Class 9 Hindi Chapter 11 नागार्जुन बादल को घिरते देखा है सन्दर्भ साहित व्याख्या:-
1. अमल-धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे, अतिशय शीतल वारि कणों को
मानसरोवर के उन स्वर्णिम-कमलों पर गिरते देखा है।
तुंग हिमाचल के कंधों पर छोटी बड़ी कई झीलों के
श्यामल शीतल अमल सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त मधुर बिसतंतु खोजते, हंसों को तिरते देखा है।
शब्दार्थ-अमल = निर्मल। धवल = सफेद शिखर = चोटी स्वर्णिम = सुनहले। तुंग = ऊँचा। ऊमस = गर्मी । पावस = वर्षा तिक्त = कसैला। बिसतन्तु = कमलनाल के अन्दर के कोमल रेशे। तिरते = तैरते हुए।
सन्दर्भ –
प्रस्तुत काव्य-पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में जनकवि नागार्जुन द्वारा रचित ‘बादल को घिरते देखा है’ नामक कविता से अवतरित हैं। यह कविता उनके काव्य-संग्रह ‘प्यासी-पथराई आँखें’ में संकलित है।
प्रसंग –
इस स्थल पर कवि ने हिमालय के वर्षाकालीन सौन्दर्य का चित्रण किया है।
व्याख्या –
कवि का कथन है कि मैंने निर्मल, चाँदी के समान सफेद और बर्फ से मण्डित पर्वत की चोटियों पर घिरते हुए बादलों के मनोरम दृश्य को देखा है। मैंने मानसरोवर में खिलनेवाले स्वर्ण-जैसे सुन्दर कमल-पुष्पों पर मोती के समान चमकदार अत्यधिक शीतल जल की बूंदों को गिरते हुए देखा है।
कवि हिमालय की प्राकृतिक सुषमा का अंकन करते हुए कहता है कि उस पर्वत-प्रदेश में हिमालय के ऊँचे शिखररूपी कन्धों पर छोटी-बड़ी अनेक झीलें फैली हुई हैं। मैंने उन झीलों के नीचे शीतल, स्वच्छ, निर्मल जल में ग्रीष्म के ताप के कारण व्याकुल और समतल क्षेत्रों से आये (अर्थात् मैदानों से आये हुए) हंसों को कसैले और मधुर कमलनाल के तन्तुओं को खोजते हुए और उन झीलों में तैरते हुए देखा है।
काव्यगत सौन्दर्य :-
गुण–माधुर्य।
रस-श्रृंगार।
शब्द-शक्ति-लक्षणा।
अलंकार-अनुप्रास, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपकातिशयोक्ति।
2. एक-दूसरे से वियुक्त हो
शैवालों की हरी दरी पर,
प्रणय-कलह चिढ़ते देखा है।
सन्दर्भ –
पूर्ववत्त्।
प्रसंग –
इनमें कवि ने हिमालय के मोहक दृश्यों का चित्रण किया है।
व्याख्या –
कवि कहता है कि चकवा-चकवी आपस में एक-दूसरे से अलग रहकर सारी रात बिता देते हैं। किसी शाप के कारण वे रात्रि में मिल नहीं पाते हैं। विरह में व्याकुल होकर वे क्रन्दन करने लगते हैं। प्रात: होने पर उनका क्रन्दन बन्द हो जाता है और वे मानसरोवर के किनारे मनोरम दृश्य में एक-दूसरे से मिलते हैं और हरी घास पर प्रेम-क्रीड़ा करते हैं। महाकवि कालिदास द्वारा मेघदूत महाकाव्य में वर्णित अपार धन के स्वामी कुबेर और उसकी सुन्दर अलका नगरी अब कहाँ है? आज आकाश मार्ग से जाती हुई पवित्र गंगा का जल कहाँ गया? बहुत हूँढ़ने पर भी मुझे मेघ के उस दूत के दर्शन नहीं हो सके। ऐसा भी हो सकता है कि इधर-उधर भटकते रहनेवाला यह मेघ पर्वत पर यहीं कहीं बरस पड़ा हो। छोड़ो, रहने दो, यह तो कवि की कल्पना थी। मैंने तो गगनचुम्बी कैलाश पर्वत के शिखर पर भयंकर सर्दी में विशाल आकारवाले बादलों को तूफानी हवाओं से गरजे-बरस कर संघर्ष करते हुए देखा है। हजारों फुट ऊँचे पर्वत-शिखर पर स्थित बर्फानी घाटियों में जहाँ पहुँचना बहुत कठिन होता है, कस्तूरी मृग अपनी नाभि में स्थित अगोचर कस्तूरी की मनमोहक सुगन्ध से उन्मत्त होकर इधर-उधर दौड़ता रहता है। निरन्तर भाग-दौड़ करने पर भी जब वह उसे कस्तूरी को प्राप्त नहीं कर पाता तो अपने-आप पर झुंझला उठता है।
काव्यगत सौन्दर्य :-
भाषा-तत्सम प्रधान खड़ीबोली।
रस-श्रृंगार।
गुण-माधुर्य।
अलंकार-अनुप्रास।
(3) कहाँ गया धनपति कुबेर वह,
कहाँ गयी उसकी वह अलका?
