Class 9 Hindi Chapter 9 सोहनलाल द्विवेदी उन्हें प्रणाम संदर्भ सहित व्याख्या:-
1. भेद गया है दीन-अश्रु से जिनका मर्म,
मुहताजों के साथ न जिनको आती शर्म,
किसी देश में किसी वेश में करते कर्म,
मानवता का संस्थापन ही है जिनका धर्म!
ज्ञात नहीं हैं जिनके नाम !
उन्हें प्रणाम! सतत प्रणाम !
शब्दार्थ-मर्म = हृदय। मुहताजों = निर्धन, परमुखापेक्षी संस्थापन = स्थापना सतत = निरन्तर, लगातार।
सन्दर्भ –
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में संगृहीत ‘उन्हें प्रणाम’ नामक शीर्षक कविता से उद्धृत किया गया है। इसके रचयिता पं० सोहनलाल द्विवेदी हैं। पाठ्य-पुस्तक में प्रस्तुत रचना ‘जय भारत जय’ काव्य संग्रह से उद्धृत की गयी है।
प्रसंग –
इस पद्यांश में कवि ने ऐसे अज्ञात नामवाले महापुरुषों को प्रणाम निवेदित किया है, जो सदैव दीन-दुःखियों के सहयोगी बन मानवता के उपासक रहे हैं।
व्याख्या –
पं० सोहनलाल द्विवेदी कहते हैं कि वे महापुरुष जिनका हृदय निर्धनों के दु:ख से बिंध गया है, जिनको निर्धन-दलितों के साथ रहते हुए भी लज्जा अनुभव नहीं होती, वे चाहे जिस देश में रहें और चाहे जिस वेश में, हमेशा कर्मरत रहते हैं तथा मानवता की स्थापना को ही अपनी सच्चा धर्म समझते हैं, ऐसे अज्ञात नामवाले महापुरुषों को मेरा निरन्तर नमन है, नमन है।
काव्यगत सौन्दर्य :-
भाषा-शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली
शैली- भावात्मक
छन्द - मात्रिक छन्द
रस-शान्त।
गुण-प्रसाद
अलंकार- अनुप्रास एवं पुनरुक्तिप्रकाश।
शब्द-शक्ति–अभिधा।
2. कोटि-कोटि नंगों, भिखमंगों के जो साहथ,
खड़े हुए हैं कंधा जोड़े, उन्नत माथ,
शोषित जन के, पीड़ित जन के, कर को थाम,
बढ़े जा रहे उधर जिधर है मुक्ति प्रकाम!
ज्ञात और अज्ञात मात्र ही जिनके नाम!
वन्दनीय उन सत्पुरुषों को सतत प्रणाम!
शब्दार्थ-कोटि-कोटि = करोड़ों। उन्नत माथ = मस्तक ऊँचा किये हुए। प्रकाम = पूरी तरह, सम्पूर्ण । सत्पुरुषों = सज्जनों ।।
सन्दर्भ –
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित एवं सोहनलाल द्विवेदी द्वारा रचित ‘उन्हें प्रणाम शीर्षक से उधृत है।
प्रसंग –
प्रस्तुत पद्यांश में कवि दीन-हीन लोगों का उद्धार और सहायता करनेवाले सत्पुरुषों को श्रद्धा अर्पित कर रहा है।
व्याख्या –
कवि कहता है कि वे सत्पुरुष जो करोड़ों नंगे और भिखमंगे अर्थात् समाज द्वारा दलित-पीड़ित लोगों का साथ देते हैं तथा उन्नत मस्तक कर उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलते हैं-ऐसे दलितों के साथ रहकर लज्जा न अनुभव करनेवाले सत्पुरुषों को मेरा नमस्कार है। जो शोषित और सताये हुए लोगों के हाथों को पकड़कर उन्हें उधर लिये आ रहे हैं जिधर पूर्ण स्वच्छता और स्वतन्त्रता है ऐसे ज्ञात और अज्ञात नामवाले आदरणीय उन सत्पुरुषों को मैं निरन्तर प्रणाम करता हूँ।
काव्यगत सौन्दर्य :-
शैली-ओजपूर्ण
रस-वीर।
गुण-ओज।
अलंकार-अनुप्रास एवं पुनरुक्तिप्रकाश।
शब्द-शक्ति–अभिधा।।
3. जिनके गीतों के पढ़ने से मिलतीशान्ति,
जिनकी तानों के सुनने से झिलती भ्रान्ति,
छा जाती मुखमण्डल पर यौवन की कान्ति,
जिनकी टेकों पर टिकने से टिकती क्रान्ति।
मरण मधुर बन जाता है जैसे वरदान,
अधरों पर खिल जाती है मादक मुस्कान,
नहीं देख सकते जग में अन्याय वितान,
प्राण उच्छ्वसित होते, होने को बलिदान!
