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जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ का संक्षिप्त जीवन परिचय, उद्धव-प्रसंग सन्दर्भ सहित व्याख्या

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 जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ का संक्षिप्त जीवन परिचय:–



• जन्म – सन् 1866 ई० ।

• जन्म-स्थान – काशी ( उ० प्र० ) ।

• पिता – पुरुषोत्तमदास ।

• प्रमुख रचनाएँ–उद्धव शतक, गंगावतरण।

• मृत्यु – 21 जून, सन् 1932 ई० ।

• भाषा – ब्रज ।


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उद्धव-प्रसंग:–


भेजे मनभावन के ऊधव के आवन की 

सुधि ब्रज-गाँवनि मैं पावन जबै लगीं।

कहे 'रतनाकर' गुवालिनि की झौरि झौरि- 

दौरि-दौर नंद-पौरि आवन तबै लगीं।।

उझकि उझकि पद कंजनि के पंजनि पै 

पेखि पेखि पाती छाती छोहनि छबै लगीं। 

हमकों लिख्यौ है कहा, हमकों लिख्यौ है कहा, 

हमकों लिख्यौ है कहा कहन सबै लगीं।।1।।


सन्दर्भ:–

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्य पुस्तक में संकलित तथा जगन्नाथदास ‘रत्नाकार’ द्वारा रचित ‘उद्धव-प्रसंग’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।


प्रसंग:–

 प्रस्तत पद में कहा गया है कि गोपियों को जब यह ज्ञात हुआ कि उद्धव उनके प्रिय श्रीकृष्ण का कोई सन्देश लेकर आए हैं, तो वे अपने प्रियतम का सन्देश जानने के लिए अत्यन्त व्यग्र हो गईं।।


व्याख्या:–

 जब मनभावन श्रीकृष्ण द्वारा भेजे गए दूत उद्धव के आगमन की । सचना गोपियों को मिली, तो वे समूह में दौड़-दौड़कर अपने प्रियतम के दत से मिलने के लिए नन्द के द्वार पर आने लगीं। अपने कमलरूपी चरणों के पंजों पर । उचक-उचककर वे श्रीकृष्ण द्वारा भेजे गए पत्र को देखने लगीं। सभी गोपियों का हृदय क्षोभ से (उत्कण्ठा मिश्रित व्याकुलता से) भर उठा। सभी गोपियाँ करने लगीं कि श्रीकष्ण ने उनके लिए क्या लिखा है? हमारे लिए कृष्ण ने क्या सन्देश भेजा है? इस प्रकार सभी गोपियाँ अपने अपने नाम के सन्देश को सुनने को व्याकल। होने लगीं।


काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – ब्रजभाषा ।

शैली – मुक्तक ।

छन्द – मनहरण सवैया।

 अलंकार – अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश, वीप्सा एवं पदमैत्री।

गुण – माधुर्य ।

शब्द शक्ति –लक्षणा।





चाहत जौ स्वबस संजोग स्याम सुन्दर कौ 

जोग के प्रयोग मैं हियौ तौ बिलस्यो रहै। 

कहै 'रतनाकर' सु-अंतर-मुखी है ध्यान 

मंजु हिय-कंज-जगी जोति मैं धस्यौ रहे ।।

ऐसें करौं लीन आतमा को परमातमा मैं 

जामैं जड़-चेतन-विलास बिकस्यौ रहै।

मोह-बस जोहत बिछोह जिय जाकौ छोहि 

सो तौ सब अंतर-निरंतर बस्यौ रहै । ।।2।।


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद में उद्धव, गोपियों को ज्ञान मार्ग का अनुसरण करने का सन्देश दे रहे हैं।


