Class 9 Hindi Chapter 8 सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला” दान सन्दर्भ साहित व्याख्या:-
1. निकला पहिला अरविन्द आज,
देखता अनिन्द्य रहस्य-साज,
सौरभ-वसना समीर बहती,
कानों में प्राणों की कहती,
गोमती क्षीण-कटि नटी नवल,
नृत्यपर-मधुर आवेश-चपल।
सन्दर्भ –
प्रस्तुत पद्य-पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित तथा सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित ‘अपरा’ नामक काव्य ग्रन्थ से ‘दान’ शीर्षक कविता से ली गयी हैं।
प्रसंग –
इस कविता में उन ढोंगी दानियों पर व्यंग्य किया गया है, जिनके हृदय में दया लेशमात्र भी नहीं है तथा जो धर्म के नाम पर केवल दान का ढोंग करते हैं। इन पंक्तियों में कवि ने प्रात:कालीन प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन किया है।
व्याख्या –
प्रकृति के रहस्यमय सुन्दर श्रृंगार को देखने के लिए पौ फटते ही पहला कमल खिल गया अथवा प्रकृति के रहस्यों को निर्दोष भाव से देखने के लिए आज ज्ञान का प्रतीक सूर्य निकल आया है। आज ही पहली बार कवि को धर्म के बाह्य आडम्बर का स्वरूप देखकर वास्तविक ज्ञान प्राप्त हुआ है। सुगन्धिरूपी वस्त्र धारण कर वायु मन्द-मन्द बह रही है। वह जब कानों के निकट से गुजरती है तो ऐसा मालूम पड़ता है कि वह प्राणों को पुलकित करनेवाला गतिशीलता का सन्देश दे रही हो। गोमती नदी में कहीं-कहीं पानी कम होने से वह एक पतली कमरवाली नवेली नायिका-सी जान पड़ती है। उसमें उठती-गिरती लहरों के कारण वह धारा मधुर उमंग से भरकर नृत्य करती हुई-सी जान पड़ती है।
काव्यगत सौन्दर्य –
भाषा-संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली।
शैली-प्रतीकात्मक, वर्णन
रस-शान्त, श्रृंगार।
शब्द-शक्ति- लक्षणा।
गुण-माधुर्य।
अलंकार-रूपक, मानवीकरण और अनुप्रास।
2. मैं प्रातः पर्यटनार्थ चला
लौटा, आ पुल पर खड़ा हुआ,
सोचा-“विश्व का नियम निश्चल,
जो जैसा, उसको वैसा फल,
देती यह प्रकृति स्वयं सदया,
सोचने को न रहा कुछ नया,
सौन्दर्य, गीत, बहु वर्ण, गन्ध,
भाषा, भावों के छन्द-बन्ध,
और भी उच्चतर जो विलास,
प्राकृतिक दान वे, सप्रयास
या अनायास आते हैं सब,
सब में है श्रेष्ठ, धन्य मानव।”
शब्दार्थ-पर्यटनार्थ = भ्रमण के लिए। निश्चल = स्थिर। सदया = दया भाव से युक्त। कृष्णकाय = काले शरीरवाला।
सन्दर्भ –
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित एवं सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित ‘दान’ शीर्षक कविता से अवतरित है।
प्रसंग –
प्रस्तुत पद्य-पंक्तियों में दान का ढोंग करनेवालों पर व्यंग्य किया गया है। कवि ने ऐसी ही एक घटना का चित्रात्मक वर्णन किया है।
व्याख्या –
कवि कहता है कि मैं एक दिन सवेरे गोमती नदी के तट पर घूमने के लिए गया और लौटकर पुल के समीप आकर खड़ा हो गया। वहाँ मैं सोचने लगा कि इस संसार के सभी नियम अटल हैं। प्रकृति दया-भाव से सब मनुष्यों को उनके कर्मों का फल प्रदान करती है अर्थात् मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार ही फल पाते हैं। इस प्रकार उनके सोचने के लिए कुछ भी नवीन नहीं होता। सौन्दर्य, गीत, विविध रंग, गन्ध, भाषा, मनोभावों को छन्दों में बाँधना और मनुष्य को प्राप्त होनेवाले ऊँचे-ऊँचे भोग तथा और भी कई प्रकार के दान, जो मनुष्य को प्रकृति ने प्रदान किये हैं या उसने अपने परिश्रम से प्राप्त किये हैं, इन सबमें मनुष्य श्रेष्ठ और सौभाग्यशाली है। , फिर निराला जी ने देखा कि गोमती के पुल पर बहुत बड़ी संख्या में बन्दर बैठे हुए हैं तथा सड़क के एक ओर दुबला-पतला काले रंग का मृतप्राय, जो हड़ियों का ढाँचामात्र था, ऐसा एक भिखारी बैठा हुआ है। वह भिक्षा पाने के लिए अपलक नेत्रों से ऊपर की ओर देख रहा है। उसका कण्ठ भूख के कारण बहुत कमजोर पड़ गया था और उसकी श्वास भी तीव्र गति से चल रही थी। ऐसा लग रहा था, मानो वह जीवन से बिल्कुल उदास होकर शेष घड़ियाँ व्यतीत कर रहा हो। न जाने इस जीवन के रूप में वह कौन-सा शाप ढो रहा था और किन पापों का फल भोग रहा था? मार्ग से गुजरनेवाले सभी लोग यही सोचते थे, किन्तु कोई भी इसका उत्तर नहीं दे पाता था। कोई अधिक दया दिखाता तो एक पैसा उसकी ओर फेंक देता।
काव्यगत सौन्दर्य :-
भाषा-संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली
शैली- वर्णनात्मक।
रस-शान्त
अलंकार- अनुप्रास तथा उत्प्रेक्षा है।
3 . फिर देखा, उस पुल के ऊपर
बहुसंख्यक बैठे हैं वानर।
एक ओर पंथ के, कृष्णकाय
कंकाल शेष नर मृत्युप्राय
बैठा सशरीर दैन्य दुर्बल,
भिक्षा को उठी दृष्टि निश्चल,
अति क्षीण कण्ठ है, तीव्र श्वास,
जीता ज्यों जीवन से उदास।
ढोता जो वह, कौन-सा शाप?