नहीं ठिकाना कालिदास के,
व्योम-वाहिनी गंगाजल का।
ढूँढा बहुत परन्तु लगा क्या, मेघदूत का पता कहीं पर!
कौन बताये वह यायावर, बरस पड़ा होगा न यहीं पर।
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में, नभचुम्बी कैलाश शीर्ष पर
महामेघ को झंझानिल से, गरज-गरज भिड़ते देखा है।
प्रसंग―
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने यह बताया है कि सुख-दुःख, वैभव-विपन्नता जीवन में निरन्तर आने-जाने वाली परिस्थितियाँ हैं। जीव इनके समक्ष असमर्थ और विवश है।
व्याख्या―
कविवर नागार्जुन कहते हैं कि कालिदास के ‘मेघदूत’ में वर्णित वह धनाढ्य कुबेर कहाँ गया, जिसके अभिशाप से यक्ष अपनी प्रिया से अलग हो गया था। समस्त वैभव और विलास के साधनों से युक्त कुबेर की वह अलका नामक नगरी भी दिखाई नहीं पड़ती। कालिदास द्वारा वर्णित आकाश-मार्ग से जाती हुई उस पवित्र गंगा का जल कहाँ चला गया ? कवि का भाव यह है कि इस परिवर्तनशील जगत् में कुछ भी स्थिर नहीं है। कवि पुनः कहता है कि बहुत ढूंढ़ने पर भी मुझे मेघरूपी उस दूत के दर्शन नहीं हो सके। ऐसा भी हो सकता है कि इधर-उधर घूमते रहने वाला वह मेघ यक्ष का सन्देश ही न पहुंचा पाया हो और लज्जित होकर पर्वत पर यहीं कहीं बरस पड़ा हो, इस बात को बताने वाला भी कोई नहीं है। छोड़ो, रहने दो, यह तो कवि कालिदास की कल्पना थी। मैंने तो गगनचुम्बी कैलाश पर्वत के शिखर पर भयंकर शीत में विशाल आकार वाले बादलों को तूफानी हवाओं से गरज-बरसकर संघर्ष करते हुए देखा है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि हवा बादल को उड़ा ले जाती है और बादल वायू की तुलना में शक्तिहीन भी है; फिर भी हवा के
प्रति उसका संघर्ष अपने अस्तित्व को कायम रखने की चेष्टा है।
काव्यगत सौन्दर्य―
भाषा―तत्सम शब्दावली प्रधान सरल-सहज खड़ीबोली।
शैली―प्रतीकात्मक और प्रवाहपूर्ण।
रस―शान्त।
गुण―प्रसाद।
छंद―तुकान्त-मुक्त।
शब्द-शक्ति―लक्षणा एवं व्यंजना।
अलंकार―अनुप्रास एवं पुनरुक्तिप्रकाश
(4) दुर्गम बर्फानी घाटी में,
शत सहस्र फुट उच्च शिखर पर
अलख नाभि से उठने वाले
अपने ही उन्मादक परिमल
के ऊपर धावित हो-होकर
तरल तरुण कस्तूरी मृग को अपने पर चिढ़ते देखा है।
प्रसंग―
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने व्यक्ति की विवशताओं को रेखांकित किया है।
व्याख्या―
कविवर नागार्जुन का कहना है कि हजारों फुट ऊँचे पर्वत-शिखर पर स्थित बर्फानी घाटियों में जहाँ पहुँचना ही बहुत कठिन होता है, वहाँ कस्तूरी मृग अपनी नाभि में स्थित अदृश्य कस्तूरी की मनमोहक सुगन्ध से उन्मत्त होकर इधर-उधर दौड़ता रहता है। निरन्तर भाग-दौड़ करने पर भी जब वह चंचल और युवा मृग उस कस्तूरी को प्राप्त नहीं कर पाता तो वह अपने-आप पर झुंझलाता है। मैंने उसकी झुंँझलाहट और चिढ़ को सदेह वहाँ उपस्थित होकर अनुभव किया है।
