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रामधारी सिंह 'दिनकर' का संक्षिप्त जीवन परिचय, पुरूरवा, उर्वशी, अभिनव मनुष्य सन्दर्भ सहित व्याख्या

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 रामधारी सिंह 'दिनकर' का संक्षिप्त जीवन परिचय:–



• जन्म - 1908 ई० । 

• जन्म स्थान सिमरिया (मुंगेर), बिहार।

• पिता- रवि सिंह।

• मृत्यु — 1974 ई० ।

• भाषा-खड़ीबोली।



पुरूरवा सन्दर्भ सहित व्याख्या:–



कौन है अंकुश, इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ। 

पर, सरोवर के किनारे कंठ में जो जल रही है, 

उस तृषा, उस वेदना को जानता हूँ।

सिंधु सा उद्दाम अपरंपार मेरा बल कहाँ है? 

गूंजता जिस शक्ति का सर्वत्र जय-जयकार, 

उस अटल संकल्प का संबल कहाँ है?

यह शिला-सा चट्टान सी मेरी भुजाएँ, 

सूर्य के आलोक से दीपित, समुन्नत भाल, 

मेरे प्राण का सागर अगम, उत्ताल, उच्छल है।


सन्दर्भ :–

प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित रामधारीसिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित खण्ड काव्य ‘उर्वशी’ के ‘पुरूरवा’ शीर्षक से उद्धृत है।


प्रसंग:–

 पृथ्वी पर उतरने के पश्चात् एक सरोवर तट पर स्वर्ग लोक की अप्सरा उर्वशी की भेंट पुरूरवा से होती है। उसके रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध हो पुरूरवा उसे अपने बारे में बताते हैं।


व्याख्या:–

 पुरूरवा अपने मन में उठते विचारों को अभिव्यक्त करते हुए। उर्वशी से कहते हैं कि यह सच है कि मैं इस प्रतिबन्ध से अनभिज्ञ हूँ, जो मुझे बार-बार रोकना चाहता है, किन्तु मुझे उस प्यास और पीड़ा की पूर्ण अनुभूति हो रही है, जो इस तालाब के तट पर मेरे गले के अन्दर जल रही है। न जाने इस समय मेरी वह शक्ति मेरे पास से कहाँ चली गई, जो समुद्र के सदृश प्रबल और असीमित है? मेरी जिस शक्ति और सामर्थ्य का चहुँ (चारों) ओर गुणगान किया। जाता है उस अडिग संकल्प का साथ मुझसे क्यों छिन गया? पुरूरवा आगे कहते हैं कि मेरी छाती पत्थर के समान दृढ़ है और मेरी बाहे। चट्टान-सी मजबूत हैं। मेरा मस्तक उन्नत है और सूर्य के प्रकाश के समान आभायुक्त रहने वाला है। मेरे प्राणों की गहराई का थाह लगाना आसान नहीं है। समुद्र की तरह अत्यन्त गहरे मेरे प्राणों में भी सर्वदा ऊँची-ऊँची लहरें उठती रहती हैं।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – शद्ध साहित्यिक खड़ीबोली।

 शैली – प्रबन्धात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – अनुप्रास, उपमा एवं रूपक ।

गुण – ओज ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।




सामने टिकते नहीं वनराज, पर्वत डोलते हैं, 

काँपता है कुंडली मारे समय का व्याल, 

मेरी बाँह में मारुत, गरुड़, गजराज का बल है।

मार्च मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं 

उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं। 

अंध तमः के भाल पर पावक जलाता हूँ,

बादलों के सीस पर स्यन्दन चलाता हुं ।


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग :–

पुरूरवा उर्वशी के समक्ष अपनी शक्ति और सामर्थ्य का बखान कर।


व्याख्या:–

 पुरूरवा उर्वशी से कहते हैं कि मैं इतना शक्तिशाली हूँ कि वन के। राजा सिंह तक की मेरे सामने एक नहीं चलती। पर्वत मुझसे खौफ (भय) खाते हैं और समयरूपी सर्प भी मेरे सम्मुख कुण्डली मारकर काँपता रहता है। मेरी गुजाओं में एक साथ पवन, गरुड़ और हाथी का सामर्थ्य है। पुरूरवा आगे कहते क मैं इस मृत्यु लोक में विजय का शंखनाद हूँ अर्थात् मेरा सामर्थ्य मानव त का परिचायक है। मैं समय को प्रकाशित करने वाला सूर्य हूँ। मैं घोर। गर को मिटाने वाली प्रचण्ड अग्नि हूँ। मुझमें बादलों के मस्तक पर भी रथ की क्षमता है अर्थात् मैं निर्बाध गति से कहीं भी आ-जा सकता हूँ।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – शद्ध साहित्यिक खड़ीबोली।

 शैली – प्रबन्धात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – अनुप्रास, उपमा एवं रूपक , अतिस्योक्ति।

गुण – ओज ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।




पर, न जानें, बात क्या है !

इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है, 

सिंह से बाँह मिला कर खेल सकता है, 

फूल के आगे वही असहाय हो जाता, 

शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता।

विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से,

जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से ।


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में पुरूरवा अति वीर पुरुषों के भी नारी के सौन्दर्य के समक्ष नतमस्तक हो जाने पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं।


व्याख्या:–

 पुरूरवा अपनी वीरता का बखान कर उर्वशी से कहते हैं कि वे अब तक इस रहस्य का पता नहीं लगा सके कि जो महावीर रणभूमि में इन्द्र के वज्र का सामना करने से पीछे नहीं हटता और जिसमें शेर के साथ बाहें मिलाकर खेलने का सामर्थ्य हो अर्थात् जो इन्द्र और शेर को भी परास्त करने में सक्षम हो, वह फूल-सी कोमल नारी के समक्ष स्वयं को विवश क्यों पाता है? अपार शक्ति का स्वामी रहते हुए भी वह नारी के सम्मुख असहाय क्यों हो जाता है? सम्पूर्ण जगत् को अपनी वीरता से मुग्ध कर देने वाले वीर पुरुष का सुन्दर स्त्री के नेत्ररूपी बाणों से सहज ही घायल हो जाना सचमुच आश्चर्य से परिपूर्ण है। सुन्दरी की जरा-सी मुस्कान पर पुरुषों का मुग्ध हो जाना और अपना सर्वस्व हार जाना विस्मय नहीं तो और क्या है?


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – शद्ध साहित्यिक खड़ीबोली।

 शैली – प्रबन्धात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – अनुप्रास, विरोधाभाष एवं रूपक ।

गुण – माधुर्य ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।






उर्वशी सन्दर्भ सहित व्याख्या:




पर, क्या बोलूँ? क्या कहूँ?

भ्रान्ति यह देह भाव ।

मैं मनोदेश की वायु व्यग्र, व्याकुल, चंचल, 

अवचेत प्राण की प्रभा, चेतना के जल में 

मैं रूप-रंग-रस-गन्ध पूर्ण साकार कमल ।

मैं नहीं सिन्धु की सुता; 

तलातल-अतल-वितल-पाताल छोड़, 

नीले समुद्र को फोड़ शुभ्र, झलमल फेनांशुक में प्रदीप्त नाचती ऊर्मियों के सिर पर

मैं नहीं महातल से निकली।


सन्दर्भ :–

प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित ‘उर्वशी’ शीर्षक महाकाव्य के ‘उर्वशी’ खण्ड से उद्धृत है।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में सरोवर तट पर पुरूरवा का परिचय पाकर उर्वशी भी उसे अपने विषय में बताती है।


व्याख्या:–

 प्रस्तुत पद्यांश में उर्वशी, परवा के प्रणय निवेदन का उत्तर देने के पश्चात् अपना परिचय देते हुए कहती हैं कि हे राजन्! मैं अपने मन की बात स्वयं तुमसे कैसे और क्या कहूँ। भावों के आवेश के कारण उन सभी मन की बातों तथा भावों को व्यक्त कर पाना असम्भव है। शारीरिक बाह्य सौन्दर्य दिखावा, छलावा और छलमात्र है। वास्तव में देखा जाए तो इसे उन्माद और पागलपन भी कहा जा सकता है। उर्वशी आगे कहती है कि मैं तो वास्तव में ही काल्पनिक तथा मानसिक देश की उत्कण्ठा और बेचैनी (व्याकुलता) से भरी-पूरी वायु के समान हूँ। मैं अवचेतन मन का प्रकाश हूँ और चेतना के जल में पूर्ण रूप से विकसित होने के साथ रस और सुगन्ध से परिपूर्ण कमल का फूल हूँ। मैं समुद्र की पुत्री (लक्ष्मी) भी नहीं हूँ। मैं पाताल के गर्त को तिरस्कृत करके, समुद्र के नीले रंग को छोड़कर प्रकाशमय फेन के बारीक रेशमी वस्त्र धारण करके, समुद्र की लहरों के मस्तक पर नाचती तथा उत्साहित होती हुई नहीं निकली हूँ। आशय यह है कि उर्वशी स्वयं का परिचय देते हुए पुरूरवा के हृदय में जिज्ञासा उत्पन्न कर देती है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – शद्ध साहित्यिक खड़ीबोली।

 शैली – प्रबन्धात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – अनुप्रास, उपमा एवं रूपक ।

गुण – ओज ।

शब्द शक्ति – लक्षण।


मैं नहीं गगन की लता 

तारकों में पुलकित फूलती हुई, 

मैं नहीं व्योमपुर की बाला, 

विधु की तनया, चन्द्रिका-संग,

पूर्णिमा सिन्धु की परमोज्ज्वल आभा-तरंग,

मैं नहीं किरण के तारों पर झूलती हुई भू पर उतरी।


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में उर्वशी, राजा पुरूरवा को स्वयं से परिचित करा रही है।


