
छन्द – मुक्त ।
अलंकार – अनुप्रास एवं भेदकातिशयोक्ति।
गुण – प्रसाद।
शब्द शक्ति – लक्षणा।
अन्य होंगे चरण हारे,
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे;
दुखव्रती निर्माण उन्मद
यह अमरता नापते पद,
बाँध देंगे अंक-संसृति
से तिमिर में स्वर्ण बेला!
सन्दर्भ:–
पूर्ववत्।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने प्रिय के पथ के अपरिचित और
अनेक प्रकार के कष्टों से भरे होने के पश्चात् भी निरन्तर आगे बढ़ते रहने का दृढ़ संकल्प किया है।
व्याख्या :–
कवयित्री कहती हैं कि वे कोई अन्य ही चरण होंगे जो पराजय मानकर राह के काँटों को अपना सम्पूर्ण संकल्प समर्पित करके निराश व हताश होकर लौट आते हैं। मेरे चरण हताश व निराश नहीं हैं। मेरे चरणों ने तो दुःख सहने का व्रत धारण किया हुआ है। मेरे चरण नव निर्माण करने की इच्छा के कारण उन्मद (मस्ती) हो चुके हैं। वे स्वयं को अमर मानकर, प्रिय के पथ को निरन्तरता से नाप रहे हैं और इस प्रकार दूरी घटती चली जा रही
है, जो मेरे और मेरे लक्ष्य अर्थात आत्मा और परमात्मा के मध्य की दूरी थी। मेरे चरण तो ऐसे हैं कि वे अपनी दृढ़ता से संसार की गोद में छाए हुए। अन्धेरे को स्वर्णिम प्रकाश में बदल देंगे अर्थात् निराशा का अन्धकार आशारूपी प्रकाश में परिवर्तित हो जाएगा। इस प्रकार लक्ष्य प्राप्ति हो सकेगी।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – शुद्ध खड़ीबोली ।
शैली – गीतात्मक एवं प्रतीकात्मक।
छन्द – मुक्त ।
अलंकार – अनुप्रास एवं भेदकातिशयोक्ति।
गुण – प्रसाद।
शब्द शक्ति – लक्षणा।
दूसरी होगी कहानी,
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोयी निशानी,
आज जिस पर प्रलय विस्मित,
मैं लगाती चल रही नित,
मोतियों की हाट औ'
चिनगारियों का एक मेला!
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।
प्रसंग :–
प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ऐसा करने के लिए प्रेरित करती है, जिससे साधक के मन में उत्साह जाग्रत हो जाए।
व्याख्या:–
कवयित्री कहती हैं कि वह कोई दूसरी कहानी होगी, जिसमें अपने लक्ष्य को प्राप्त किए बिना ही प्रिय के स्वर शान्त हो जाते हैं। ऐसे लोगों के पैरों के चिह्नों को समय मिटा देता है। ऐसे लोगों का जीवन तो व्यर्थ ही होता है, मेरी कहानी तो इसके विपरीत है। मैं जब तक अपने लक्ष्य अर्थात् परमात्मा को प्राप्त न कर लूँगी, तब तक मेरा साधना स्वर शान्त नहीं होगा। साधना के इस कठिन पथ पर मेरा चलना भी अनजाना नहीं होगा। वह कहती है कि मैं अपने दृढ निश्चय अर्थात अपने संकल्प से अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा उस पथ पर ऐसे पद चिह्नों का निर्माण कर जाऊँगी, जिन्हें मिटाना समय की धूल के लिए भी दुष्कर होगा। मैं अपने संकल्प से उस परमात्मा को प्राप्त करके ही रहूँगी। मेरे इस निश्चय से स्वयं प्रलय भी आश्चर्यचकित है। उस प्रियतम परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मैं अपने मोतियों के समान आँसूओं के खजाने का घर अर्थात् बाजार लगा रही हूँ। इन मोती जैसे आँसूओं की चमक मेरे जैसे अन्य साधकों में भी ईश्वर प्राप्ति की चिंगारियाँ अर्थात अलख जगा देगी जिससे वे भी ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर हो जाएँगे।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – शुद्ध खड़ीबोली ।
शैली – गीतात्मक एवं प्रतीकात्मक।
छन्द – मुक्त ।
अलंकार – अनुप्रास एवं रूपक।
गुण – प्रसाद।
शब्द शक्ति – लक्षणा।
हास का मधु दूत भेजो,
रोष की भू-भंगिमा पतझार को चाहे सहेजो!
ले मिलेगा उर अचंचल,
वेदना - जल, स्वप्न - शतदल,
जान लो वह मिलन एकाकी
विरह में हैं दुकेला!
पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला !
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री द्वारा अपने प्रिय से मिलने के लिए दृढ़ संकल्प की अभिव्यक्ति की गई है।
व्याख्या:–
कवयित्री कहती हैं कि हे प्रिय! तुम मुझे अपनी ओर आकर्षित करने के लिए चाहे मुस्कानरूपी दूत भेजो या फिर क्रोधित होकर मेरे जीवन में पतझड़-सी नीरवता का संचार कर दो अर्थात् चाहे तुम मुझ से प्रसन्न हो जाओ या अप्रसन्न, किन्तु मेरे हृदय के प्रदेश में तुम्हारे लिए कोमल भावनाएँ बनी रहेंगी। मैं अपने हृदय की मधुर और कोमल भावनाओं से सिक्त वेदना के जल और स्वप्नों का कमल पुष्प लिए तुम्हारी सेवा में सदैव उपस्थित रहूँगी। मैं तुम्हें अवश्य प्राप्त कर लूंगी। हे प्रिय तुमसे मिलने के उपरान्त मेरा स्वतन्त्र अस्तित्व । समाप्त हो जाता है, मुझे तुमसे पृथक् स्वयं की कोई स्वतन्त्र सत्ता की अनुभूति नहीं होती, किन्तु वियोग की स्थिति में यह अनुभूति और अधिक बढ़ जाती है। है। प्रियतम! यद्यपि तुम्हें प्राप्त करने का मार्ग अत्यन्त कठिन और अपरिचित है, किन्तु मुझे इसकी कोई चिन्ता नहीं है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि मैं तुम्हें अपने दृढ संकल्प से अवश्य प्राप्त कर लूँगी।
काव्य गत सौन्दर्य:–
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – शुद्ध खड़ीबोली ।
शैली – गीतात्मक एवं प्रतीकात्मक।
छन्द – मुक्त ।
अलंकार – अनुप्रास एवं रूपक।
गुण – प्रसाद।
शब्द शक्ति – लक्षणा।
गीत-3
मैं नीरभरी दुख की बदली!
स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा,
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा,
नयनों में दीपक से जलते
पलकों में निर्झरिणी मचली!
सन्दर्भ:–
प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित महादेवी वर्मा नारा रचित ‘गीत 3’ शीर्षक गीत से उद्धृत हैं, जो उनके प्रमुख काव्य संग्रह ‘सान्ध्यगीत’ से लिया गया है।
प्रसंग :–
प्रस्तुत पद्यांश में महादेवी वर्मा स्वयं की तुलना बादलों से करते हुए, अपनी विरह वेदना का वर्णन करती हैं।
व्याख्या:–
कवयित्री स्वयं की तुलना बादलों से करते हुए कहती हैं कि जिस प्रकार बादल पानी से भरे रहते हैं, उसी प्रकार उसकी आँखों में भी सदैव आँसू भरे रहते हैं अर्थात् उसका जीवन दुःखों से घिरा हुआ है। वह कहती हैं जिस प्रकार बादलों में सदैव कम्पन अर्थात् गतिशीलता विद्यमान रहती है, उसी प्रकार विरह से उत्पन्न दुःख ने भी उसके जीवन में स्थायित्व गृहण कर लिया है। वह कहती हैं, जिस प्रकार बादलों के गर्जन से सम्पूर्ण विश्व में प्रसन्नता छा जाती है, उसी प्रकार उसके प्रियतम की विरह वेदना में दुःखी होने से लोगों को प्रसन्नता की अनुभूति होती है। वह आगे कहती है कि उसकी आँखों से प्रियतम की विरह वेदना के कारण ही सदैव आँसुओं की नदी बहती रहती है, किन्तु फिर भी उसके आँखों में प्रियतम से मिलने की आशा विद्यमान है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – शुद्ध, परिष्कृत खडीबोली ।
शैली – गीतात्मक एवं प्रतीकात्मक।
अलंकार – उपमा, रूपक एवं मानवीकरण ।
शब्द शक्ति – लक्षणा
छन्द – मुक्त ।
गुण – माधुर्य।
मेरा पग पग संगीत भरा,
श्वासों से स्वप्न पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली;
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने बादल से अपनी तुलना करते हुए, अपनी विरह वेदना का वर्णन किया है।
व्याख्या :–
कवयित्री बादल से अपनी तुलना करते हुए कहती हैं कि जिस प्रकार बादल मन्द-मन्द गति से बहता है और उसके बहने और उसके गर्जन में संगीत भरा होता है, उसी प्रकार मेरा जीवन भी प्रियतम की स्मृतियों के संगीत से भरा है। कवयित्री कहती हैं कि जिस प्रकार बादलों की परिणति उनका बरसना होता है, उसी प्रकार मेरे जीवन में भी तुम्हारी मधुर स्मृतियाँ बसी हुई हैं। वह कहती है कि जैसे बादलों के बरसने के उपरान्त आकाश में निकला इन्द्रधनुष उसके आँचल के समान लगता है तथा उस समय मलय पर्वत की शीतल हवा के समान बहने वाली वायु से ऐसा प्रतीत होता है; जैसे-वह इसी आँचल की छाया में पली हो और वही उसका उद्गम स्थल हो। ठीक इसी प्रकार प्रियतम की स्मृतियाँ मेरे जीवन में इन्द्रधनुष के समान नव रंगों का और मलय पर्वत के समान शीतलता का संचार करती हैं।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – शुद्ध, परिष्कृत खडीबोली ।
शैली – गीतात्मक एवं प्रतीकात्मक।
अलंकार – उपमा, रूपक ।
शब्द शक्ति – लक्षणा
छन्द – मुक्त ।
गुण – माधुर्य।
मैं क्षितिज भृकुटि पर चिर धूमिल,
- चिन्ता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी
नव जीवन-अंकुर बन निकली !