काव्यगत सौन्दर्य―
भाषा―तत्समप्रधान खड़ीबोली।
शैली―प्रतीकात्मक और प्रवाहपूर्ण।
रस―शान्त।
छन्द―तुकान्त-मुक्त।
शब्द-शक्ति―लक्षणा एवं व्यजना।
गुण―माधुर्य।
अलंकार― अनुप्रास , पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार।
5. शत-शत निर्झर निर्झरिणी-कल
मुखरित देवदारु कानन में
शोणित धवल भोजपत्रों से छाई हुई कुटी के भीतर
रंग-बिरंगे और सुगन्धित फूलों से कुन्तल को साजे
इन्द्रनील की माला डाले शंख सरीखें सुघर गले में,
कानों में कुवलय लटकाये,शतदल रक्त कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान-पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चन्दन की त्रिपदी पर
नरम निदाग बाल कस्तूरी-
मृग छालों पर पल्थी मारे
मदिरारुण आँखों वाले उन
उन्मद किन्नर किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अंगुलियों को वंशी पर फिरते देखा है।
सन्दर्भ –
पूर्ववत्त्।
प्रसंग –
यहाँ कवि ने किन्नर-प्रदेश की शोभा का वर्णन किया है।
व्याख्या –
कवि का कथन है कि आकाश में बादल छा जाने के बाद किन्नर-प्रदेश की शोभा अद्वितीय हो जाती है। सैकड़ों छोटे-बड़े झरने अपनी कल-कल ध्वनि से देवदार के वन को गुंजित कर देते हैं अर्थात् गिरते हुए झरनों का स्वर देवदार के वनों में गूंजता रहता है। इन वनों के बीच में लाल और श्वेत भोजपत्रों से छाये हुए कुटीर के भीतर किन्नर और किन्नरियों के जोड़े विलासमय क्रीडाएँ करते रहते हैं। वे अपने केशों को विभिन्न रंगों के सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित किये रहते हैं। सुन्दर शंख जैसे गले में इन्द्र-नीलमणि की माला धारण करते हैं, कानों में नीलकमल के कर्णफूल पहनते हैं और उनकी वेणी में लाल कमल सजे रहते हैं।
कवि का कथन है कि किन्नर प्रदेश के नर-नारियों के मदिरापान करनेवाले बर्तन चाँदी के बने हुए हैं। वे मणिजड़ित तथा “कलात्मक ढंग से बने हुए हैं। वे अपने सम्मुख निर्मित तिपाई पर मदिरा के पात्रों को रख लेते हैं और स्वयं कस्तूरी मृग के नन्हें बच्चों की कोमल और दागरहित छाल पर आसन लगाकर बैठ जाते हैं । मदिरा पीने के कारण उनके नेत्र लाल रंग के हो जाते हैं। उनके नेत्रों में उन्माद छा जाता है। मदिरा पीने के बाद वे लोग मस्ती को प्रकट करने के लिए अपनी कोमल और सुन्दर अँगुलियों से सुमधुर स्वरों में वंशी की तान छेड़ने लगते हैं। कवि कहता है कि इन सभी दृश्यों की मनोहरता को मैंने देखा है।
काव्यगत सौन्दर्य :-
भाषा–संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली।
रस-श्रृंगार।
अलंकार-उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश।
शब्द-शक्ति-लक्षणा।
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