व्याख्या:–

 मैं आकाश में तारों के बीच फलने-फूलने (प्रसन्न) होने वाली लता नहीं हूँ और न ही मैं आकाश में स्थित नगर (व्योमपुर) की सुन्दरी हूँ। न तो मैं चाँदनी के साथ पृथ्वी पर उतरी चन्द्रमा की पुत्री हैं और न ही मैं पूर्णिमा के चाँद की अत्यन्त उज्ज्वल किरणों से आकर्षित समुद्र में उठी चंचल तरंग (लहर) हँ। मैं चन्द्र किरणरूपी तारों पर झूलती हई पृथ्वी पर उतरी किरण भी नहीं हैं। आशय यह है कि उर्वशी स्वयं को अलौकिक न मानते हुए लौकिक मानती है, जिसका उपभोग मनुष्य द्वारा सम्भव है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – शद्ध साहित्यिक खड़ीबोली।

 शैली – प्रबन्धात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – रूपक ।

गुण – ओज ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।




मैं नाम - गोत्र से रहित पुष्प,

अम्बर में उड़ती हुई मुक्त आनन्द शिखा 

इतिवृत्त हीन,

सौन्दर्य चेतना की तरंग;

सुर-नर- किन्नर - गन्धर्व नहीं,

प्रिय! मैं केवल अप्सरा

विश्वनर के अतृप्त इच्छा-सागर से समुद्भूत। 



सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश के द्वारा उर्वशी, पुरूरवा के समक्ष अपने भावों को व्यक्त  कर रही है।


व्याख्या:–

 उर्वशी कहती है कि न तो मेरा कोई नाम है और न ही कोई गोत्र अर्थात् कुल। मैं तो ऐसा पुष्प हूँ, जिसकी कोई पहचान ही नहीं है। मैं आकाश में। उड़ती आनन्द की साक्षात् ज्वाला हूँ और मेरा कोई इतिहास नहीं है। मैं तो सौन्दर्य-चेतना की एक तरंग हूँ अर्थात् मन को उद्वेलित करने वाली धारा हूँ। हे प्रिय! म न तो देवता हैं. न मनष्य, न किन्नर और न ही गन्धर्व बल्कि मैं तो केवल एक अप्सरा हूँ, जो सांसारिक प्राणियों या ब्रह्म की इच्छाओं के सागर की अतप्ति क कारण ही उत्पन्न हुई हूँ अर्थात् मेरा जन्म या मेरी उत्पत्ति ही सांसारिक प्राणियों या ब्रह्म की इच्छाओं की तृप्ति के लिए हुई है। कहने का आशय यह है कि पुरूरवा को अपना परिचय देती हुई उसे आश्वस्त करती है कि लोगों की अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए, उन्हें तृप्त करने के लिए ही वह उत्पन्न हुई है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – शद्ध साहित्यिक खड़ीबोली।

 शैली – प्रबन्धात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – अनुप्रास, एवं रूपक ।

गुण – ओज ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।





जन-जन के मन की मधुर वह्नि, प्रत्येक हृदय की उजियाली, 

नारी की मैं कल्पना चरम नर के मन में बसने वाली। विषधर के फण पर अमृतवर्ति, 

उद्धत, अदम्य, बर्बर बल पर 

रूपांकुश क्षीण मृणाल तार।

मेरे सम्मुख नत हो रहते गजराज मत्त 

केसरी, शरभ, शार्दूल भूल निज हिंस्र भाव 

गृह-मृग समान निर्विष अहिंस्र बनकर जीते।

मेरी भू-स्मिति को देख चकित, विस्मित, विभोर 

शूरमा निमिष खोले अवाक् रह जाते हैं, 

श्लथ हो जाता स्वयमेव शिंजिनी का कसाव, 

संत्रस्त करों से धनुष-बाण गिर जाते हैं।


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से उर्वशी द्वारा पुरूरवा के समक्ष अपने वों को प्रकट करता हुआ दिखाया जा रहा है।


