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Class 9 Hindi Chapter 7 जयशंकर प्रसाद पुनर्मिलन संदर्भ सहित व्याख्या

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Class 9 Hindi Chapter 7 जयशंकर प्रसाद पुनर्मिलन संदर्भ सहित व्याख्या:-


1. चौंक उठी अपने विचार से

                      कुछ दूरागत ध्वनि सुनती,
इस निस्तब्ध निशा में कोई
                      चली आ रही है कहती―
“अरे बता दो मुझे दया कर
                        कहाँ प्रवासी है मेरा?
उसी बावले से मिलने को
                        डाल रही हूँ मैं फेरा।

रूठ गया था अपनेपन से
                        अपना सकी न उसको मैं,
वह तो मेरा अपना ही था
                         भला मनाती किसको मैं!
यही भूल अब शूल सदृश हो
                         साल रही उर में मेरे,
कैसे पाऊँगी उसको मैं
                          कोई आकर कह दे रे!”



शब्दार्थ- दूरागत = दूर से आयी। निस्तब्ध = शान्त, शब्दविहीन । निशा = रात्रि । प्रवासी = विदेश में गया हुआ।


सन्दर्भ- 

यह पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ के ‘पुनर्मिलन’ कविता से लिया गया है। यह कविता जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘कामायनी’ महाकाव्य से संकलित है।


प्रसंग-

 प्रस्तुत पद्यावतरण में यह बताया गया है कि मनु श्रद्धा से रुष्ट होकर सारस्वत नगर चले गये। वहाँ वे संघर्षों में घायल हो गये। श्रद्धा ने उनकी इस स्थिति को स्वप्न में देखा और मनु को ढूंढ़ने निकल पड़ी। मनु को खोजती हुई यहाँ श्रद्धा का वर्णन किया गया है।


व्याख्या- 

जयशंकर प्रसाद जी कहते हैं कि सारस्वत नगर की रानी इड़ा अपने विचारों में खोयी हुई थी। सहसा कुछ दूर से आती हुई आवाज को सुनकर वह चौंक उठी। उसने सुना कि दूर से इस शान्त रात्रि में कोई महिला यह कहती हुई चली आ रही है-अरे! कोई दया करके मुझे यह बता दो कि मेरा वह परदेशी प्रियतम कहाँ है ? मैं अपने उसी बावले प्रियतम की खोज में भटकती फिर रही हूँ। श्रद्धा आगे कहती है कि “मेरा प्रियतम मनु मुझसे रूठ क्या गया है, मानो अपने आपसे ही रूठ गया है। उसमें और मुझमें कोई अन्तर तो है नहीं; यह सोचकर ही मैं रूठे हुए प्रियतम को मना भी नहीं सकी थी। भला- कोई स्वयं को मनाता थोड़े ही है। उसे न मनाकर मैंने बहुत बड़ी भूल की। यही भूल अब काँटे की तरह मेरे हृदय को दुःख पहुँचा रही है। मैं अब उसे कैसे प्राप्त कर सकूँगी, कोई तो आकर मुझे बता दे।


काव्यगत सौन्दर्य:-

भाषा- खड़ीबोली। 

रस- वियोग श्रृंगार। 

गुण- प्रसाद । 

अलंकार- रूपक, अनुप्रास।


(2) इड़ा उठी, दिख पड़ा राज-पथ

                             धुंधली-सी छाया चलती,

वाणी में थी करुण वेदना

                              वह पुकार जैसी जलती।

शिथिल शरीर वसन विशृंखल

                              कबरी अधिक अधीर खुली,

छिन्न-पत्र मकरन्द लुटी-सी

                              ज्यों मुरझायी हुई कली।

नव कोमल अवलम्ब साथ में

                              वय किशोर उँगली पकड़े,

चला आ रहा मौन धैर्य-सा

                              अपनी माता को जकड़े।

थके हुए थे दुःखी बटोही

                              वे दोनों ही माँ-बेटे,

खोज रहे थे भूले मनु को

                              जो घायल होकर लेटे।


सन्दर्भ:-

पूर्ववत्त्।

प्रसंग―

श्रद्धा ने स्वप्न में अपने पति मनु को घायल और मरणासन्न अवस्था में देखा। वह पुत्र को साथ लेकर मनु को खोजने निकल पड़ती है और खोजते-खोजते सारस्वत नगर की रानी इड़ा के पास पहुँचती है।

व्याख्या―

इड़ा ने जब उठकर देखा तो उसे राजपथ पर एक धुंधली-सी छाया आती दिखाई दी। उसके स्वर में करुण वेदना थी और उसकी पुकार दुःख की आग में जलती हुई-सी प्रतीत हो रही थी। श्रद्धा का शरीर निरन्तर चलने के कारण थक गया था। उसके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये थे। उसकी चोटी खुल गयी थी, जो उसकी अधीरता को प्रकट कर रही थी। वह उस मुरझायी कली के समान दिखाई दे रही थी जिसकी पंखुड़ियाँ टूटकर बिखर गयी हों तथा जिसका पराग लुट गया हो। तात्पर्य यह है कि श्रद्धा की अस्त-व्यस्तता उसकी मानसिक परेशानी को प्रकट कर रही थी कि उसे अपने शरीर तक की सुध नहीं थी।