जो घावों पर मरहम का कर देते काम!
उन सहृदय हृदयों को मेरे कोटि प्रणाम!
सन्दर्भ –
पूर्ववत्त्।
प्रसंग –
कवि उन गीतकारों की प्रशंसा कर रहा है जिनके गीत जनसाधारण के हृदयों को शान्ति, उत्साह एवं बलिदानी भावना प्रदान करते हैं।
व्याख्या –
जिन गीतकारों के गीत मन को शान्ति प्रदान करते हैं, जिनके गीतों की तानें भ्रम को नष्ट कर देती हैं, जिनके स्वर मुरझाये मुखों पर जवानी की चमक उत्पन्न कर देते हैं और जिनके गीतों की टेक (स्थायी पंक्ति) मन में क्रान्ति-भावना को स्थायी बना देती है अथवा जिनके दृढ़ संकल्पों का आश्रय लेने से क्रान्तियाँ स्थायी हुआ करती हैं। जो मृत्यु का भी एक मधुर वरदान के समान स्वागत करते हैं, मृत्यु को सामने देख जो भयभीत नहीं होते अपितु मनमोहिनी मुस्कराहट लिये चलने को प्रस्तुत रहते हैं, जो संसार में अन्याय का विस्तार होते नहीं देख सकते, जिनके प्राण सदैव बलिदान होने को उमगते रहते हैं।
4. उन्हें जिन्हें है नहीं जगत् में अपना काम,
राजा से बन गये भिखारी तज आराम,
दर-दर भीख माँगते सहते वर्षा घाम,
दो सूखी मधुकरियाँ दे देतीं विश्राम!
जिनकी आत्मा सदा सत्य का करती शोध,
जिनको है अपनी गौरव गरिमा का बोध,
जिन्हें दुःखी पर दया, क्रूर पर आता क्रोध
अत्याचारों का अभीष्ट जिनको प्रतिशोध!
उन्हें प्रणाम! सतत प्रणाम!
जो निर्धन के धन निर्बल के बल अविराम!
उन नेताओं के चरणों में कोटि प्रणाम!
सन्दर्भ –
पूर्ववत्।
प्रसंग –
कवि आदर्श नेताओं के लक्षण बताते हुए उनको सादर प्रणाम कर रहा है।
व्याख्या –
कवि कहता है-जो दु:खियों के हृदयों को सांत्वना देकर उसी प्रकार सुखी बनाया करते हैं जिस प्रकार घाव पर मरहम लगाने से पीड़ित व्यक्ति को चैन मिला करता है, ऐसे संवेदनशील पुरुषों को कवि करोड़ों बार प्रणाम करती है। जिन जननायकों को संसार में अपने लिए कोई भी काम नहीं करना होता, जो सदा दूसरों ही के लिए काम किया करते हैं, जन-सेवा के लिए जिन्होंने आराम त्याग दिया है और अपना सब कुछ दान करके भिखारी जैसा जीवन अपना लिया है, जो दूसरों के लिए द्वार-द्वार भिक्षा माँगा करते हैं, वर्षा और धूप की भी चिन्ता नहीं करते, केवल दो सूखी रोटियों पर ही जो सन्तोष कर लेते हैं, जो निरन्तर सत्य की खोज में लगे रहते हैं, जो अपने देश और अपनी महान् संस्कृति के गौरव को सदा ध्यान में रखते हैं, जो दुःखियों पर दया करते हैं और निर्दयी तथा कठोर हृदय के लोगों पर क्रोध प्रदर्शित किया करते हैं, जो अत्याचारों का बदला लेना उचित समझते हैं, ऐसे महापुरुषों को प्रणाम है, निरन्तर प्रणाम है। जो निर्धनों के लिए धन और निर्बलों के लिए बल बनकर निरन्तर सेवारत हैं, ऐसे सच्चे नेताओं के चरणों में मैं सैकड़ों बार प्रणाम करता हूँ।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा सरल, साहित्यिक खड़ीबोली है।
शैली भावात्मक है।
अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश तथा मानवीकरण अलंकार है।।
5. मातृभूमि का जगा जिन्हें ऐसा अनुराग!