व्याख्या:–

 उर्वशी स्पष्ट रूप से अपने भावों की अभिव्यक्ति करते हुए कहती हैं कि मैं प्रत्येक व्यक्ति के मन में प्रज्वलित होने वाली ऐसी आग हूँ, जो प्रत्येक व्यक्ति के मन तथा हृदय को प्रकाश देता है अर्थात् खुशियाँ प्रदान करता है। मैं मानव मन में नारी की कल्पना बनकर निवास करती हूँ। मैं साँप के फन पर लगा हुआ तिलक (जो बत्ती जैसा दिखाई देता है) हूँ अथवा मैं अपने सौन्दर्य से प्रचण्ड, प्रबल तथा क्रूर व्यक्तियों की शक्ति को कमल की नाल की भाँति कमजोर कर देती हूँ अर्थात् मैं व्यक्ति के प्रचण्ड, प्रबल तथा क्रूर रूप पर अपने सौन्दर्य रूप का अंकुश लगाती हूँ। मेरे समक्ष बड़े-से-बड़े समस्त हाथी भी सिर झुकाकर रहते हैं। सिंह, हाथी का बच्चा, चीता आदि सभी प्रकार के हिंसक पशु अपनी हिंसा की प्रवृत्ति को त्यागकर मेरे समक्ष पालतू हिरन के समान अहिंसक बन जाते हैं। उर्वशी कहती है कि बड़े से बड़ा वीर भी मेरे भृकुटी-संचालन को देखकर आश्चर्यचकित भाव से देखता रह जाता है और वह कुछ बोल तक नहीं पाता अर्थात् वह मूक हो जाता है। उसके धनुष की डोर भी स्वयं ढीली पड़ जाती है तथा उसके ढीले (शिथिल) हाथों से धनुष-बाण गिर जाते हैं। कहने का आशय यह है कि मेरा सौन्दर्य सभी को आकर्षित कर देता है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – शद्ध साहित्यिक खड़ीबोली।

 शैली – प्रबन्धात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – अनुप्रास, उपमा एवं पुनरूक्ति प्रकाश ।

गुण – ओज ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।





कामना वह्नि की शिखा मुक्त मैं अनवरुद्ध, 

मैं अप्रतिहत, मैं दुर्निवार; 

मैं सदा घूमती फिरती हूँ

पवनान्दोलित वारिद-तरंग पर समासीन 

नीहार आवरण में अम्बर के आर-पार, 

उड़ते मेघों को दौड़ बाहुओं में भरती, 

स्वप्नों की प्रतिमाओं का आलिंगन करती।

विस्तीर्ण सिन्धु के बीच शून्य, एकान्त द्वीप, 

यह मेरा उर ।

देवालय में देवता नहीं, केवल मैं हूँ।

मेरी प्रतिमा को घेर उठ रही अगुरु-गन्ध, 

बज रहा अर्चना में मेरी मेरा नूपुर। 

भू-नभ का सब संगीत नाद मेरे निस्सीम प्रणय का है, 

सारी कविता जयगान एक मेरी त्रयलोक-विजय का है।



सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से उर्वशी पुरूरवा को अपने गुणों तथा विशेषताओं से अवगत करा रही है।


व्याख्या:–

 उर्वशी कहती है कि मैं कामनारूपी अग्नि की बाधारहित शाखा हूँ। मुझे रोकना सम्भव नहीं है और न ही मुझे पथ से हटाकर विचलित किया जा सकता है। मैं सदैव घूमती-फिरती रहती हूँ। मैं वायु से उठी हुई बादल की लहरों पर आसीन हो जाती हूँ। मैं आकाश में दौड़ लगाने वाले तथा ओस के आवरण में ढके हुए बादलों को अपनी भुजाओं में समाहित कर लेती हूँ। मैं स्वप्नों की प्रतिमाओं का आलिंगन करती हूँ अर्थात् विस्तृत सागर के बीच में जिस प्रकार शून्य तथा एकान्त द्वीप होता है, उसी प्रकार मेरा हृदय भी शून्य और एकान्त है। उर्वशी आगे कहती है कि मन्दिरों में देवताओं की जगह पर मैं विद्यमान हूँ। मेरी प्रतिमा को घेरकर अगर नामक सुगन्धित पदार्थ से मेरी अर्चना की जाती है, जिसमें मेरे ही घुघरू बज उठते हैं। धरती हो या आकाश चारों ओर उठने वाला संगीत का स्वर मेरे प्रणय से ही उत्पन्न हुआ है। सभी ओर गाए जाने वाले जयगान गीत तीनों लोकों पर मेरी ही विजय (जीत) के सूचक हैं। अतः उर्वशी ने स्वयं को पृथ्वी के कण-कण में विद्यमान बताया है। यहाँ उर्वशी एक स्त्री न होकर सम्पूर्ण स्त्री-जगत् का प्रतिनिधित्व करती है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – शद्ध साहित्यिक खड़ीबोली।

 शैली – प्रबन्धात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – अनुप्रास, मानवीकरण एवं रूपक ।

गुण – ओज ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।



अभिनव मनुष्य सन्दर्भ सहित व्याख्या:–




है बहुत बरसी धरित्री अमृत की धार, 

पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार । भोग-लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम, 

बह रही असहाय नर की भावना निष्काम।

भीष्म हों अथवा युधिष्ठिर, या कि हों भगवान्, 

बुद्ध हों कि अशोक, गाँधी हों कि ईसु महान, 

सिर झुका सबको सभी को श्रेष्ठ निज से मान, 

मात्र वाचिक ही उन्हें देता हुआ सम्मान, 

दग्ध कर पर को, स्वयं भी भोगता दुख-दाह, 

जा रहा मानव चला अब भी पुरानी राह ।



सन्दर्भ:–

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित रामधारीसिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित काव्य खण्ड ‘कुरुक्षेत्र’ के ‘अभिनव मनुष्य’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अभिनव मनुष्य की असीम आवश्यकताओं और लालसाओं का वर्णन किया है।


