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Class 9 Hindi Chapter 10 हरिवंशराय बच्चन पथ की पहचान सन्दर्भ साहित व्याख्या

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Class 9 Hindi Chapter 10 हरिवंशराय बच्चन पथ की पहचान सन्दर्भ साहित व्याख्या:-


1.  पूर्व चलने के बटोही,

     बाट की पहचान कर ले।
                                       पुस्तकों में है नहीं
                                 छापी गयी इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता
है न औरों की जबानी,
                            अनगिनत राही गये इस
                             राह से, उनका पता क्या,
पर गये कुछ लोग इस पर
छोड़ पैरों की निशानी,
                           यह निशानी मूक होकर
                           भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ, पंथी,
पंथ का अनुमान कर ले।
                              पूर्व चलने के बटोही,
                              बाट की पहचान कर ले।


शब्दार्थ-बटोही = राहगीर। बाट = रास्ता । पंथी = पथिक। पंथ = मार्ग। 


सन्दर्भ-

यह पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में हरिवंशराय बच्चन की कविता ‘पथ की पहचान’ से उद्धृत है।



प्रसंग – 

इसमें कवि चाहता है कि हमें कोई भी कार्य सोच-विचारकर करना चाहिए। लक्ष्य चुन लेने के बाद उस काम की कठिनाइयों से नहीं घबराना चाहिए।


व्याख्या –

 कवि कहता है कि हमारे जीवन-पथ की कहानी पुस्तकों में नहीं लिखी होती है, वह तो हमें स्वयं ही बनानी पड़ती है, दूसरे लोगों के कथन के अनुसार भी हम अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित नहीं कर सकते। इसका निर्धारण हमें स्वयं ही करना पड़ेगा। इस संसार में अनेक लोग पैदा हुए और मर गये। उन सबकी गणना नहीं की जा सकती, परन्तु कुछ ऐसे कर्मवीर भी यहाँ जन्मे हैं जिनके पदचिह्न मौन भाषा में उनके महान् कार्यों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं। उन सभी कर्मठ महापुरुषों ने काम करने से पहले खूब सोच-विचार किया और फिर जी-जान से अपने कार्य में जुटकर सफलता प्राप्त की। अतः हे राहगीर, उनसे प्रेरणा ग्रहण कर अपना मार्ग निश्चित कर ले और तब उस पर चलना शुरू कर।


काव्यगत सौन्दर्य :-

भाषा-सरल तथा खड़ीबोली।

शैली-गीत शैली।

रस-शान्त।

अलंकार-विरोधाभास



2.                        यह बुरा है या कि अच्छा,

                           व्यर्थ दिन इस पर बिताना

                          अब असंभव, छोड़ यह पथ

                           दूसरे पर पग बढ़ाना,

                            तू इसे अच्छा समझ,

                            यात्रा सरल इससे बनेगी,

                              सोच मत केवल तुझे ही

                              यह पड़ा मन में बिठाना,

                              हर सफल पंथी, यही

                              विश्वास ले इस पर बढ़ा है,

                              तू इसी पर आज अपने

                              चित्त का अवधान कर ले।

                                पूर्व चलने के बटोही,

                             बाट की पहचान कर ले।


सन्दर्भ – 

प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में हरिवंशराय बच्चन द्वारा रचित ‘पथ की पहचान’ शीर्षक कविता से उद्धृत हैं।


प्रसंग –

 कवि बताता है कि विवेकपूर्वक किसी कार्य को चुन लेने पर उसके मार्ग में आनेवाली कठिनाइयों या अन्य कारणों से उसे अधूरा छोड़ देना ठीक नहीं है।


व्याख्या – 

कवि कहता है कि विवेकपूर्ण कार्य का चुनाव करने के पश्चात् उसकी अच्छाई-बुराई पर सोचना व्यर्थ है-क्योंकि उस पथ को छोड़कर दूसरे पर चलना भी सम्भव नहीं हो सकेगा। कठिनाइयाँ तो हर मार्ग में होती हैं। इसलिए हे पंथी, अपने निश्चित कार्य को श्रेष्ठ समझकर उसे तुरन्त शुरू कर दे। यह कार्य करते समय तुझे आनन्द की अनुभूति होती रहेगी। ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि कठिनाइयाँ तुझे ही उठानी पड़ रही हैं। वास्तविकता यह है कि जीवन में जिसे भी सफलता मिली है, वह अपने कार्य को श्रेष्ठ समझता रहा है। इसलिए तुम भी अपने कार्य को श्रेष्ठ समझो। सोच-विचार करना है तो कार्य का चुनाव करने से पहले किया करो।