व्याख्या :–

उद्धव गोपियों से कह रहे हैं कि यदि तुम श्याम सुन्दर अर्थात् श्रीकृष्ण के साथ संयोग (मिलाप) को अपने अधिकार में करना चाहती हो, तो अपने हृदय को योग साधना में आनन्द के साथ लीन रखें। कवि कह रहे हैं कि उद्धव गोपियों को कृष्ण का ध्यान करने के लिए हृदय में स्थित आत्मा की ओर उन्मुख होने को कहते हैं। मनुष्य के सुन्दर हृदयरूपी कमल में ब्रह्म की ज्योति जलती रहती है, उसी ब्रह्म की ज्योति के ध्यान में गोपियों को लीन रहना चाहिए। उद्धव का यह कहना है कि कृष्ण सच्चे अर्थ में ब्रह्म के स्वरूप हैं एवं गोपियाँ यदि उन्हें पाना चाहती हैं, तो उन्हें अपनी आत्मा को परमात्मा अर्थात् ब्रह्म में इस प्रकार लीन कर देना चाहिए, जिससे उनके हृदय में जड़ और चेतन के प्रति आनन्द प्रकट होता रहे। ब्रह्म का साक्षात्कार करने वाले योगी को, जैसे जड़ और चेतन में आनन्द की अनुभूति होती रहती है, वैसे ही गोपियों को भी अपनी आत्मा में कृष्ण की उपस्थिति की अनुभूति होने लगेगी। मोह वश जिसके वियोग का अनुभव करके गोपियाँ क्षुब्ध (दुःखी) होती हैं तथा प्रिय कृष्ण को अपने से पृथक् समझती हैं, वह तो गोपियों के ही नहीं, अपितु सभी के हृदय (आत्मा) में सदैव विद्यमान रहते हैं।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – ब्रजभाषा ।

शैली – मुक्तक ।

छन्द – मनहरण सवैया ।

अलंकार – अनुप्रास, यमक एवं पदमैत्री ।

गण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।


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सुनि सुनि ऊधव की अकह कहानी कान 

कोऊ थहरानी, कोऊ थानहिं थिरानी हैं। 

कहै 'रतनाकर' रिसानी, बररानी कोऊ 

कोऊ बिलखानी, बिकलानी, बिथकानी हैं।

कोऊ सेद-सानी, कोऊ भरि दृग-पानी रहीं

कोऊ भूमि- भूमि परीं भूमि मुरझानी हैं। ।

कोऊ स्याम-स्याम के बहकि बिललानी कोऊ 

कोमल करेजा थामि सहमि सुखानी हैं । ।।3।।



सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तत पद्यांश में उद्धव के न कहने योग्य कहानी को सुनकर गोपियों की। जो दुर्दशा हुई उसी का चित्रण किया गया है।


व्याख्या:–

 कवि कह रहे है कि उद्धव के द्वारा न कहने योग्य कहानी अर्थात योग्य सम्बन्धी असह्य एवं निष्ठर सन्देश अपने कानों से सनकर गोपियों। की दशा अत्यन्त दु:खमय हो गई। उनमें से कोई कृष्ण के वियोग मिलान पाने के भय से थर-थर काँपने लगी एवं कोई उद्धव के सन्देश सुनकर स्तब्ध होकर अपने स्थान पर स्थिर खड़ी हो गई। कवि रत्नाकर कह रहे हैं कि निष्ठर सन्देश को सुनकर कोई क्रोधित हो गई है, तो कोई शोक वश विलाप करने लगी एवं कोई विकल हो गई। उनमें से कोई शिथिल हो गई, कोई घबड़ाहट के चलते पसीने से भीग गई, तो कोई कृष्ण के वियोग में दुःख से रोने लगी और उनकी आँखों में पानी भर आया। किसी को इतना दुःख हुआ कि वह मर्छित होकर गिर गई। कोई श्याम-श्याम कहते हुए आवेश में तड़पने लगी एवं कोई अपने कोमल कलेजे को पकड़कर भय से सूख गई। कवि यह कहना चाहते हैं कि कृष्ण के वियोग से द:खी गोपियाँ उनके योग सम्बन्धी असह्य सन्देश को सुनकर दु:ख के असीम सागर में डूब गईं एवं वे अपने दुःख को नियन्त्रित करने में बिलकुल असमर्थ हो गई हैं।


काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – ब्रजभाषा ।

शैली – मुक्तक ।

अलंकार – पुनरुक्तिप्रकाश एवं पदमैत्री।

शब्द शक्ति – लक्षणा ।

छन्द – मनहरण सवैया ।

गुण – प्रसाद।




कान्ह-दूत कैधौं ब्रह्म- दूत है पधारे आप 

धारे प्रन फेरन कौ मति ब्रजबारी की। 

कहै 'रतनाकर' पै प्रीति-रीति जानत ना 

ठानत अनीति आनि रीति लै अनारी की ।।

मान्यौ हम, कान्ह ब्रह्म एक ही, कह्यौ जो तुम 

तौहूँ हमें भावति ना भावना अन्यारी की।

जैहै बनि बिगरि न बारिधिता बारिधि की 

बूँदता बिलैहै बूँद बिबस बिचारी की ।।4।।



सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में उद्धव आत्मा एवं परमात्मा की अभिन्नता को प्रतिपादित करते हुए गोपियों को उपदेश दे रहे हैं।


व्याख्या:–

 गोपियाँ, उद्धव से प्रश्न पूछ रहीं हैं कि आप ब्रजबालाओं की बुद्धि को बदलने का प्रण लेकर तथा कृष्ण का दूत बनकर आए हैं या ब्रह्म का दूत बनकर आए हैं? वे उद्धव से यह कह रहीं हैं कि कहने को तो वे कृष्ण का दूत बनकर आए हैं, किन्तु कृष्ण की चर्चा न करके वे ब्रह्म की चर्चा ही कर रहे हैं। रत्नाकर कवि कह रहे हैं कि उद्धव को प्रीति की रीति का ज्ञान नहीं है, इसलिए वे अनाड़ियों एवं बुद्धिहीनों जैसा व्यवहार करके गोपियों के साथ अन्याय कर रहे हैं, जो उन्हें उनके प्रेमी कृष्ण के स्थान पर ब्रह्म की बात बताते । हैं। गोपियाँ, उद्धव से कह रही हैं कि यदि उन्होंने उनके कहने के अनुसार, श्रीकृष्ण एवं ब्रह्म को एक मान भी लिया तो भी उन्हें एकत्व या अभेदता की इस भावना को मानना अच्छा नहीं लगता है। गोपियाँ, उद्धव से कह रही हैं कि ब्रह्म अथाह समुद्र की तरह है एवं वे जल । की बूंदों के समान है। समुद्र में जल की कुछ बूंदें मिले या नहीं मिले, इससे समुद्र । के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु यदि बूंद समुद्र में मिल जाए तो उसका अस्तित्व अवश्य ही समाप्त हो जाता है। मोहवश, गोपियाँ यह कह रही हैं कि यदि वे ब्रह्म से मिलने के लिए योग साधना करती हैं, तो उनमें लीन होने से। उनका अस्तित्व अवश्य ही समाप्त हो जाएगा, किन्तु कृष्ण की आराधना करने से उनका अस्तित्व बना रहेगा। जैसे विवश बूंद समुद्र के जल में मिलकर उसमें लीन होकर अपने पृथक अस्तित्व को खो देती है. वैसे ही गोपियों के ब्रह्म में मिल जाने से उनका अपना अस्तित्व समाप्त हो जाएगा, जिससे वे कृष्ण को पाने से वंचित हो जाएँगी। कृष्ण के ध्यान में रहने से उनका अस्तित्व बने रहने की सम्भावना है। अत: गोपियाँ, उद्धव की बात मानकर ब्रह्म को पाने के लिए योग साधना करने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं हैं।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – ब्रजभाषा।