व्याख्या:–

 कवि कहता है कि संसार में अनेकों महान् आत्माओं (महात्माओं) ने प्रत्येक युग में जन्म लिया है, जिन्होंने अपने अमृतरूपी उपदेशों के माध्यम से विश्व को शान्ति का पाठ पढ़ाने का प्रयास किया है, परन्तु आज तक विश्व में शान्ति स्थापित नहीं हो सकी है। प्रत्येक मनुष्य कुप्रवृत्तियों से ग्रसित हो चुका है। मनुष्य ईर्ष्या, द्वेष, कपट, छल और घृणा आदि की अग्नि में निरन्तर जलता जा रहा है। उन महान् आत्माओं के अमृतरूपी वचन भी मनुष्य के हृदय में स्थित राग-द्वेष और भोग-लिप्सा की भड़कती अग्नि को शीतल न कर सके। आशय यह है कि मनुष्य को भोग-लिप्सा की कुप्रवृत्ति से मुक्त कर पाने में। उन महान आत्माओं के वचन भी निरर्थक सिद्ध हो गए हैं। वर्तमान में एक ओर तो साधन सम्पन्न लोग लगातार भोग-विलास में लिप्त मिलेंगे वहीं दूसरी ओर ऐसे असहाय, साधनहीन तथा विवश मनुष्य भी मिलते हैं, जिनकी इच्छा फलीभूत नहीं होती। इस प्रकार यह कहा जाना अनुचित नहीं होगा कि वर्तमान युग में महापुरुषों के अमृतरूपी वचन निष्फल हो रहे हैं। इस धरती पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लेकर अपने श्रेष्ठ आचरण से लोगों को सुपथ की ओर अग्रसित करने के उपदेश दिए। दृढ़ निश्चयी भीष्म, सत्यनिष्ठ युधिष्ठिर, अहिंसा का मार्ग प्रशस्त करने वाले गौतम बुद्ध, अशोक, महात्मा गाँधी, प्रभु ईसा मसीह ऐसे ही महापुरुष हैं, जिन्होंने समय-समय पर। जन्म लेकर संसार को सुपथ की ओर ले जाने का पथ-प्रदर्शन किया। यद्यपि मनुष्य ने इनके उपदेशों को श्रद्धा भाव के साथ स्वीकारा और इनकी श्रेष्ठता का मान भी रखा; परन्तु उनकी श्रेष्ठता मौखिक मात्र थी, उसका प्रयोग मनष्य में व्यावहारिक आचरण में नहीं किया। इसी कारण आज वह अन्य लोगों का शोषण करके उन्हें दुःख देता है। आज का मनुष्य दूसरों को दुःख की आग में झोंककर स्वयं भी उसी आग में जल रहा है। वह आज भी अभिनव मनुष्य मात्र कथनी से है, परन्तु उसकी करनी आदिम युग के मानव के समान ही है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – साहित्यिक खडीबोली।

शैली – प्रबन्धात्मक।

छन्द – मुक्त ।

अलंकार – रूपक, दृष्टान्त एवं अनुप्रास।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।



आज की दुनिया विचित्र, नवीन 

प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन । 

है बँधे नर के करों में वारि, विद्युत भाप, 

हुक्म पर चढ़ता-उतरता है पवन नहीं का ताप। 

है नहीं बाकी कहीं व्यवधान, 

लाँघ सकता नर सरित, गिरि सिन्धु एक समान।


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने स्पष्ट किया है कि आज का मनुष्य इतनी अधिक। प्रगति कर चुका है कि प्रकृति के सभी अंगों पर उसका नियन्त्रण है, परन्तु फिर भी उसमें विवेक का अभाव है।


व्याख्या :–

कवि दिनकर जी कहते हैं कि आज की दुनिया नई तो है, किन्तु बडी। विचित्र है। आज मनुष्य ने वैज्ञानिक प्रगति के द्वारा प्रकृति से संघर्ष करते हुए सभी क्षेत्रों में विजय प्राप्त कर ली है। आज मनुष्य ने जल, बिजली, दूरी, वातावरण का ताप आदि सभी पर अपना नियन्त्रण कर लिया है, सभी उसके हाथों में बँधे हुए हैं।हवा में मौजद ताप भी उसकी अनमति से ही बदलता है अर्थात प्रकति के लगभग सभी अंगों, अवयवों या क्षेत्रों पर मनुष्य ने पूर्णतया अपना अधिकार कर लिया है, उसका नियन्त्रण स्थापित हो गया है। अब उसके सामने कोई भी ऐसी समस्या नहीं है, कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जो उसे किसी भी तरह का व्यवधान पहुँचा सके। आज का मनुष्य हर दृष्टि से इतना अधिक उन्नत और साधनसम्पन्न हो चुका है कि वह नदी, पर्वत, सागर सभी को समान रूप से पार कर सकता है। अब उसके लिए कोई भी कार्य कठिन नहीं रह गया है। कहने का आशय यह है कि आज का मनुष्य भौतिक दृष्टि से अत्यधिक प्रगति कर चुका है और प्रकृति के लगभग सभी क्षेत्रों एवं अंगों पर उसका पूरी तरह नियन्त्रण हो गया है। मानव ने अपनी क्षमता को अत्यधिक बढ़ा लिया है, परन्तु दुर्भाग्य से उसमें विवेक का अभाव है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – साहित्यिक खडीबोली।