काव्यगत सौन्दर्य :-

भाषा-सरल- सुबोध खड़ीबोली।

शैली-प्रवाहपूर्ण गीत शैली।

रस-शान्त

शब्द-शक्ति-लक्षणा।

अलंकार-अनुप्रास।



3. है अनिश्चित किस जगह पर सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे

    है अनिश्चित, किस जगह पर बाग, बन सुन्दर मिलेंगे।

किस जगह यात्रा खतम हो

जाएगी, यह भी अनिश्चित,

        है अनिश्चित, कब सुमन, कब कंटकों के शर मिलेंगे,

               कौन सहसा छूट जाएँगे मिलेंगे कौन सहसा,

             आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले।

पूर्व चलने के बटोही,

बाट की पहचान कर ले।



शब्दार्थ-सरिता = नदी गह्वर = गुफा। शर = बाण आन = प्रतिज्ञा। बाट = मार्ग।



सन्दर्भ – 

पूर्ववत्त्।


प्रसंग – 

इसमें कवि जीवन-पथ में आनेवाले सुख-दु:खों के प्रति सचेत करता हुआ मनुष्य को निरन्तर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दे रहा है।


व्याख्या –

 कवि कहता है कि हे जीवन-पथ के मुसाफिर ! यह नहीं बताया जा सकता है कि तेरे मार्ग में किस स्थान पर नदी, पर्वत और गुफाएँ मिलेंगी । तेरे मार्ग में कब कठिनाइयाँ और बाधाएँ आयेंगी, यह नहीं कहा जा सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि तेरे जीवन के मार्ग में किस स्थान पर सुन्दर वन और उपवन मिलेंगे। तेरे जीवन में कब सुख-सुविधाएँ प्राप्त होंगी। यह भी निश्चित नहीं कहा जा सकता कि कब तेरी जीवन-यात्रा समाप्त होगी और कब तेरी मृत्यु होगी।

कवि आगे कहता है कि यह बात भी अनिश्चित है कि मार्ग में कब तुझे फूल मिलेंगे और कब काँटे तुझे घायल करेंगे। तेरे जीवन में कब सुख प्राप्त होगा और कब दु:ख-यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि तेरे जीवन-मार्ग में कौन परिचित व्यक्ति मिलेंगे और कौन प्रियजन अचानक तुझे छोड़ जायेंगे। हे पथिक! तू अपने मन में प्रण कर ले कि जीवन की कठिनाइयों की परवाह न करके तुझे आगे बढ़ते जाना है।

हे जीवन-पथ के यात्री! तू पथ पर चलने से पूर्व जीवन में आनेवाले सुख-दुःख को भली-भाँति जानकर अपने मार्ग की पहचान कर ले।


काव्यगत सौन्दर्य :-

भाषा-सरल खड़ीबोली।

शैली–प्रतीकात्मक, वर्णनात्मक।

रस-शान्त

शब्दशक्ति-लक्षणा।

अलंकार-अनुप्रास, रूपक।



4.                                       कौन कहता है कि स्वप्नों
                                             को न आने दे हृदय में,
                                              देखते सब हैं इन्हें
                                         अपनी उमर, अपने समय में,
                                             और तू कर यत्न भी तो
                                        मिल नहीं सकती सफलता,
                                          ये उदय होते, लिये कुछ
                                          ध्येय नयनों के निलय में,
                                          किन्तु जग के पंथ पर यदि
                                          स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,
                                          स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो,
                                          सत्य का भी ज्ञान कर ले।
                                            पूर्व चलने के बटोही,
                                          बाट की पहचान कर ले।




शब्दार्थ-यत्न = प्रयत्न, कोशिश। ध्येय = लक्ष्य निलय = घर, नीड़, घोंसला । मुग्ध होना = रीझना।


सन्दर्भ – 

पूर्ववत्त्।


प्रसंग – 

यथास्थिति और मनुष्य की महत्त्वाकांक्षा में क्या तालमेल होना चाहिए-इन पंक्तियों में इस समस्या का समाधान प्रस्तुत किया गया है।