शैली – मुक्तक ।

छन्द – मनहरण सवैया ।

अलंकार – अनुप्रास, यमक, श्लेष, पदमैत्री एवं दृष्टान्त।

 गुण – माधुर्य ।

शब्द शक्ति – लक्षणा एवं व्यंजना।



चिन्ता-मनि मंजुल पँवारि धूर-धारनि मैं

काँच-मन-मुकुर सुधारि रखिबौ कहौ।

कहै ‘रतनाकर’ बियोग-आगि सारन कौं

ऊधौ हाय हमकौं बयारि भखिबौ कहौ।।

रूप-रस-हीन जाहि निपट निरूपि चके

ताको रूप ध्याइबौ औ रस चखिबौ कहौ।

एते बड़े बिस्ब माहीं हेरै हूँ न पैयै जाहि,

ताहि त्रिकुटी मैं नैन मुंदि लखिबौ कहौ।।5।।


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में गोपियाँ योग-साधना की निरर्थकता को सिद्ध कर रही हैं। वे कृष्ण की भक्ति के अतिरिक्त निराकार ब्रह्म की उपासना नहीं करना चाहती हैं।


व्याख्या:–

 कवि कह रहे हैं कि निराकार ब्रह्म की उपासना करना गोपियों को उपयुक्त नहीं लगता है। उनका मन कृष्ण के प्रेम में लीन है। इसलिए जब उद्धव उन्हें निराकार ब्रह्म की उपासना करने के लिए कहते हैं, तब वे उनसे कहती हैं कि आप हमें सुन्दर चिन्तामणि को धूल की धाराओं (भस्म रमाने) में फेंककर, मनरूपी काँच के दर्पण को सँभालकर रखने के लिए कह रहे हैं। यह हमारे लिए सम्भव। नहीं है। उनका कहना है कि कृष्ण की भक्ति समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली है, जिसे छोड़कर उद्धव उन्हें भस्म रमाने के लिए कह रहे हैं। रत्नाकर कवि कहते हैं कि वियोग की अग्नि से व्याकुल गोपियों को उद्धव वायु भक्षण (प्राणायाम) के द्वारा अपनी वियोग अग्नि को बुझाने के लिए कह रहे हैं। वायु, अग्नि को भड़काती है, बुझाती नहीं। प्राणायाम करने से गोपियों के विरह की आग बुझेगी नहीं, अपितु और अधिक भड़केगी, गोपियों के इसी भाव को कवि ने यहाँ अभिव्यक्त किया है। गोपियाँ, उद्धव से कह रही हैं कि निराकार ब्रह्म नितान्त रूपहीन एवं रसहीन है, इसका निरूपण हो चुका है, फिर भी उद्धव उन्हें उनके रूप का ध्यान करने एवं रस का पान करने के लिए कह इन बातों में गोपियों को साम्य नहीं दिखाई पड़ता है। वे कह रही हैं कि इतने बड़े संसार में जिन्हें खोजने पर भी पाया नहीं जा सकता है, उस ब्रह्म को उद्धव उन्हें त्रिकुटी चक्र में ध्यान के द्वारा देखने के लिए कह रहे हैं। गोपियों के कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण को वे अपनी आँखों से देख सकती हैं, जिससे वे उनके रूप एवं रस का पान करती हुई उनकी भक्ति करती हैं, किन्तु निराकार ब्रह्म जो रूपहीन एवं रसहीन हैं, उनका ध्यान लगा पाना या उनकी उपासना करना उनके लिए सम्भव नहीं है।


काव्य गत सौन्दर्य:–



भाषा – ब्रजभाषा ।

शैली – मुक्तक ।

छन्द – मनहरण सवैया।

अलंकार – श्लेष, रूपक, अनुप्रास तथा विरोधाभास।

गुण – माधुर्य ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।




आए हौ सिखावन कौं जोग मथुरा तैं तौपै 

ऊधौ ये बियोग के बचन बतरावौ ना।

कहै 'रतनाकर' दया करि दरस दीन्यौ 

दुख दरिबै काँ, तोपै अधिक बढ़ावौ ना।।

टूक-टूक ह्वैहे मन मुकुर हमारी हाय 

चूंकि हूँ कठोर-बैन-पाहन चलावी ना।

एक मनमोहन तौ बसिकै उजार्थी मोहिं 

हिय मैं अनेक मनमोहन बसावी ना ।।6।।


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद में गोपियाँ योग की शिक्षा देने आए उद्धव के सामने अपने मनोभावों को प्रकट कर रही हैं। ।