शैली – प्रबन्धात्मक।

छन्द – मुक्त ।

अलंकार – रूपक, दृष्टान्त एवं अनुप्रास।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।





शीश पर आदेश कर अवधार्य,

प्रकृति के सब तत्त्व करते हैं मनुज के कार्य। 

मानते हैं हुक्म मानव का महा वरुणेश,.

और करता शब्दगुण अम्बर वहन संदेश।

 नव्य की मुष्टि में विकराल 

हैं सिमटते जा रहे प्रत्येक क्षण दिक्काल 

यह मनुज, 

जिसका गगन में जा रहा है यान,

काँपते जिसके करों को देखकर परमाणु।



सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत काव्य पंक्तियों में कवि ने अभिनव मनुष्य की असीम शक्तियों का ओजपूर्ण चित्रण किया है।


व्याख्या :–

कवि कहता है कि आधुनिक मनुष्य इतना शक्तिशाली है कि उसस भयभीत होकर प्रकृति के सभी तत्त्व उसके आदेशों का पालन करते हैं। साथ ही मनुष्य की इच्छानुसार सभी कार्य करते हैं। वर्तमान समय में जलदेवता मनुष्यों की। माँगों का पालन करते हैं जैसे-जहाँ जल की आवश्यकता है, वहाँ जल की उपस्थिति । करा देता है, जहाँ जल का अथाह भण्डार है वहाँ नदियों पर बाँध बनाकर सूख। मैदान बनाने में सक्षम है। यहाँ तक कि उसने जल बरसाने की विद्या को इच्छानुसार ग्रहण कर लिया है। वर्तमान समय में रेडियो यन्त्रों के माध्यम से सन्देशों को इच्छित स्थानों तक पहुँचा देता है। इस आधुनिक मनुष्य की मुट्ठी में समस्त दिशाएँ प्रतिक्षण समाई जा रही हैं। आज मनुष्य के इस अथाह समुद्र में ही नहीं बल्कि अपार आकाश में है अर्थात् वह पक्षी की भाँति आकाश में स्वतन्त्र विचरण करता है। अभिनव मनुष्य इतना अधिक शक्तिशाली है कि उसके हाथों की अपार शक्ति को देखकर परमशक्तिशाली परमाणु भी भयभीत होकर थर-थर काँपने लगता है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – साहित्यिक खडीबोली।

शैली – प्रबन्धात्मक।

छन्द – मुक्त ।

अलंकार – रूपक, दृष्टान्त एवं अनुप्रास।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।




खोलकर अपना हृदयगिरि, सिन्धु, भू, आकाश, 

हैं सुना जिसको चुके निज गुह्यतम इतिहास । 

खुल गये परदे रहा अब क्या यहाँ अज्ञेय ?

 किन्तु नर को चाहिए नित विघ्न कुछ दुर्जेय; 

सोचने को और करने को नया संघर्ष, 

नव्य जय का क्षेत्र, पाने को नया उत्कर्ष


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 कवि ने प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से अभिनव मनुष्य की प्रकृति पर विजय, उसकी सफलताओं एवं लगातार प्रगति करते रहने की प्रवृत्ति को उजागर किया है।


व्याख्या:–

 कवि कहता है कि वर्तमान युग में मनुष्य का ज्ञान, शोधात्मक प्रवृत्ति एवं साहसिक कार्यों के परिणामस्वरूप पर्वत, सागर, पृथ्वी, आकाश भी हृदय खोलकर अपना सर्वाधिक गोपनीय इतिहास बता चुके हैं। आज प्रकृति के समस्त रहस्यों से पर्दा हट चुका है अर्थात् अब कुछ भी अज्ञात नहीं रह गया है। इसके पश्चात भी अभिनव मनुष्य ऐसी उपलब्धियों को अर्जित करने का इच्छुक है, जिन्हें सरलतापूर्वक हासिल करना असम्भव प्रतीत होता है। वह अपने लिए ऐसे दुर्गम व कठिन मार्ग तथा बाधाओं को आमन्त्रित करता रहता है, जिन पर कठिनाई से ही सही; परन्तु सफलता प्राप्त की जा सके। वह चिन्तन एवं कर्म की दृष्टि से बारम्बार नए। तौर-तरीकों से संघर्ष करने के लिए तत्पर रहता है तथा नवीन विजय प्राप्त करने के लिए सतत रूप से आगे बढ़ते रहने के लिए इच्छुक रहता है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – साहित्यिक खडीबोली।

