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Class 9 Hindi Chapter 5 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र प्रेम-माधुरी सन्दर्भ साहित व्याख्या

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Class 9 Hindi Chapter 5 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र प्रेम-माधुरी सन्दर्भ साहित व्याख्या:-


1. कूकै लगीं कोइलैं कदंबन पै बैठि फेरि

                           धोये-धोये पात हिलि-हिलि सरसै लगे।

बोलै लगे दादुर मयूर लगे नाचै फेरि

                          देखि के सँजोगी-जन हिय हरसै लगे।

हरी भई भूमि सीरी पवन चलन लागी

                          लखि ‘हरिचंद’ फेरि प्रान तरसै लगे।

फेरि झूमि-झूमि बरषा की रितु आई फेरि

                            बादर निगोरे झुकि-झुकि बरसै लगे॥


शब्दार्थ- कुकै लगीं = कूकने लगीं। पात = पत्ते । सरसै लगे = सुशोभित होने लगे। दादुर = मेंढक। मयूर = मोर। सँजोगी जन = अपने प्रिय के साथ रहनेवाले लोग। हरसै = हर्षित। सीरी = शीतल । हरिचंद = कवि हरिश्चन्द्र, श्रीकृष्ण। निगोरे = निगोड़े, ब्रज की एक गाली जिसका अर्थ विकलांग होता है।

सन्दर्भ- 

प्रस्तुत पद्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में कवित्त-छन्द भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचना है जो कि उनके ‘प्रेममाधुरी शीर्षक के अन्तर्गत संगृहीत छन्दों से उधृत है।

प्रसंग- 

कवि ने इस छन्द में वर्षा-ऋतु के आगमन पर दृष्टिगोचर होने वाले विविध प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन किया है।

व्याख्या-

 वर्षा-ऋतु आने पर कोयलें फिर कदम्ब के वृक्षों पर बैठकर कूकने लगी हैं। वर्षा के जल से धुले हुए वृक्षों के पत्ते वायु में हिलते हुए शोभा पाने लगे हैं। मेंढक बोलने लगे हैं, मोर नाचने लगे हैं और अपने प्रियजनों के समीप स्थित लोग इस वर्षा-ऋतु के दृश्यों को देख-देखकर प्रसन्न होने लगे हैं। सारी भूमि हरियाली से भर गयी है, शीतल वायु चलने लगी है और हरिश्चन्द्र (श्रीकृष्ण) को देखकर हमारे प्राण मिलने को फिर तरसने लगे हैं। झूमते हुए बादलों के साथ यह वर्षा-ऋतु फिर आ गयी और ये निगोड़े बादल फिर धरती पर झुक झुककर बरसने लगे हैं।

काव्यगत सौन्दर्य- 

शैली - वर्णनात्मक तथा शब्द चित्रात्मक है।

अलंकार- अनुप्रास तथा पुनरुक्ति अलंकार हैं। 

रस-शृंगार।


2. जिय पै जु होइ अधिकार तो बिचार कीजै

                  लोक-लाज, भलो-बुरो, भले निरधारिए।

नैन, श्रौन , कर, पग, सबै पर-बस भए

                     उतै चलि जात इन्हें कैसे कै सम्हारिए।

‘हरिचंद’ भई सब भाँति सों पराई हम

                      इन्हें ज्ञान कहि कहो कैसे कै निबारिए।

मन में रहै जो ताहि दीजिए, बिसारि, मन

                      आपै बसै जामैं ताहि केसे कै बिसारिए।।


शब्दार्थ- निरधारिये = निर्धारित कीजिए, निश्चित कीजिए। जिय = हृदय। श्रोत = कान। उतै = उधर, कृष्ण की ओर। पराई = परवश। निषारिये = रोकिये। ताहि = उसे । बिसारिए = भुलाइये।


सन्दर्भ- 

पूर्ववत्।

प्रसंग- 

गोपियाँ उद्धव के सम्मुख अपनी कृष्ण-प्रेमजनित विवशता का वर्णन कर रही हैं।

व्याख्या-

 गोपियाँ कहती हैं-हे उद्धव। यदि हमारा अपने मन पर अधिकार हो तभी तो हम लोक-लज्जा तथा अच्छे-बुरे आदि का निर्धारण कर सकती हैं। पर हमारे नेत्र, कान, हाथ, पैर सभी तो परवश हो चुके हैं। ये तो बार-बार कृष्ण की ओर ही आकर्षित होते चले जाते हैं। हम तो सब प्रकार से परवश हो चुकी हैं। अब हमें ज्ञान का उपदेश देकर आप कृष्ण से विमुख कैसे कर पायेंगे। अरे। जो मन में बसा हो उसे तो भुलाया भी जा सकता है, किन्तु स्वयं मन जिसमें बसा हुआ हो उसे कैसे भुलाया जा सकता है।