व्याख्या :–

उद्धव मथुरा से कृष्ण के आदेश से गोपियों को योग की शिक्षा देने आए हैं। गोपियाँ उनसे कह रही हैं कि वे उन्हें योग की शिक्षा देने मथुरा से आए हैं यह ठीक है, किन्तु योग की बात करते हुए वे वियोग की बातें न करें। रत्नाकर कवि कहते हैं कि कृष्ण के वियोग से दु:खी गोपियों को भले ही उद्धव ने उनके दु:ख दूर करने के लिए उन्हें दर्शन दिए, पर कृष्ण के न आने का सन्देश देकर उन्होंने गोपियों के दु:ख को और भी अधिक बढ़ा दिया। गोपियाँ, उद्धव से अनरोध कर रही हैं कि वियोग की बात करके हमारे दुःख को और अधिक न बढ़ाएँ, क्योंकि कृष्ण के वियोग की बात सुनकर उनके हृदय में स्थित । मनरूपी दर्पण के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे। अतः भूल कर भी उन्हें कठोर वचनरूपी पत्थर नहीं चलाइए। वे कह रही हैं कि एक कृष्ण ने हमारे मन में वास करके अपने वियोग से उसे उजाड़ा।

उस उजड़े हुए हृदय के दर्पण को यदि उद्धव के कठोर वचन रूपी पत्थर ने टुकड़े-टुकड़े कर दिए तो श्रीकृष्ण के एक ही प्रतिबिम्ब के कई टुकड़े हो जाएंगे, जिससे हमारे हृदय में अनेक कष्ण के वास होने से एवं उनके पुनः उजड़ने से हमारा कष्ट कितना बढ़ जाएगा इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन है। गोपियों के ऐसा कहने का आशय यह है कि उद्धव अपने कठोर वचनरूपी पत्थरों से उनके हृदय के टूटे दर्पण के टुकड़ों में अनेक मनमोहन को बसाकर फिर उसे उजाड़ कर उन्हें और अधिक दुःखी न करें।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – ब्रजभाषा ।

शैली – मुक्तक ।

छन्द – मनहरण ।

सवैया – अलंकार अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश, वक्रोक्ति तथा रूपक।

 गुण– माधुर्य।

शब्द शक्ति – लक्षणा और व्यंजना।





ऊधौ यह सूधौ सौ सँदेस कहि दीजो एक 

जानति अनेक न बिबेक ब्रज-बारी हैं। 

कहै 'रतनाकर' असीम रावरी तौ छमा 

छमता कहाँ लौं अपराध की हमारी हैं ।। 

दीजै और ताजन सबै जो मन भावै पर 

कीजै न दरस - रस बंचित बिचारी हैं। 

भली हैं बुरी हैं औ सलज्ज निरलज्ज हू हैं 

जो कहैं सो हैं पै परिचारिका तिहारी हैं ।। 7 ।।


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने गोपियों के द्वारा किए गए कृष्ण से अनुरोध एवं | उनके स्वभाव का वर्णन किया है।