शैली – प्रबन्धात्मक।

छन्द – मुक्त ।

अलंकार – रूपक, दृष्टान्त एवं अनुप्रास।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।






पर, धरा सुपरीक्षिता, विश्लिष्ट स्वादविहीन, 

यह पढ़ी पोथी न दे सकती प्रवेग नवीन। 

एक लघु हस्तामलक यह भूमि-मंडल गोल, 

मानवों ने पढ़ लिये सब पृष्ठ जिसके खोल ।


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में मनुष्य के द्वारा पृथ्वी के समस्त रहस्यों को जान लेने का वर्णन किया है।


व्याख्या:–

 कवि कहता है कि आरम्भिक समय से ही मनुष्य की प्रवृत्ति खोज-बीन करने की रही है। इसी के फलस्वरूप मनुष्य ने सम्पूर्ण पृथ्वी का निरीक्षण कर उसका विश्लेषण किया है। अब पृथ्वी पर ऐसा कोई तथ्य मौजूद नहीं है, जिससे मनुष्य अवगत न रहा हो। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो वर्तमान समय में अभिनव मनुष्य के लिए पृथ्वी पर आकर्षण हेतु कोई वस्तु या पदार्थ अछूता नहीं रह गया है। उसने पृथ्वी से सम्बन्धित सभी रहस्यों की जानकारी प्राप्त कर ली है। अब मनुष्य के लिए पथ्वी से सम्बन्धित जानकारी बहुत आसान हो गई है, जैसे-हथेली पर रखा गोल-मटोल छोटा-सा आँवला हो। अत: मनुष्य ने पृथ्वीरूपी पुस्तक के एक पृष्ठ से अवगत होकर ही उसको कण्ठस्थ (याद) कर लिया है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – साहित्यिक खडीबोली।

शैली – प्रबन्धात्मक।

छन्द – मुक्त ।

अलंकार – रूपक, दृष्टान्त एवं अनुप्रास।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।





किन्तु नर-प्रज्ञा सदा गतिशालिनी, उद्दाम 

ले नहीं सकती नहीं रुक एक पल विश्राम। 

यह परीक्षित भूमि, यह पोथी पठित, प्राचीन, 

सोचने को दे उसे अब बात कौन नवीन ?

यह लघुग्रह भूमिमण्डल, व्योम यह संकीर्ण, 

चाहिए नर को नया कुछ और जग विस्तीर्ण। 


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 कवि इस बात पर जोर देना चाहता है कि मानव ने अत्यधिक प्रगति कर ली है। उसने सम्पूर्ण सृष्टि से सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त कर लिया है और आज भी वह और अधिक ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। ।


व्याख्या:–

 प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि दिनकर जी यह कहना चाहते हैं कि मानव की बुद्धि निरन्तर तीव्रगति से चलती रहती है। वह एक पल के लिए भी नहीं रुक सकता, उसकी बुद्धि एक क्षण के लिए भी विश्राम नहीं लेती। मनुष्य ने इस धरतीरूपी पुस्तक को भली-भाँति तरीके से पढ़ लिया है और यह उसके लिए पुरानी पड़ चुकी है अर्थात अब इस धरती से सम्बन्धित तथ्यों को जानना शेष नहीं रह गया। है। इसके बारे में वह सभी चीजों को जान एवं समझ चुका है। अब उसके चिन्तन के लिए कोई भी बात नई नहीं रह गई है, सभी पुरानी पड़ चुकी हैं। मात्र छोटा-सा ग्रह बन गया है। यह विस्तृत आकाश अब उसके लिए सिकुड़ गया है, सीमित हो गया है। अब आज का मानव अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए कोई नया क्षेत्र चाहता है। वह अधिक नवीन एवं व्यापकnसंसार चाहता है, जिसके बारे में वह नई चीजों को जान सके। वह नए एवं विस्तृत संसार को खोजने के लिए सतत् प्रयत्नशील है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – साहित्यिक खडीबोली।

शैली – प्रबन्धात्मक।

छन्द – मुक्त ।

अलंकार – रूपक, उपमा एवं अनुप्रास।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।




यह मनुज ब्रह्माण्ड का सबसे सुरम्य प्रकाश, 

कुछ छिपा सकते न जिससे भूमि या आकाश। 

यह मनुज, जिसकी शिखा कर रहे उद्दाम, 

जिसको चराचर भक्तियुक्त प्रणाम।

 यह मनुज, जो सृष्टि का श्रृंगार, 

ज्ञान का विज्ञान का, आलोक का आगार। 

'व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय', 

पर, न यह परिचय मनुज का, यह न उसका श्रेय 

श्रेय उसका बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत; 