यौवन में ही लिया जिन्होंने है वैराग,
नगर-नगर की ग्राम-ग्राम की छानी धूल
समझे जिससे सोई जनता अपनी भूल!
जिनको रोटी नमक न होता कभी नसीब,
जिनको युग ने बना रखा है सदा गरीब,
उन मूों को विद्वानों को जो दिन-रात,
इन्हें जगाने को फेरी देते हैं प्रात,
जगा रहे जो सोये गौरव को अभिराम!
उस स्वदेश के स्वाभिमान को कोटि
सन्दर्भ –
पूर्ववत्।
प्रसंग –
प्रस्तुत पद्यांश में पं० सोहनलाल द्विवेदी ने ऐसे देशभक्तों को प्रणाम निवेदित किया है जो निर्धनों में चेतना जागृत करते हैं।
व्याख्या –
पं० सोहनलाल द्विवेदी कहते हैं कि ऐसे देशभक्तों को मेरा प्रणाम है जिनके हृदय में मातृभक्ति का ऐसा प्रेम जागृत हुआ किजिसके कारण युवावस्था में ही जिन्होंने संन्यास ले लिया। इन राष्ट्रभक्तों ने अज्ञान में पड़ी हुई जनता को उसकी भूल का अनुभव कराने के लिए प्रत्येक नगर और गाँव की धूल छान मारी अर्थात् अनेक बार प्रत्येक नगर और गाँव में चेतना जागृत करने के लिए घूमे। | ऐसे व्यक्तियों जिनको सामान्य भोजन रोटी और नमक तक उपलब्ध नहीं होता तथा युगीन समाज ने शोषण करके जिनको सदैव निर्धन बनाये रखा है, ऐसे लोगों को जगाने के लिए अपने ध्येय की मूर्खता तक पहुँचे हुए लोगों एवं विद्वानों को जो इन्हें जगाने के लिए दिन-रात एवं प्रात: ही फेरी लगाते हैं-उन्हें प्रणाम है। जो देश के सोए हुए गौरव को निरन्तर जगा रहे हैं ऐसे स्वदेश के स्वाभिमानी महापुरुषों को मेरा करोड़ों बार प्रणाम है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा-साहित्यिक खड़ीबोली।
रस- शान्त रस है।
गुण–प्रसाद
अलंकार- पुनरुक्तिप्रकाश , अनुप्रास ।
शब्द-शक्ति-लक्षणा एवं व्यंजना।
6. जंजीरों में कसे हुए सिकचों के पार
जन्मभूमि जननी की करते जय-जयकार
सही कठिन, हथकड़ियों की, बेतों की मार
आजादी की कभी न छोड़ी टेक पुकार !
स्वार्थ, लोभ, यश कभी सका है जिन्हें न जीत
जो अपनी धुन के मतवाले मन के मीत
ढाने को साम्राज्यवाद की दृढ़ दीवार
बार-बार बलिदान चढ़े प्राणों को वार!
बंद सिकचों में जो हैं अपने सरनाम
धीर, वीर उन सत्पुरुषों को कोटि प्रणाम!
उन्हीं कर्मठों, ध्रुव धीरों को है प्रतियाम!
कोटि प्रणाम!