इड़ा कहती है कि उस स्त्री के साथ एक किशोर आयु का कोमल और सुन्दर बालक था। अपनी माँ की अँगुली पकड़कर चलने वाला वह बालक शान्त और धैर्य की मूर्ति के समान था। वह अपनी माँ का एकमात्र आधार था और अपनी माँ को कसकर पकड़े हुए धीरे-धीरे चल रहा था। वे दोनों ही पथिक, जो माँ-बेटे थे, अत्यन्त थके हुए और दुःखी लग रहे थे और उस भूले हुए मनु की खोज कर रहे थे जो घायल होकर इड़ा के महल में लेटे हुए थे।

काव्यगत सौन्दर्य―

भाषा―साहित्यिक खड़ी बोली। 

शैली―भावात्मक और चित्रात्मक। 

रस―विप्रलम्भ शृंगार एवं करुणा 

शब्द-शक्ति―अभिधा तथा व्यंजना। 

 गुण―प्रसाद। 

 छन्द― मात्रिक छन्द

अलंकार― अनुप्रास।



3) इड़ा आज कुछ द्रवित हो रही

                          दुःखियों को देखा उसने,

पहुँची पास और फिर पूछा

                         ‘तुमको बिसराया किसने?

इस रजनी में कहाँ भटकती

                          जाओगी तुम बोलो तो,

बैठो आज अधिक चंचल हूँ

                           व्यथा-गाँठ निज खोलो तो।

जीवन की लम्बी यात्रा में

                           खोये भी हैं मिल जाते,

जीवन है तो कभी मिलन है

                           कट जातीं दुःख की रातें।”


प्रसंग―

प्रस्तुत पंक्तियों में इड़ा, पति-वियोग से दुःखी श्रद्धा को धीरज बँधाती हुई उसे अपने पास रुक जाने का आग्रह करती है।

व्याख्या―

माँ-बेटे के दुःख को देखकर इड़ा का हृदय करुणा से भर गया। उनके पास पहुँचकर इड़ा ने कहा कि तुमको किसने भुला दिया है ? तुम इस अंधेरी रात में भटकती हुई कहाँ जाओगी? तुम मेरे निकट आकर बैठ जाओ। तुम्हारी अस्त-व्यस्त दशा को देखकर मेरा हृदय व्यथित हो गया है। तुम अपने हृदय में जो पीड़ा छिपाये घूम रही हो, उसको मुझे बताओ। हो सकता है मैं तुम्हारा कष्ट दूर करने में तुम्हारी कुछ सहायता कर सकूँ। तुम्हारे कष्टों को सुनने के लिए मेरा हृदय व्यग्र हो उठा है। इड़ा उसे धैर्य प्रदान करती हुई आगे कहती है कि जीवन की यात्रा बहुत लम्बी है। इस जीवनरूपी यात्रा में कुछ साथी हमसे बिछुड़कर भटक जाते हैं, लेकिन प्रयास करने पर वे मिल भी जाते हैं। जीवन में बिछुड़ने और मिलने का क्रम चलता ही रहता है। यदि जीवन है तो मिलन भी अवश्य होगा; अत: किसी के बिछुड़ने से तुम्हें चिन्तित नहीं होना चाहिए। धीरे-धीरे दुःख स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।

काव्यगत सौन्दर्य―

भाषा―साहित्यिक खड़ी बोली।

शैली―भावात्मक और प्रबन्ध।

  रस―करुण और शान्त।

 शब्द-शक्ति-व्यंजना। 

गुण–प्रसाद। 

अलंकार- रूपक।



4. श्रद्धा रुकी कुमार श्रान्त था

                                मिलता है विश्राम यहीं,
चली इड़ा के साथ जहाँ पर
                               वह्नि-शिखा प्रज्वलित रही।
सहसा धधकी वेदी-ज्वाला
                               मंडप आलोकित करती,
कामायनी देख पायी कुछ
                              पहुँची उस तक डग भरती।
और वही मनु! घायल सचमुच
                                तो क्या सच्चा स्वप्न रहा?
“आह प्राण प्रिय! क्या यह? तुम यों?”
                               घुला हृदय, बन नीर बहा।
इड़ा चकित, श्रद्धा आ बैठी
                               वह थी मनु को सहलाती,
अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था
                                व्यथा भला क्यों रह जाती?