काव्यगत सौन्दर्य-

भाषी भावानुरूप है।

शैली भावुकता से सिंचित है।

अलंकार-अनुप्रास अलंकार की योजना है।

 छन्द-कवित्त।


3. यह संग में लागियै डोलैं सदा, बिन देखे न धीरज आनती हैं।

      छिनहू जो वियोग परै ‘हरिचंद’ तो चाल प्रलै की सु ठानती हैं।

      बरुनी में थिरै न झपैं उझपैं, पल मैं न समाइबो जानती हैं।

      पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना,अँखियाँ, दुखियाँ नहिं मानती हैं।


शब्दार्थ- लागिये = लगी हुई। आनती हैं = लाती हैं, धारण करती हैं। छिनहू = क्षण-भर को भी। चाल प्रलै की = आँसू बहाना । बरुनी = बरौनी । थिरें = स्थिर रहतीं । झपैं = बन्द होती हैं। उझपैं = खुलती हैं। पल = पलक। समाइबौ = बन्द होना । निहारे = देखे।


सन्दर्भ – 

पूर्ववत्।

प्रसंग- 

कवि ने वियोगिनी गोपियों के नेत्रों की विवशता को मार्मिक वर्णन किया है।

व्याख्या- 

गोपियाँ कहती हैं-हे प्रिय । हमारी ये आँखें सदा आपके संग-संग ही लगी रही हैं। आपको देखे बिना इनको चैन ही नहीं पड़ता। यदि कभी क्षणभर को भी आपसे वियोग हो जाता है तो ये आँखें प्रलय की ठान लेती हैं अर्थात् आँसू बरसाना प्रारम्भ कर देती हैं। ये कभी बरौनियों में स्थिर नहीं रह पातीं। कभी बन्द होती हैं तो कभी खुलती हैं। पलकों में बन्द होना तो जैसे इनको आता ही नहीं है। हमारे प्यारे, हे प्रिय । आपको देखे बिना हमारी आँखें मानती ही नहीं।

काव्यगत सौन्दर्य-

भाषा - ब्रज ।

शैली चमत्कारिक और आलंकारिक है।

 रस-वियोग श्रृंगार । 

गुण-माधुर्य, 

छन्द-सवैया।


4. पहिले बहु भाँति भरोसो दियो, अब ही हम लाइ मिलावती हैं।

       ‘हरिचंद भरोसे रही उनके सखियाँ जो हमारी कहावती हैं।

       अब वेई जुदा है रहीं हम सौं, उलटो मिलि के समुझावती हैं।

       पहिले तो लगाइ कै आग अरी! जल कों अब आपुर्हि धावती हैं।


शब्दार्थ- भरोसो = आश्वासन। जुदा = अलग।


सन्दर्भ- 

पूर्ववत्।

प्रसंग-

 इस सवैये में श्रीकृष्ण के वियोग में व्याकुल एक गोपी अपनी सखियों के समझाने पर उपालम्भ दे रही है

व्याख्या- 

हे सखि । पहले तो तुम हमें तरह-तरह से भरोसा दिलाती थीं कि हम अभी श्रीकृष्ण को लाकर तुमसे मिला देती हैं। जो मेरी अपनी सखियाँ कहलाती हैं, मैं उनके ही विश्वास पर बैठी रही, लेकिन अब वही मुझसे अलग हो गयी हैं। श्रीकृष्ण को मिलाने की अपेक्षा वे उल्टा मुझे ही समझाती हैं। अरी सखी । इन्होंने पहले तो मेरे हृदय में प्रेम की आग भड़का दी और अब उसे बुझाने के लिए स्वयं ही जल लेने को दौड़ी जाती हैं। यह कहाँ का न्याय है?

काव्यगत सौन्दर्य- 

भाषा- ब्रजे ।

शैली- मुक्तक।

रस- विप्रलम्भ श्रृंगार।

छन्द- सवैया।

अलंकार- अनुप्रास।

 गुण- प्रसाद।



5. ऊधौ जू सूधो गहो वह मारग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है।

      कोऊनहीं सिख मानिहै ह्याँ, इक स्याम की प्रीति प्रतीति खरी है।

      ये ब्रजबाला सबै इक सी, हरिचंद जू मंडली ही बिगरी है।

      एक जौ होय तो ज्ञान सिखाइये कूपहि में यहाँ भाँग परी है।


शब्दार्थ- गहो = पकड़ो। सिख = शिक्षा। खरी = पक्की।


सन्दर्भ-

 पूर्ववत्।

प्रसंग- 

इस सवैये में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि वे किसी प्रकार भी उनके निराकार ब्रह्म के उपदेश को ग्रहण नहीं कर सकतीं।

व्याख्या-

 हे उद्धव। तुम उस मार्ग पर सीधे चले जाओ, जहाँ तुम्हारे ज्ञान की गुदड़ी रखी हुई है। यहाँ पर तुम्हारे उपदेश को कोई गोपी ग्रहण नहीं करेगी; क्योंकि सभी श्रीकृष्ण के प्रेम में विश्वास रखती हैं। हे उद्धव । ये सभी ब्रजबालाएँ एक-सी हैं, कोई भिन्न प्रकृति की नहीं हैं। इनकी तो पूरी मण्डली ही बिगड़ी हुई है। यदि किसी एक गोपी की बात होती तो तुम उसे ज्ञान का उपदेश देते किन्तु यहाँ तो कुएँ में ही भाँग पड़ी हुई है अर्थात् सभी श्रीकृष्ण के प्रेम-रस में सराबोर होकर पागल-सी हो गयी हैं। इसलिए तुम्हारा उपदेश देना व्यर्थ होगा।