व्याख्या – 

हे पथिक! तुमसे ऐसा किसी ने नहीं कहा है कि तुम अपने मन में स्वप्नों अर्थात् मधुर कल्पनाओं को न लगाओ। सब लोगों की अपनी-अपनी स्वप्निल कल्पनाएँ होती हैं। अपनी-अपनी उम्र और अपने-अपने समय में सभी ने इन्हें देखा है और अपने मन में उन्हें जगह दी है। हे पथिक! तू प्रयत्न करने पर भी इसमें सफल नहीं हो सकता कि तेरी कल्पनाएँ। मन में न उठे। ये स्वप्न, ये कल्पनाएँ व्यर्थ नहीं होतीं, इनका भी अपना लक्ष्य या ध्येय होता है। ये स्वप्न जबे आँखों के नीड़ में उपजते हैं, तब उनका अपना ध्येय होता है, ये व्यर्थ नहीं जाते, किन्तु स्वप्नों से यथार्थ को झुठलाया नहीं जा सकता। कारण यह है कि स्वप्न या कल्पनाएँ जीवन में बहुत कम हैं, उनके सामने यथार्थ सत्य अनगिनत हैं। सत्य का मुकाबला कल्पनाओं से मत करो। संसार के रास्ते में यदि स्वप्न दो हैं, तो सत्य दो-सौ अर्थात् कल्पनाएँ बहुत कम हैं, यथार्थ बहुत अधिक हैं। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि तुम कल्पनाओं पर ही मत रीझते रहो वरन् सत्य क्या है-इसका भी निर्धारण कर लो। हे पथिक! चलने से पहले अपने रास्ते की पहचान कर लो।


काव्यगत सौन्दर्य :-


भाषा-साहित्यिक हिन्दी।

रस-शान्त।

गुण-प्रसाद

अलंकार-रूपक तथा अनुप्रास



5.                       स्वप्न आता स्वर्ग का, दृग-

                         कोरकों में दीप्ति आती,
                         पंख लग जाते पगों को,
                         ललकती उन्मुक्त छाती,
रास्ते का एक काटा
पाँव का दिल चीर देता,
                         रक्त की दो बूंद गिरती,
                         एक दुनिया डूब जाती,
                         आँख में हो स्वर्ग लेकिन
                         पाँव पृथ्वी पर टिके हों,
                         कंटकों की इस अनोखी
                         सीख का सम्मान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही,
बाट की पहचान कर ले।


शब्दार्थ-ललकती = लालायित होती है उन्मुक्त = स्वच्छन्द। दृग कोरकों = आँख के कोने ।



सन्दर्भ – 

पूर्ववत्त्।


प्रसंग – 

इस पद में कवि पथिक को सम्बोधित करते हुए किसी भी मार्ग पर अग्रसर होने से पूर्व उसमें आनेवाली कठिनाइयों के प्रति आगाह कर देना चाहता है। कोरी भावुकता के प्रवाह में आकर किसी मार्ग पर चल पड़नी उचित नहीं है। कवि कहता है|


व्याख्या –

 हे पथिक ! भावुकता के आवेश में आकर किसी मार्ग पर अग्रसर होने से पूर्व हम स्वर्ग का सपना देखने लगते हैं। प्रसन्नता के कारण हमारी आँखें चमक उठती हैं। उस समय कल्पना लोक की उड़ान भरने के लिए हमारे पैरों में पंख लग जाते हैं। छाती उन्मुक्त हो उत्साह से भर जाती है। किन्तु ठीक उसी प्रकार राह का एक मामूली-सा काँटा पाँवों में चुभ जाता है और खुन की दो बूंदों के बहने से ही सारी कल्पना की दुनिया ही उसमें डूब जाती है अर्थात् मार्ग में मामूली अवरोध उत्पन्न हो जाने मात्र से ही सारी मजा किरकिरा हो जाता है। अत: पाँवों के काँटे चुंभकर ये शिक्षा देते हैं कि भले ही तुम्हारी आँखों में स्वर्ण के सजीले सपने क्यों न हों किन्तु तुम्हें अपने पैरों को पृथ्वी पर सुरक्षित टिकाना चाहिए अर्थात् मस्तिष्क में भले ही कल्पना की ऊँची उड़ाने क्यों न हों, किन्तु व्यावहारिक जगत् की उपयोगिता कदापि भूलनी नहीं चाहिए। हमें पथ के चुभे काँटों की इस शिक्षा का सदैव सम्मान करना चाहिए। किसी मार्ग पर अग्रसर होने से पूर्व उस मार्ग की पूरी जानकारी अवश्य कर लेनी चाहिए।


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