Class 9 Hindi Chapter 6 मैथिलीशरण गुप्त पंचवटी संदर्भ सहित व्याख्या:-
1. चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
स्वच्छ चंद्री बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झूम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥
सन्दर्भ-
प्रस्तुत पद ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित एवं मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘पंचवटी’ से लिया गया है।
प्रसंग-
यहाँ कवि ने पंचवटी के प्राकृतिक सौन्दर्य का सजीव चित्रण किया है।
व्याख्या-
मैथिलीशरण गुप्त जी कहते हैं कि सुन्दर चन्द्रमा की किरणें जल और थल में फैली हुई हैं। पृथ्वी और आकाश में स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है। हरी-हरी घास की नोकें ऐसी लगती हैं मानो वे पृथ्वी के सुख से रोमांचित हो रही हैं। वहाँ के सभी वृक्ष मन्दमन्द वायु के झोंकों से झूमते प्रतीत होते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- खड़ीबोली ।
अलंकार- अनुप्रास, उत्प्रेक्षा एवं मानवीकरण ।
रस- श्रृंगार ।
गुण- माधुर्य ।
2. पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर-वीर निर्भीकमना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥
(शब्दार्थ- पर्णकुटीर = पत्तों की कुटिया। सम्मुख = सामने । स्वच्छ = साफ, निर्मल । शिला = पत्थर । निर्भीकमना = निर्भय मनवाला। धनुर्धर = धनुष धारण करनेवाला। भुवन-भर = सम्पूर्ण संसार। भोगी = भोग करनेवाला, राजा। कुसुमायुध = कामदेव।)
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
इसमें प्रहरी के रूप में लक्ष्मण को सुन्दर चित्रण किया गया है।
व्याख्या-
कवि कहता है कि पंचवटी की घनी छाया में एक सुन्दर पत्तों की कुटिया बनी हुई है। उस कुटिया के सामने एक स्वच्छ विशाल पत्थर पड़ा हुआ है और उस पत्थर के ऊपर धैर्यशाली, निर्भय मनवाला वीर पुरुष बैठा हुआ है। सारा संसार सो रहा है परन्तु यह धनुषधारी इस समय भी जाग रहा है। यह वीर ऐसा दिखायी पड़ता है जैसे भोग करनेवाला कामदेव यहाँ योगी बनकर आ बैठा हो ।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- खड़ीबोली ।
रस- शान्त ।
अलंकार- अनुप्रास अलंकार, उपमा अलंकार।
गुण- प्रसाद।
3. किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,
राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।
बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,
जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है॥
शब्दार्थ-व्रती = व्रत धारण करनेवाला । विपिन = वन । विराग = वैराग्य, विरक्ति। प्रहरी = पहरेदार । कुटीर = कुटिया। रस = लगा हुआ। राज भोग्य = राज भोगने योग्य।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
यहाँ राम और सीता की कुटी पर पहरा देते हुए लक्ष्मण की विशेषताओं का चित्रण किया गया है।
व्याख्या-
इस वीर पुरुष ने यह कौन-सा व्रत धारण किया है, जिसके कारण इस प्रकार नींद का त्याग कर दिया है। यह तो राज्य के सुखों को भोगने योग्य है परन्तु किस कारण से यह वन में वैराग्य ग्रहण किये हुए बैठा है। पता नहीं इस कुटिया में ऐसा कौन-सा अमूल्य धन रखा हुआ है, जिसकी रक्षा में तन-मन और जीवन लगाते हुए लक्ष्मण प्रहरी बना हुआ है।
काव्यगत सौन्दर्य :-
भाषा- सरस व शुद्ध खड़ीबोली।
शैली- वर्णनात्मक।
अलंकार- अनुप्रास।
गुण-ओज
रस- अद्भुत ।
4. मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।
वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,
विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥
शब्दार्थ- मर्त्यलोक-मालिन्य = संसार के पाप ।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