व्याख्या :–

गोपियाँ, उद्धव से कह रही हैं कि वे कृष्ण से हमारा यह सीधा-सा । सन्देश कह दें कि ब्रजबालाएँ छल-कपट की अनेक बातें नहीं जानती हैं। उनके कहने । का आशय यह है कि वे निर्दोष एवं निरापराध हैं। रत्नाकर कवि कहते हैं कि गोपियाँ, श्रीकृष्ण की क्षमा करने की सीमाहीन शक्ति को जानती हैं इसलिए कहती हैं कि हममें अपराध करने की इतनी शक्ति नहीं है जितनी श्रीकृष्ण में क्षमा करने की शक्ति है। वे कहती हैं कि हमने कोई अपराध नहीं किया है, फिर भी श्रीकृष्ण को हमें कष्ट या दण्ड देना है, तो उन्हें जो अच्छा लगे वे कष्ट दे सकते हैं, किन्तु वे अपने मन में यह अच्छी तरह विचार कर लें कि हम सबको अपना दर्शन अवश्य दें एवं हमें अपने दर्शन देने से वंचित न करें। गोपियाँ, श्रीकृष्ण से अपनी सफाई देती हुई कह रही हैं कि वे उन्हें लज्जाशील या लज्जाहीन एवं भला या बुरा जैसा भी वे समझें उन्हें सब स्वीकार है, किन्त यह सत्य है कि वे जैसी भी हैं, उनकी ही सेविकाएँ हैं। गोपियाँ, श्रीकृष्ण के दर्शन पाने के लिए। व्याकल हैं। उनका कहना है कि उनके अपराध भले ही अधिक हो, किन्त श्रीकष्ण की जमा करने की शक्ति के सामने उनके अपराध नगण्य है, इसलिए अपने समस्त अपराधों के उपरान्त वे उनकी कृपा पाना चाहती हैं।


काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – ब्रजभाषा।

 शैली – मुक्तक ।

छन्द – मनहरण सवैया ।

अलंकार – ‘दरस-रस’ में यमक, पदमैत्री। 

गुण – माधुर्य ।

शब्द शक्ति – लक्षणा एवं व्यंजना।





धाई जित तित तैं बिदाई-हेत ऊधव की 

गोपी भरीं आरति सँभारति न साँसुरी ।

कहै 'रतनाकर' मयूर पच्छ कोऊ लिए 

कोऊ गुंज- अंजली उमाहै-प्रेम- आँसुरी ।।

भाव-भरी कोऊ लिए रुचिर सजाव दही 

कोऊ मही मंजु दाबि दलकति पाँसुरी ।

पीत पट नंद जसुमति नवनीत नयौ 

कीरति-कुमारी सुरबारी दई बाँसुरी ।।8 ।।


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद में कवि ने उद्धव के मथुरा लौटने के समय, राधा, यशोदा, नन्द और गोपियों के द्वारा, उन्हें कृष्ण के लिए विभिन्न उपहार दिए जाने के प्रसंग का वर्णन किया है।


व्याख्या:–

 कवि कह रहे हैं कि जब उद्धव ब्रज से जाने लगे एवं उनकी विदाई का समय आया तो गोपियाँ अत्यन्त व्याकल हो गईं। उन्हें विदाई देन। के लिए वे इधन-उधर दौड़ने लगीं। उस समय वे इतना दुःखी थीं कि दुःख। के चलते वे ठीक से साँस भी नहीं ले पा रही थीं।

रत्नाकर कवि कहते हैं कि कृष्ण को उपहार के रूप में गोपियाँ अपनी शक्ति के अनुसार कुछ-न-कुछ देना चाहती थीं, जो उनके प्रियतम को प्रिय है। उनमें से कोई मोर के पंख लेकर आई, तो कोई अपने आँखों में आँस उमड़ाते हुए अपने हाथों में घुघची की माला लिए हुए आई। कृष्ण के प्रेम भाव से भरी हुई कोई गोपी स्वादिष्ट मलाईयुक्त दही लेकर आई तो कोई अपनी फटती हुई पसलियों को दबाते हुए मट्ठा लेकर आई। इन विभिन्न प्रकार के उपहारों को वे उद्धव से अपने प्रेम को प्रकट करने के लिए श्रीकृष्ण को भेज रहीं थीं। नन्द बाबा ने उनके लिए पीताम्बर, यशोदा ने ताजा मक्खन एवं राधा ने सुरीले स्वर वाली बाँसुरी लाकर दी। ब्रजवासियों को कृष्ण से अथाह प्रेम था। अत: वे उनके दर्शन के लिए एवं उनके साथ रहने के लिए व्याकुल थे। अपने से दूर रहने वाले अपने । प्रियतम के लिए वे सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तत्पर रहते थे। सांसारिक उपहार की वस्तुएँ तो उनके प्रेम के प्रतीक स्वरूप थे।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – ब्रजभाषा ।