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने अपने जीवन और बादल की स्थिति में साम्य प्रस्तुत किया है।
व्याख्या:–
कवयित्री कहती हैं कि जिस प्रकार जल के भार से नभ में झके हए बादलों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे उसकी भौहें हो और उसकी चिन्तित अवस्था को अभिव्यक्त कर रही हो। उसी प्रकार प्रिय के विरह और उससे मिलन की आस के कारण वह सदैव चिन्तित रहती है। वह कहती है, जिस प्रकार बादल पानी के अत्यधिक भार को सहन न कर पाने के कारण पृथ्वी पर बरसते हैं और उनमें नवजीवन का संचार होता है, उसी प्रकार चिन्ताग्रस्त कवयित्री के नयनों से जब अश्रुओं की वर्षा होती है, तो वह चिन्तामुक्त हो उठती। है और ऐसा प्रतीत होता है, जैसे-उसमें नव-जीवन का संचार हो गया हो।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – शुद्ध, परिष्कृत खडीबोली ।
शैली – गीतात्मक एवं प्रतीकात्मक।
अलंकार – रूपक एवं मानवीकरण ।
शब्द शक्ति – लक्षणा
छन्द – मुक्त ।
गुण – माधुर्य।
पथ को न मलिन करता आना
पद-चिह्न न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!
सन्दर्भ:–
पूर्ववत्।
प्रसंग :–
प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने बादल और स्वयं के जीवन में साम्य स्थापित किया है।
व्याख्या:–
कवयित्री कहती हैं कि जिस प्रकार आकाश में बादल के छाने से वह मलिन नहीं होता अर्थात उस पर किसी प्रकार का कोई कलंक नहीं लगता और न ही उसके जाने के पश्चात् अर्थात् उसके बरसने के बाद उसका कोई पद-चिह्न या निशान शेष रह जाता है, लेकिन उसके आकाश में छाने के स्मरण मात्र से ही सम्पूर्ण विश्व अर्थात् सभी लोगों में प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती है। उसी प्रकार कवयित्री ने अपने सम्पूर्ण जीवन में ऐसा कोई कृत्य नहीं किया, जिससे उसके जीवनपथ पर कोई कलंक लगा हो। वह बिना कोई चिह्न छोड़े उसी प्रकार गई जैसी निष्कलंक वह आई थी। उसके इसी गुण के कारण ही जब भी उसके इस संसार में आने की स्मतियाँ लोगों के मस्तिष्क में आती हैं, वे उनमें खुशी की सिरहन (कम्पन) पैदा कर देती हैं।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – शुद्ध, परिष्कृत खडीबोली ।
शैली – गीतात्मक एवं प्रतीकात्मक।
अलंकार – अनुप्रास एवं मानवीकरण ।
शब्द शक्ति – लक्षणा
छन्द – मुक्त ।
गुण – माधुर्य।
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
मैं नीर भरी दु:ख की बदली !
सन्दर्भ :–
पूर्ववत्।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री बादल से स्वयं की तुलना करती हुई अपने । जीवन की व्याख्या प्रस्तुत करती है।
व्याख्या:–
कवयित्री कहती हैं कि जिस प्रकार आकाश के अत्यधिक विस्तृत भाग में फैले हुए होने के उपरान्त भी बादल को वहाँ पर स्थायित्व प्राप्त नहीं होता और अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में इधर-उधर घूमता रहता है, उसी प्रकार मुझे भी इस विशाल भू-भाग अर्थात् संसार में स्थायित्व प्राप्त नहीं हुआ। वह आगे कहती हैं कि जैसे बादल का अस्तित्व केवल उसके निर्मित होने और बरसने तक ही होता है और वही उसकी पहचान एवं उसका इतिहास बन जाता है, उसी प्रकार कवयित्री की पहचान एवं इतिहास केवल इतना ही है कि वह कल आई थी और आज जा रही है, यही उसका सम्पूर्ण जीवन है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – शुद्ध, परिष्कृत खडीबोली ।
शैली – गीतात्मक एवं प्रतीकात्मक।
अलंकार – अनुप्रास एवं मानवीकरण ।
शब्द शक्ति – लक्षणा
छन्द – मुक्त ।
गुण – माधुर्य।
0 Comments