कवि ने उस अनुपम धन की महानता का वर्णन किया है, जिसकी रक्षा में वीर, व्रती लक्ष्मण एकाग्र मन से संलग्न हैं।
व्याख्या-
वास्तव में इस कुटी के अन्दर ऐसा अनुपम धन है, जिसकी रक्षा एक वीर पुरुष ही कर सकता है। तीनों लोकों को साक्षात् लक्ष्मी सीताजी इस कुटी के अन्दर विद्यमान हैं। वे अपने पति राम के साथ इस कुटी में रह रही हैं। मनुष्य लोक की बुराइयों को दूर करने के लिए वे अपने पति राम के साथ आयी हैं; अतः इस कुटी में तीनों लोकों की लक्ष्मी स्वरूप सीताजी विराजमान हैं। वे वीरों के वंश की प्रतिष्ठा हैं। रघुवंश वीरों की वंश है। उनकी रक्षा से ही रघुवंश की प्रतिष्ठा हो सकती है। यदि सीताजी की प्रतिष्ठा में कोई आँच आती है तो रघुकुल की प्रतिष्ठा में धब्बा लगता है। इसीलिए लक्ष्मण जैसे प्रहरी को यहाँ नियुक्त किया गया है। वीर लक्ष्मण इस कुटी में उपस्थित सीताजी की रक्षा में अपना तन, मन और जीवन समर्पित किये हुए हैं।
यह वन निर्जन है। रात्रि काफी शेष है। यहाँ पर राक्षस लोग चारों ओर घूम रहे हैं। वे किसी माया के जाल में फंसाकर विपत्ति खड़ी कर सकते हैं। अतः रात्रि के समय निर्जन प्रदेश में राक्षसों की माया से बचने के लिए लक्ष्मण जैसा वीर ही उपयुक्त पहरेदार है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली।
शैली- चित्रात्मक एवं गीत ।
रस- शान्त ।
छन्द- मात्रिक।
अलंकार- अनुप्रास, रूपक।
गुण-माधुर्य ।
5. क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप
शब्दार्थ- निस्तब्ध = सन्नाटे से भरी। स्वच्छन्द= स्वतन्त्र । सुमन्द = मन्द-मन्द। गन्धवह = हवा, वायु। निरानन्द = आनन्दरहित । नियति-नटी = नियतिरूपी । नटी = नर्तकी । नियति = भवितव्यता, भाग्य । कार्य-कलाप = क्रिया-कलाप, काम।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
पंचवटी में दूर तक फैली चाँदनी का वर्णन करते हुए कवि कहता है
व्याख्या-
पंचवटी में जो दूर-दूर तक चाँदनी फैली हुई है, वह बहुत ही साफ दिखायी दे रही है और रात सन्नाटे से भरी है। कोई शब्द नहीं हो रहा है। वायु स्वच्छन्द गति से, अपनी स्वतन्त्र चाल से मन्द-मन्द बह रही है। इस समय उत्तर-पश्चिम आदि सभी दिशाओं में आनन्द-ही-आनन्द व्याप्त है। कोई भी दिशा आनन्द-शून्य नहीं है। ऐसे समय में भी नियति नामक शक्ति-विशेष के समस्त कार्य सम्पन्न हो रहे हैं। कहीं कोई रुकावट नहीं। नियति-नटी अपने क्रिया-कलापों को बहुत ही शान्ति से सम्पन्न कर रही है। वह एकान्त भाव से अर्थात् अकेले-अकेले और चुपचाप अपने कर्तव्यों का निर्वाह किये जा रही है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली।
छन्द- मात्रिक।
अलंकार- अनुप्रास, रूपक।
रस- शान्त
शैली- भावात्मक।
6. है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है॥
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
वनवास के समय पंचवटी में निवास करते हुए लक्ष्मण एक पर्णकुटी में सीता की रक्षा करते हुए रात की प्राकृतिक शोभा का वर्णन करते हुए कहते हैं
व्याख्या-
यह पृथ्वी सबके सो जाने पर नित्यप्रति आकाश में नक्षत्ररूपी मोतियों को फैला देती है और सूर्य सदा ही प्रातः काल हो जाने पर उनको बटोरकर रख लेता है। वह सूर्य.भी.नक्षत्ररूपी मोतियों को संध्यारूपी सुन्दरी को देकर अपने लोक चला जाता है। अतः नक्षत्ररूपी मोतियों को धारण करके उस सन्ध्यारूपी सुन्दरी का शून्य-सा श्यामल रूप झिलमिल करता हुआ अति दीप्त हो जाता है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
अलंकार-अतिशयोक्ति अलंकार ।
भाषा-शुद्ध परिमार्जित खड़ीबोली।
गुण-प्रसाद, शैली-वर्णनात्मक।
छन्द-मात्रिक।