शैली – मुक्तक ।

छन्द – मनहरण सवैया।

अलंकार – अनुप्रास।

 गुण – माधुर्य ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।





प्रेम-मद-छाके पग परत कहाँ के कहाँ 

 थाके अंग नैननि सिथिलता सुहाई है।

कहै 'रतनाकर' यो आवत चकात ऊधौ 

मानौ सुधियात कोऊ भावना भुलाई है।।

धारत धरा पैं ना उदार अति आदर सौं 

सारत बँहोलिनि जो आँसु-अधिकाई है। 

एक कर राजै नवनीत जसुदा को दियौ 

एक कर बंसी बर राधिका पठाई है।।9।।


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग:-

 प्रस्तुत पद्यांश में ब्रजवासियों के प्रेमाधिक्य के कारण उद्धव की भाव-विह्वल स्थिति का वर्णन है।


व्याख्या:–

 जब उद्धव ब्रज से मथुरा के लिए चलने लगे, तो ब्रजवासियों (गोपियाँ, राधा, नन्द, यशोदा आदि) ने उन्हें अत्यन्त भावपूर्ण विदाई दी। ब्रजवासियों के प्रेम-रस का आकण्ठ पान किए हुए उद्धव जब चलने लगे, तो उनके पैर कहीं-के-कहीं पड़ने लगे। उनके शरीर के सारे अंग थके थके से लगने लगे और उनकी आँखों में शिथिलता (कमजोरी) दिखाई देने लगी (ऐसा लग रहा था मानो उन्हें बलपूर्वक जाना पड़ रहा हो)। उद्धव इस प्रकार चल रहे थे, मानो भूली हुई कोई बात याद कर रहे हों। उनके एक हाथ में यशोदा जी का दिया हुआ मक्खन था, तो दूसरे हाथ में राधा द्वारा दी गई बाँसरी। उन वस्तुओं के प्रति अत्यधिक सम्मान भाव के कारण वे उन उपहारों को जमीन पर नहीं रख रहे थे। साथ-ही-साथ, वे प्रेम की अधिकता के कारण अपने नेत्रों से प्रवाहित हो रहे आँसुओं को अपने कुर्ते की बाँहों से पोंछते जा। रहे थे।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – ब्रजभाषा ।

शैली – मुक्तक ।

छन्द – मनहरण ।

सवैया – अलंकार रूपक, अनुप्रास एवं उत्प्रेक्षा ।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।




ब्रज-रज-रंजित सरीर सुभ ऊधव कौ

धाइ बलबीर हवै अधीर लपटाए लेत । 

कहै 'रतनाकर' सु प्रेम-मद-माते हेरि 

थरकति बाँह थामि थहरि थिराए लेत ।। 

कीरति कुमारी के दरस रस सद्य ही की 

छलकनि चाहि पलकनि पुलकाए लेत ।।

परन न देत एक बूँद पुहुमी की कोंछि 

पोंछि-पछि पट निज नैननि लगाए लेत ।।10।।


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद में कवि ने गोपियों की भक्ति-भावना से विह्वल उद्धव जी मथुरा लौट आए हैं। उनकी दशा को देखकर कृष्ण भी भाव विह्वल हो जाते हैं, इसी का वर्णन यहाँ किया गया है।