भोगता कठिन, कौन-सा पाप?
यह प्रश्न सदा ही है पथ पर,
पर सदा मौन इसका उत्तर!
जो बड़ी दया का उदाहरण,
वह पैसा एक, उपायकरण!
संदर्भ:-
पूर्ववत्त्।
प्रसंग―
प्रस्तुत पंक्तियों में निराला जी ने दान करने का ढोंग करने वाले व्यक्तियों से सम्बन्धित एक घटना का वर्णन करते हुए मानव की मानव के प्रति संवेदनहीनता का वर्णन किया है।
व्याख्या ―
निराला जी ने देखा कि गोमती के पुल पर बहुत बड़ी संख्या में बन्दर इकट्ठे होकर बैठे हुए हैं तथा सड़क के एक ओर दुबला-पतला काले रंग का एक भिखारी बैठा हुआ था। वह हड्डियों का ढाँचा मात्र दिखाई दे रहा था और ऐसा लग रहा था कि जैसे उसकी मृत्यु निकट आ गयी हो अथवा जैसे गरीबी स्वयं दुर्बल शरीर धारण कर वहाँ बैठी हो। वह भिक्षा पाने के लिए अपलक नेत्रों से ऊपर की ओर देख रहा था। उसका कण्ठ भूख के कारण बहुत कमजोर पड़ गया था और उसकी श्वास भी तीव्र गति से चल रही थी। ऐसा लग रहा था मानो वह जीवन से बिल्कुल उदास होकर शेष घड़ियाँ व्यतीत कर रहा हो। न जाने जीवन के इस रूप में वह कौन-सा शाप ढो रहा था और किन पापों का फल भोग रहा था ? मार्ग से गुजरने वाले सभी लोग यही सोचते थे, किन्तु कोई भी इसका उत्तर नहीं दे पाता था। कोई अधिक दया दिखाता तो एक पैसा उसकी ओर फेंक देता जैसे कि उस एक पैसे की दया से उसकी दरिद्रता दूर हो जाएगी।
काव्यगत सौन्दर्य―
भाषा―शुद्ध संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली।
शैली―वर्णनात्मक एवंव्यंग्यात्मक।
रस―शान्त एवं करुणा
छन्द― मात्रिक छन्द।
गुण–प्रसाद।
अलंकार― अनुप्रास तथा उत्प्रेक्षा अलंकार।
4. मैंने झुक नीचे को देखा,
तो झलकी आशा की रेखा―
विप्रवर स्नानकर चढ़ा सलिल
शिव पर दूर्वादल, तण्डुल, तिल,
लेकर झोली आये ऊपर,
देखकर चले तत्पर वानर।
द्विज-राम-भक्त, भक्ति की आस,
भजते शिव को बारहों मास,
कर रामायण का पारायण,
जपते हैं श्रीमन्नारायण,
दुःख पाते जब होते अनाथ,
कहते कपियों के जोड़ हाथ,
मेरे पड़ोस के वे सज्जन,
करते प्रतिदिन सरिता-मज्जन,
झोली से पुए, निकाल लिये,
बढ़ते कपियों के हाथ दिये,
देखा भी नहीं उधर फिर कर
जिस ओर रहा वह भिक्षु इतर,
चिल्लाया किया दूर दानव,
बोला मैं-“धन्य, श्रेष्ठ मानव!”
शब्दार्थ-पारायण = अध्ययन। कपियों = बन्दरों सरिता-मजन = नदी में स्नान । इतर = दूसरा। दूर्वादल = दूब। तण्डुल = चावल।।
सन्दर्भ –
पुर्ववत्।
प्रसंग –
सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला’ ने अपनी ‘दान’ शीर्षक कविता में ढोंग करनेवाले दिखावटी धार्मिक लोगों पर तीखा व्यंग्य किया है।
व्याख्या –
काव्यगत सौन्दर्य :-
भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली।
शैली-व्यंग्यात्मक।
रस-शान्त।
अलंकार-अनुप्रास।
0 Comments