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पवन-दूतिका व्याख्या | "मेरे प्यार नव जलद से कंज से नेत्रवाले..." पद्यांश की सन्दर्भ सहित व्याख्या | हरिऔध काव्य व्याख्या

पवन-दूतिका व्याख्या | ‘मेरे प्यार नव जलद से कंज से नेत्रवाले’ पद्यांश की व्याख्या

सन्दर्भ:
प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

प्रसंग:
प्रस्तुत पद्यांश में राधा के द्वारा पवन को दूतिका मानकर कृष्ण के लिए सन्देश भेजा जा रहा है। वे पवन से मार्ग में पड़ने वाली सुष्मा का वर्णन करते हुए, उसे उससे प्रभावित नहीं होने के लिए कहती हैं।

पद्यांश:
२. मेरे प्यार नव जलद से कंज से नेत्रवाले।
जाके आए न मधुबन से औ न भेजा सँदेसा।।
मैं रो रो के प्रिय-विरह से बावली हो रही हूँ।
जा के मेरी सब दु:ख कथा श्याम को तू सुना दे।
ज्यों ही मेरा भवन तज तू अल्प आगे बढ़ेगी।
शोभावाली सुखद कितनी मंजु कँजें मिलेंगी।
प्यारी छाया मृदुल स्वर से मोह लेंगी तुझे वे।
तो भी मेरा दुःख लख वहाँ जा न विश्राम लेना।।

व्याख्या:
पवन से अपनी विरह-व्यथा बताती हुई राधा कहती हैं कि नवीन बादल से शोभायमान एवं कमल समान सुन्दर नेत्रों वाले मेरे प्रियतम कृष्ण ब्रज के इस वन (मधुबन) को छोड़कर जाने के पश्चात् फिर यहाँ नहीं आए और न तो उन्होंने मेरे लिए कोई सन्देश ही भेजा। उनसे बिछड़ कर मेरी दशा अत्यन्त दयनीय हो गई है। मैं रोते-रोते पागल हो रही हूँ। अतः तुम जाकर मेरे इन दु:खों से उन्हें अवगत कराना।

राधा पवन से रास्ते में आने वाले विभिन्न प्राकृतिक सौन्दर्य से सचेत रहने के लिए कहते हुए आगे कहती हैं कि मेरे घर से कुछ ही दूर जाने के बाद तुम्हें अत्यन्त मनोहारी और सुख प्रदान करने वाली कुंजे मिलेंगी। वहाँ की शीतल छाया एवं जल-प्रवाह व पक्षियों के कलरव की मधुर ध्वनियाँ तुम्हें अपनी ओर आकर्षित करेंगी, किन्तु मेरे दुःख को ध्यान में रखकर तुम वहाँ विश्राम न करने लगना।

काव्यगत सौन्दर्य:
भाषा – खड़ीबोली।
शैली – प्रबन्ध।
छन्द – मन्दाक्रान्ता।
अलंकार – उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, अन्त्यानुप्रास एवं मानवीकरण।
गुण – प्रसाद।
शब्द शक्ति – अभिधा।


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