व्याख्या:–

 ब्रज से लौटकर आए हुए उद्धव का शरीर धूल से भरा हुआ है। ब्रज की पवित्र धूलि से सने हुए उनके शरीर को देखकर भाव-विह्वल श्रीकृष्ण दौड़कर अत्यन्त अधीरता से उन्हें अपने बाँहों में लिपटा लेते हैं। उद्धव का धूल से भरा हुआ शरीर उन्हें ब्रज की याद दिला देता है। उद्धव की गोपियों के प्रेम के कारण भाव-विह्वलता को देखकर कृष्ण के मन में गोपियों एवं ब्रजवासियों की मधुर-स्मृति जागृत हो जाती है। कवि रत्नाकर कहते हैं कि उद्धव को प्रेम-मद में मत्त देखकर श्रीकृष्ण उनकी काँपती हुई भुजा को थाम लेते हैं एवं अपने मन में गोपियों के उस पवित्र प्रेम को याद करके वे काँपते हुए हाथों से उद्धव को स्थिर करने की कोशिश करते हैं। उद्धव के द्वारा हाल ही में श्रीराधा जी के किए गए नवीन-दर्शनरूपी रस का पान करने से आँसुओं से उमड़ते हुए उनकी आँखों को देखकर श्रीकृष्ण की आँखें भी गीली हो गईं। कहने का आशय यह है कि उद्धव की भरी हुई आँखों को देखकर कृष्ण की आँखों की पलकें भी गीली हो गईं। श्रीराधा के दर्शन से पवित्र हो गई उद्धव की आँखों से निकले हुए आँसुओं को श्रीकृष्ण, उनके पृथ्वी पर नीचे गिरने से पहले ही एक-एक बूंद को अपने दुपट्टे से पौंछकर अपनी आँखों से लगा रहे हैं। उन आँसूओं में कृष्ण को राधा का ही स्वरूप दिखलाई पड़ता है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – ब्रजभाषा ।

शैली – मुक्तक ।

छन्द – मनहरण सवैया 

अलंकार – पुनरुक्तिप्रकाश के साथ-साथ अनुप्रास। गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – अभिधा।


छावते कुटीर कहूँ रम्य जमुना कैं तीर 

गौन रौन-रेती सौं कदापि करते नहीं।

कहै 'रतनाकर' बिहाइ प्रेम गाथा गढ़ 

स्त्रीन रसना मैं रस और भरते नहीं ।।

गोपी ग्वाल बालनि के उमड़त आँसू देखि 

लेखि प्रलयागम हूँ नैकु डरते नहीं ।

होती चित चाब जौ न रावरे चितावन को 

तजि ब्रज-गाँव इतै पाँव धरते नहीं ।।11।।


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने उद्धव के ऊपर गोपियों एवं ब्रजवासियों के प्रभाव तथा उनके प्रति असीम प्रेम का वर्णन किया है।


व्याख्या:–

 ब्रज से लौटकर आए हुए उद्धव गोपियों एवं ब्रजवासियों के प्रेम से प्रभावित होकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि वे (उद्धव) यमुना नदी के सुन्दर किनारे पर ही कहीं अपनी कुटिया बना लेते एवं उस सुन्दर रेतीले किनारे को छोड़कर कहीं और नहीं जाते। गोपियों के प्रेम में डूबे हुए उद्धव अपने कानों से गोपियों की रसपूर्ण कथा को छोड़कर किसी अन्य रसपूर्ण कथा को नहीं सुनते और अपनी जिह्वा से गोपियों की कथा को छोड़कर किसी अन्य की कथा नहीं सुनाते। । उद्धव श्रीकृष्ण से यह कह रहे हैं कि गोपियों की आँखों से निकलते हुए आँसुओं को देखकर अब वे प्रलय के आगमन से भी भयभीत ही होंगे। उनके कहने का आशय यह है कि गोपियों के अश्रु-प्रवाह प्रलयकालीन जल से भी भयावह प्रतीत होता था। उद्धव कहते हैं कि श्रीकृष्ण! यदि मेरे मन में आपको सजग करने की इच्छा नहीं होती तो मैं ब्रज से मथुरा की ओर पैर नहीं रखता अर्थात् ब्रज में ही रह जाता, कभी मथुरा लौट कर नहीं आता।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – ब्रजभाषा ।

छन्द – मनहरण सवैया ।

अलंकार – अनुप्रास, प्रतीप एवं लोकोक्ति ।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।

शैली – मुक्तक।




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