श्रेय मानव की असीमित मानवों से प्रीत, 

एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान 

तोड़ दे जो, बस, वही ज्ञानी, वही विद्वान्, 

और मानव भी वही



सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में कवि इस बात पर जोर देना चाहता है कि मानव ने अत्यधिक प्रगति कर ली है, उसने सम्पूर्ण सृष्टि से सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त कर लिया है। वह इस सृष्टि का सर्वाधिक ज्ञानवान प्राणी है।


व्याख्या:–

 कविवर दिनकर कहते हैं कि यह सत्य है कि मनुष्य इस सृष्टि की सबसे सुन्दर रचना है। यह विज्ञान से पूर्णत: परिचित हो चुका है। आकाश से लेकर पाताल तक कोई रहस्य शेष नहीं है, जो इससे छिपा हुआ हो, जो इसने जान न लिया हो। यह ज्ञान का अनुपम भण्डार है। चर और अचर सभी इसको भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं। यह मनुष्य सृष्टि का श्रृंगार है। ज्ञान और विज्ञान का अदभुत भण्डार है। इतना सब होते हुए भी यह इसका वास्तविक परिचय नहीं है और न ही इसमें उसकी कोई महानता ही है। उसकी महानता तो इसमें है कि वह अपनी बुद्धि की दासता से मुक्त हो और बुद्धि पर उसके हृदय का अधिकार हो अर्थात् वह बुद्धि के स्थान पर अपने हृदय का प्रयोग अधिक करे। वह असंख्य मानवों के प्रति अपना सच्चा प्रेम रखे। दिनकर जी के अनुसार, वही मनुष्य ज्ञानी है, विद्वान् है, जो मनुष्यों के बीच में बढ़ती हई दूरी को मिटा दे। वास्तव में वही मनुष्य श्रेष्ठ है, जो स्वयं को एकाकी न समझे, बल्कि सम्पूर्ण पृथ्वी को अपना परिवार समझे।

आज मनुष्य ने वैज्ञानिक उन्नति तो बहुत कर ली है, पर पारस्परिक प्रेमभाव। कम होता जा रहा है। कवि चाहता है कि मनुष्य की बुद्धि पर उसके हृदय का अधिकार हो जाए। वास्तव में ज्ञानी वही है, जो मानव-मानव के बीच अन्तर समाप्त कर दे।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – साहित्यिक खडीबोली।

शैली – प्रबन्धात्मक।

छन्द – मुक्त ।

अलंकार – रूपक ।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।





सावधान मनुष्य ! यदि विज्ञान है तलवार, 

तो इसे दे फेंक, तजकर मोह, स्मृति के पार । 

हो चुका है सिद्ध हैं तू शिशु अभी अज्ञान; 

फूल काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान, 

खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार, 

काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी यह धार।।



सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने विज्ञान के नकारात्मक व विनाशकारी परिणामों के प्रति मानव को सचेत करने का प्रयास किया है।


व्याख्या :–

कवि दिनकर जी कहते हैं कि विज्ञान के माध्यम से मानव ने प्रकृति के साथ संघर्ष करते हुए अनेक ऐसे नए उपकरणों एवं प्रयोगों को विकसित किया है. जिससे वह प्रकृति को नियन्त्रित कर सके। प्रकृति को नियन्त्रित करने की इच्छा ने। जिन नवीन वैज्ञानिक उपकरणों एवं खोजों को जन्म दिया, उनसे वातावरण में विनाश की परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं। विज्ञान का दुरुपयोग मानव के कल्याणकारी साधनों के विनाश का कारण बन सकता है। यही कारण है कि कवि दिनकर जी अभिनव मानव को सावधान करते हुए कहते हैं कि हे मानव! तू विज्ञानरूपी तीक्ष्ण धार वाली तलवार से खेलना छोड़ दे। यह मानव समुदाय के हित में नहीं है। यदि विज्ञान तीक्ष्ण तलवार है, तो इस मोह को त्यागकर फेंक देना ही उचित है। इस विज्ञानरूपी तलवार पर अभी मनुष्य को नियन्त्रण प्राप्त करना मुश्किल है। अभी मनुष्य अबोध शिशु की तरह है। उसे फूल एवं काँटे में अन्तर करना मालूम नहीं है। वह काँटे को फूल समझकर उसकी ओर आकर्षित हो रहा है। अभी वह अबोध है, अज्ञानी है। अभी विज्ञानरूपी तलवार से खेलने में वह सक्षम नहीं है। वह इसकी तीक्ष्ण धार से अपने ही अंगों को घायल कर सकता है। उसे अभी इससे सावधान रहने की आवश्यकता है. क्योंकि मानव की तनिक-सी असावधानी भी स्वयं उसके लिए ही विनाश का कारण बन सकती है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – साहित्यिक खडीबोली।

शैली – प्रबन्धात्मक।

छन्द – मुक्त ।

अलंकार – रूपक, दृष्टान्त एवं अनुप्रास।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।







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