सन्दर्भ –
पूर्ववत्।
प्रसंग –
प्रस्तुत पद्यांश में पं० सोहनलाल द्विवेदी ने जेल की यातनाएँ सहकर भी अपने लक्ष्य से न भटकने वाले धीर-वीरों को श्रद्धा अर्पित की है।
व्याख्या –
प्रस्तुत पद्यांश में पं० सोहनलाल द्विवेदी ने उन स्वतन्त्रता सेनानियों को प्रणाम निवेदित किया है जो अनेक कष्ट आने पर भी अपनी टेक नहीं छोड़ते थे, जो अपने विचार के पक्के थे। कवि कहता है कि स्वतन्त्रता के दीवाने जंजीरों में कसे हुए और जेल के सींखचों के भीतर अर्थात् जेल में पड़े हुए भी भारतमाता– अपनी जन्मभूमि की जय-जयकार करते रहते थे। उनके हाथ-पैरों में कठोर हथकड़ियाँ पहनायी जाती थीं, उन्हें बेंतों से मारा जाता था। इन सबको सहते हुए उन्होंने कभी भी आजादी के संकल्प और नारे को नहीं त्यागा। ऐसे उन वीरों को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है।
इन लोगों को स्वार्थ, लोभ एवं यश की चाह कभी भी जीत नहीं सकी। वे इनसे कभी विचलित नहीं हुए। अपने मन के अनुसार कार्य करनेवाले ये लोग धुन के पक्के थे अर्थात् जो बात मन में ठान लेते थे वही करते थे। उनकी अपनी एक ही धुन थी कि हमारा देश स्वतन्त्र हो
अंग्रेजी साम्राज्यवाद की दीवार को ढहाने के लिए अर्थात् अंग्रेजी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए ये लोग प्राणों को न्योछावर करके बलिदानी बने। इनका एक ही संकल्प था कि इन दीवारों को तोड़कर फेंक दिया जाये। निरन्तर सीखचों में बन्द रहनेवाले इन वीरों का यश आज भी फैला हुआ है। ऐसे धीर, वीर उन महापुरुषों को मैं करोड़ों बार प्रणाम करता हूँ। ऐसे ही कर्मशील, दृढ़ निश्चयी एवं धैर्यशाली वीरों को हर समय मेरा करोड़ों बार प्रणाम स्वीकार हो।
काव्यगत सौन्दर्य :-
भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली।
शैली-ओजपूर्ण, संस्मरणपरक
रस- वीर।
गुण-ओज
अलंकार-अनुप्रास और रूपक।
शब्द-शक्ति-लक्षणी।
7. जो फाँसी के तख्तों पर जाते हैं झूम,
सन्दर्भ –
पूर्ववत्।
प्रसंग –
पं० सोहनलाल द्विवेदी ने उन वीरों को प्रणाम निवेदित किया है जिनके कारण मंगलमय दिन आते हैं और पीड़ित मानवता की उन्नति होती है।
व्याख्या –
पं० सोहनलाल द्विवेदी कहते हैं कि वे स्वतन्त्रता सेनानी जो देश की आजादी के लिए फाँसी के फंदे पर झूल गये, जिन्होंने हँसते-हँसते इस शूली को चूमा-ऐसे उन वीरों को मेरा प्रणाम है। गुरुगोविन्द सिंह के वे दोनों मासूम वीर बालक जिन्हें औरंगजेब ने दीवार में चिनवा दिया, फिर भी अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे और विष का धुआँ चुपचाप पी गये अर्थात् मृत्यु को गले लगा लिया-उन दोनों वीर बालकों को भी मेरा प्रणाम है। उन स्वतन्त्रता सेनानियों के कारण ही यह सुखद वर्तमान है तथा अलौकिक एवं सुखद भविष्य भी आयेगा। इन वीरों के बलिदान की पवित्र ज्वाला में सारे पाप जल जायेंगे। सभी लोग स्वतन्त्र होंगे, सभी सुखी होंगे और इस पृथ्वी पर सुख और चैन होगा। नये युग के प्रात:काल की सुन्दर किरण भी इन्हीं के कारण होगी। चारों ओर जो प्रगति और सुख का प्रकाश होगा, वह इन्हीं वीर सेनानियों के बलिदानों के कारण ही होगा। सभी मंगल और सुख को लानेवाले उस दिन को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है जो इन वीरों के बलिदान का परिणाम होगा। सभी की उन्नति, सुख और अत्यधिक शान्ति भारत में विहंस रही होगी। यह सब इन वीरों के कारण ही होगी। अत: इस मंगलमय दिन और इन वीरों को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम स्वीकार हो।
काव्यगत सौन्दर्य :-
भाषा – सरल साहित्यिक
खड़ीबोली।
शैली – ओजपूर्ण।
रस – वीर एवं शान्त
गुण – ओज एवं प्रसाद
अलंकार – यमक, रूपक, पुनरुक्ति प्रकाश, अनुप्रास एवं मानवीकरण।
शब्दशक्ति – लक्षणा एवं व्यंजना।
0 Comments