सन्दर्भ- 

पूर्ववत्।


प्रसंग- 

प्रस्तुत पंक्तियों में मूर्च्छित मनु को देखकर श्रद्धा के हृदय में उत्पन्न भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।



व्याख्या-

 इड़ा की सहानुभूतिपूर्ण बातों को सुनकर श्रद्धा वहीं रुक गयी। उसका बेटा भी बहुत थक गया था और वहाँ आश्रय भी मिल रहा था। श्रद्धा तब इड़ा के साथ उस स्थान की ओर चल दी, जहाँ पर आग की लपटें उठ रही थीं। सहसा यज्ञवेदी की अग्नि धधक उठी, जिससे मण्डप में प्रकाश फैल गया। श्रद्धा ने वहाँ कुछ देखा और कदम बढ़ाती हुई वहाँ तक जा पहुँची। उसने वहाँ मनु को घायल अवस्था में देखा। श्रद्धा सोचने लगी कि क्या मेरा स्वप्न सच्चा निकला? वह चीख उठी-“आह प्राणप्रिय ! यह क्या हो गया? तुम इस दशा में क्यों हो?” ऐसा कहते हुए उसका मन भर आया और उसके नेत्रों से आँसू बहने लगे। यह देखकर इड़ा चकित रह गयी। श्रद्धा अपने पति मनु के पास बैठकर उनके शरीर पर हाथ फेरने लगी। उसका वह स्पर्श मरहम के समान कोमल एवं कष्ट हरनेवाला था; तब मनु के हृदय में पीड़ा क्यों शेष रहती?


काव्यगत सौन्दर्य:-

भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली

शैली- चित्रात्मक।

रस- करुण।

अलंकार- रूपक है।



5. उस मूञ्छित नीरवता में कुछ

                           हलके से स्पन्दन आये,
आँखें खुली चार कोनों में
                            चार बिन्दु आकर छाये।
उधर कुमार देखता ऊँचे
                           मन्दिर, मण्डप, वेदी को,
यह सब क्या है नया मनोहर
                           कैसे यह लगते जी को?



सन्दर्भ- 

पूर्ववत्।


प्रसंग-

 इन पद्य-पंक्तियों में प्रसादजी ने श्रद्धा और मनु के मिलने का मार्मिक चित्रण किया है।


व्याख्या- 

श्रद्धा अपने पति मनु को घायल और मूच्छित देखकर ‘प्राणप्रिय’ कहकर उनके पास बैठ गयी और उनको सहलाने लगी। श्रद्धा का सुखद एवं मधुर स्पर्श पाकर शब्दहीन, चुपचाप मूच्छित पड़े मनु के शरीर में हल्की-सी हलचल उत्पन्न हो गयी। मनु ने आँखें खोलीं और एक-दूसरे को प्रेमपूर्वक देखते रहे, तब दोनों की आँखों से पश्चाताप के आँसू बहने लगे।

उधर श्रद्धा का पुत्र मानव यज्ञभूमि के ऊँचे मन्दिर, यज्ञ-मण्डप और यज्ञ की वेदी को देख रहा था, वह सोचने लगा कि यह सब कितना मोहक, सुन्दर और नवीन है, जो मेरे मन को आकर्षित कर रहा है।


काव्यगत सौन्दर्य:-

भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली ।

शैली- भावात्मक, चित्रात्मक।

रस- शृंगार।

छन्द- माधुर्य ।



6.  माँ ने कहा-‘अरे आ तू भी

                          देख पिता हैं पड़े हुए’

‘पिता! आ गया लो’ यह कहते

                          उसके रोएँ खड़े हुए।

माँ जल दे, कुछ प्यासे होंगे

                          क्या बैठी कर रही यहाँ?’

मुखर हो गया सूना मंडप

                          यह सजीवता रही कहाँ?

आत्मीयता घुली उस घर में

                           छोटा-सा परिवार बना,

छाया एक मधुर स्वर उस पर

                           श्रद्धा का संगीत बना।




सन्दर्भ- 

पूर्ववत्।


प्रसंग- 

इन पंक्तियों में श्रद्धा अपने पुत्र को मनु से मिलवाती है। सबके मिलन पर छोटे-से परिवार में आत्मीयता का भाव भर जाता है।


व्याख्या- 

मनु के होश में आने पर श्रद्धा ने अपने पुत्र से कहा कि तू भी आकर अपने पिता के दर्शन कर ले । ये भूमि पर लेटे हुए हैं – माँ का कथेनें:सुनते ही उसने पितोकेपीस”जोकर कहा-पंतीर्जी’ ! देखों मैं आपके पास आ गया।” पिंतों से बँतकरं पुत्र को अति प्रसन्नत हुई । दनों हरिसँचित हो गये। | पुत्र अपनी माँ ( श्रद्धा) से बोला कि माताजी आप यहाँ बैठी क्या कर रही हो? पिताजी प्यासे होंगे, इन्हें जल लाकर दो। बालक की मधुर ध्वनि से मण्डप में ऐसी सजीवता छा गयी, जो पहले नहीं थी। | इस प्रकार उस घर में पुन: अपनेपन का भाव भर गया। श्रद्धा, मनु और कुमार के मिलने से वहाँ एक छोटा-सा परिवार बन गया। उस परिवार में श्रद्धों का मधुर स्वर संगीत बनकर छा गया।


काव्यगत सौन्दर्य:-


भाषा- शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली

शैली- चित्रात्मक, संलाप।

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