7. सरल तरल जिन तुहिन कणों से हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे साथ उन्हीं से रोती है।
अनजानी भूलों पर भी वह अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा सदय भाव से सेती है।
शब्दार्थ- तुहिन = ओस, पाला। सेती है = रक्षा करती है। अदय = निर्दय।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
पंचवटी में लक्ष्मण शिला पर विराजमान हो प्रकृति के रूप और उनके व्यवहार के सम्बन्ध में सोच रहे हैं। वे कहते हैं
व्याख्या-
कभी तो प्रकृति पृथ्वी पर जिन ओस के कणों से हँसती और प्रसन्न होती-सी प्रतीत होती है उन्हीं ओस के कणों के माध्यम से वह हमारे अत्यन्त ही निकट और आत्मीय हो कष्टों से व्यथित होकर रुदन करती-सी प्रतीत होती है अर्थात् कभी ओस की बूंदें मोती-सी चमकदार प्रकृति की प्रसन्नता को व्यक्त करती हैं और कभी आँख के आँसुओं के रूप में हमारे दुःखों से दुःखित हो रोती हुई-सी प्रतीत होती हैं। कभी तो यह इतनी निर्दय और निष्ठुर हो जाती हैं कि वह अनजाने में हमारे द्वारा की गयी भूलों के कारण हमें कठोर से कठोर दण्ड तक ने सकती हैं; जैसे-भूकम्प, अतिवृष्टि, बाढ़ आदि। कभी इतनी दयालु हो जाती हैं। कि बूढों की भी बच्चों की भाँति दया-भाव से सेवा करती हैं।
काव्यगत सौन्दर्य:-
अलंकार - अनुप्रास अलंकार है।
छन्द- मात्रिक।
भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली।
रस- शृंगार ।
गुण- माधुर्य।
8. तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,
वन को आते देख हमें जब, आर्त अचेत हुए थे तात।
अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की,
किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की?
शब्दार्थ- तात = पिताजी। आर्त = दु:ख से। इन जन को = मुझे।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
कवि ने वनवास के 13 वर्ष व्यतीत हो जाने पर लक्ष्मण के घर लौटने की प्रसन्नता का वर्णन किया है।
व्याख्या-
वनवास के समय यद्यपि तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके हैं परन्तु सम्पूर्ण बात कल की बात की तरह हृदय पटल पर अंकित है, जबकि पिताजी हमको वन में आते देख दुःख से अचेत हो गये थे। वनवास की अवधि की समाप्ति निकट है परन्तु मुझे इसँ वनवास से बढ़कर और किस धन की प्राप्ति हो सकती है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली ।
रस- शान्त ।
गुण- प्रसाद ।
छन्द- मात्रिक।
अलंकार- उत्प्रेक्षा, रूपक।
9. और आर्य को? राज्य-भार तो वे प्रजार्थ ही धारेंगे,
व्यस्त रहेंगे, हम सबको भी मानो विवश बिसारेंगे।
कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक,
पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक?
शब्दार्थ- प्रजार्थ = प्रजा के लिए। लोकोपकार = संसार की भलाई।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
कवि कहता है कि लक्ष्मण कल्पना कर रहे हैं कि जब रामचन्द्र को राज्य मिल जायेगा तो वे अपने कर्तव्य में इतने व्यस्त हो जायेंगे कि हमें भूल जायेंगे। राम के जन कल्याण में लगे होने के कारण इसको हम बुरा नहीं मानेंगे।
व्याख्या-
आर्य राम को इससे अधिक सुख और क्या हो सकता है? रामचन्द्र जी सिंहासन पर बैठकर प्रजा के सुख के लिए राज्य करेंगे। उस कार्य में व्यस्त होकर हमको भी भुला देने को विवश हो जायेंगे। परन्तु संसार की भलाई के विचार से हमको इसमें तनिक भी दुःख नहीं होगा, किन्तु क्या यह मनुष्य समाज राजा का आश्रय न लेकर अपनी भलाई स्वयं नहीं कर सकता।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- खड़ीबोली है।
रस- शान्त।
गुण- माधुर्य ।
छन्द- मात्रिक।
अलंकार-उत्प्रेक्षा।
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