काव्यगत सौन्दर्य-

भाषा- मुहावरेदार, सरस ब्रज।

शैली- मुक्तक।

छन्द- सवैया।

अलंकार- अनुप्रास, रूपक।

 रस- शृंगार।


6. सखि आयो बसंत रितून को कंत, चहूँ दिसि फूलि रही सरसों।

      बर सीतल मंद सुगंध समीर सतावन हार भयो गर सों।

      अब सुंदर साँवरो नंद किसोर कहै ‘हरिचंद’ गयो घर सों।

      परसों को बिताय दियो बरसों तरसों कब पाँय पिया परसों।


शब्दार्थ- रितून को कन्त = ऋतुओं को स्वामी बसन्त । वर = श्रेष्ठ। समीर = वायु । गर सों = गले तक, पूरी तरह। परसों = (1) स्पर्श करूँ, (2) आने वाख्ने कल के बाद का दिन।


सन्दर्भ- 

पूर्ववत्।

प्रसंग-

 इस सवैये में बसन्त ऋतु के आगमन पर गोपियों की विरह-व्यथा का चित्रण किया गया है।

व्याख्या-

 एक गोपी कृष्ण-विरह से पीड़ित होकर दूसरी सखी से अपनी मनोव्यथा को व्यक्त करती हुई कहती है कि हे सखि । ऋतुओं का स्वामी बसन्त आ गया है। चारों दिशाओं में पीली-पीली सरसों फूल रही है। अत्यन्त सुन्दर, शीतल, मन्द और सुगन्धित वायु बह रही है किन्तु बसन्त ऋतु का मादक वातावरण श्रीकृष्ण के बिना मुझे पूर्णरूप से कष्टदायक प्रतीत हो रहा है। नन्दनन्दन श्रीकृष्ण हमसे यह बताकर गये थे कि मैं परसों तक मथुरा से लौट आऊँगा, परन्तु उन्होंने परसों के स्थान पर न जाने कितने वर्ष व्यतीत कर दिये और अभी तक लौटकर नहीं आये। मैं तो अपने प्रियतम कृष्ण के चरणों का स्पर्श करने के लिए तरस रही हूँ, पता नहीं कब उनके दर्शन हो सकेंगे?

काव्यगत सौन्दर्य- 

भाषा- ब्रज।

शैली- वर्णनात्मक, मुक्तक।

रस- वियोग शृंगार।

छन्द- सवैया।

अलंकार- यमक, अनुप्रास । 

गुण- माधुर्य ।


7. इन दुखियान को न चैन सपनेहूँ मिल्यो,

                         तासों सदा ब्याकुल बिकल अकुलायँगी।

प्यारे हरिचंदजू की बीती जानि औधि, प्रान्,

                             चाहत चलै पै ये तो संग ना समायँगी।

देखौ एक बारहू न नैन भरि तोहिं यातें

                         जौन-जौन लोक जैहैं तहाँ पछतायँगी।

बिना प्रान-प्यारे भये दरस तुम्हारे हाय,

                              मरेहू पै आँखें ये खुली रही जाएंगी।।


शब्दार्थ- चैन = शान्ति, सुख । बिकल = बेचैन। औधि = अवधि। जौन-जौन = जिस-जिस।


सन्दर्भ-

 पूर्ववत्।

प्रसंग-

 इस सवैये में श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियों के नेत्रों की व्यथा का मार्मिक चित्रण किया गया है।

व्याख्या-

 विरहिणी गोपियाँ कहती हैं कि प्रियतम श्रीकृष्ण के विरह में आकुल इन नेत्रों को स्वप्न में भी शान्ति नहीं मिल पाती है; क्योंकि इन्होंने कभी स्वप्न में भी श्रीकृष्ण के दर्शन नहीं किये। इसलिए ये सदा प्रिय-दर्शन के लिए व्याकुल होते रहेंगे। प्रियतम के लौट आने की अवधि को बीतती हुई जानकर मेरे प्राण इस शरीर से निकलकर जाना चाहते हैं, परन्तु मेरे मरने पर भी ये नेत्र प्राणों के साथ नहीं जाना चाहते हैं; क्योंकि इन्होंने अपने प्रियतम कृष्ण को जी भरकर नहीं देखा है। इसलिए जिस किसी भी लोक में ये नेत्र जायेंगे, वहाँ पश्चाताप ही करते रहेंगे। हे उद्धव। तुम श्रीकृष्ण से कहना कि हमारे नेत्र मृत्यु के पश्चात् भी तुम्हारे दर्शन की प्रतीक्षा में खुले रहेंगे।

काव्यगत सौन्दर्य-

भाषा- ब्रज।

शैली- मुक्तक।

रस- वियोग श्रृंगार।

छन्द- सवैया।

अलंकार- अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश।



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