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अध्याय 8 माखनलाल चतुर्वेदी (जवानी) सन्दर्भ सहित व्याख्या

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 अध्याय 8

माखनलाल चतुर्वेदी

जवानी 


पद्यांश 1


प्राण अन्तर में लिये, पागल जवानी।

कौन कहता है कि तू विधवा हुई, 

खो आज पानी? चल रही घड़ियाँ, 

चले नभ के सितारे, चल रही नदियाँ, 

चले हिम-खण्ड प्यारे; चल रही है साँस, 

फिर तू ठहर जाये ? दो सदी पीछे कि तेरी लहर जाए ?

पहन ले नर-मुंड-माला, उठ स्वमुंड सुमेरु कर ले,

भूमि-सा तू पहन बाना आज धानी प्राण तेरे साथ हैं, उठ री जवानी ! 


संदर्भ -

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के पद्य खंड के जवानी शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित हिमकिरीटनी से ली गई है।

 प्रसंग-

 इन पंक्तियों में कवि देश की युवाओं को देश के उत्थान के कार्यों में प्रवृत्त होने के लिए प्रेरणा दे रहे हैं।

 व्याख्या -

कवि देश के युवा वर्ग को प्रेरित करते हुए कहते हैं कि है युवा-वर्ग! तुम अपने अंदर असीम उत्साह शक्ति और सजीव सकारात्मक प्राण-तत्व को समेटे हुए हो। तुम शक्ति स्रोत हो। अपनी शक्ति को पहचानो। पुनः वे स्वयं युवा-वर्ग से पश्न करते हैं कि किसने तुमसे कहा कि तुम निस्तेज हो गए हो या तुमने अपनी पानी(तेज) रूपी प्रति को खो दिया है।

 मैं आज जिधर भी अपनी दृष्टि फेरता हूं, उधर ही गति की गति देखता हूं। वह कहते हैं काल (समय) निरंतर गतिवान है। आकाश के सितारे निरंतर गतिशील हैं। नदियां, पर्वतों से निकलने के बाद रुकती नहीं अर्थात चलाएमान रहती हैं।

 पहाड़ों पर बर्फ के टुकड़े सरक-सरक कर अपनी गति का प्रदर्शन कर रहे हैं। प्राणी मात्र की सांसे भी निरंतर चल रही हैं। इस सर्वत्र गतिशील वातावरण में ऐसा कैसे संभव है कि तुम ठहर जाओ? इस गतिमान समय में यदि तू ठहर गई और तुझ में गति का ज्वार भाटा ना आया तो तू दो शताब्दी पिछड़ जाएगी। समय बीत जाने पर जब तुम्हें तरंगे उठेगी तो उन तरंगों में दो शताब्दी पीछे वाली गति होगी।

कवि कहता है कि हे नवयुवक की जवानी! तू उठ और दुर्गा की बात मनो होकर मुंडो की माला पहन ले! नर मुंडो की इस माला में अपने सिर को सुमेरू बना अर्थात बलिदान के क्षेत्र में सबसे  ऊपर रह।

 वह कहते हैं कि यदि समर्पण की स्थिति आ जाए तो तुम देश के लिए खुद को समर्पित भी कर दो, पीछे मत हटो; जैसे पृथ्वी हरे धानों की हरियाली से जीवंत हो उठती है, वैसे ही युवा भी उत्साह से भर कर अपनी नियत कार को करें। जीवन का उद्गम उनका प्राण साथ में है। अतः उस प्राण शक्ति के साथ आलस्य का त्याग करके अपने कर्तव्यों का पालन युवा वर्ग करें तथा आगे बढ़े।


 काव्यगत सौंदर्य

 भाषा - सहज और सरल खड़ी बोली

 शैली - उद्बोधन ।

गुण - ओज।

रस - वीर।

छन्द - तुकांत -मुक्त।

शब्द शक्ति - अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार।


पद्यांश 2


द्वार बलि का खोल चल, भूडोल कर दें

एक हिम-गिरि एक सिर का मोल कर दें,

मसल कर, अपने इरादों-सी, उठा कर,

दो हथेली हैं कि पृथ्वी गोल कर दें?

रक्त है ? या है नसों में क्षुद्र पानी !

जाँच कर, तू सीस दे-देकर जवानी ? 


संदर्भ:-

 पूर्ववत्

 प्रसंग:-

 माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रवादी कवि हैं। 'जवानी' कविता से वे देश के युवाओं का उद् बोधित और प्रेरित करते हुए उन्हें उत्साहित कर रहे हैं कि वे देश की वर्तमान परिस्थितियों को बदल दें।

 व्याख्या:-

 कवि युवाओं को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि हे युवावर्ग! तुम अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान का द्वार खोल दो। तुम चलो, आगे बढ़ो। तुम्हारे आगे बढ़ते उत्साहित कदमों में इतनी शक्ति हो उस पर से पृथ्वी कम्पित हो उठे।

हिमालय की रक्षा के लिए तुम सब अपने एक एक सिर को समर्पित कर दो, अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दो। तुम्हारी इरादे (संकल्प) अत्यंत मजबूत हो और तुम अपने इरादे रूपी हथेलियों को ऊंचे संकल्पों के समान उठाकर पृथ्वी को मसलकर गोल कर दो अर्थात् तुम अपने संकल्पों को दृढ़ करके कठिन-से-कठिन काम करने में सामर्थ्यवान बनो।

 हे वीरों! तुम अपनी युवावस्था की परख अपने शीश देकर कर सकते हो। इस बलिदानी परीक्षण से तुम्हें यह भी ज्ञात हो जाएगा कि तुम्हारी धमनियों में शक्तिशाली रक्त दौड़ रहा है अथवा उनमें केवल पानी भरा हुआ है।

 काव्यगत सौंदर्य

भाषा - शुद्ध परिमार्जित खड़ी बोली। 

शैली - उद्बोधन। 

गुण - ओज।

रस - वीर ।

छंद - तुकांत -मुक्त।

 शब्द शक्ति- व्यंजना।

 अलंकार - अनुप्रास अलंकार, उपमा अलंकार।


पद्यांश 3

वह कली के गर्भ से फल—रूप में, अरमान आया !

देखें तो मीठा इरादा, किस तरह, सिर तान आया ।

डालियों ने भूमि रुख लटका दिया फल देख आली !

मस्तकों को दे रही संकेत कैसे, वृक्ष-डाली ! [2016]

फल दिये? या सिर दिये तरु की कहानी—

गॅथकर युग में, बताती चल जवानी !


संदर्भ -

 पूर्ववत्


प्रसंग:-

 इन पंक्तियों में कवि ने अपनी ओजस्वी बाणी में वृक्ष और उसके फलों के माध्यम से युवकों के देश के लिए बलिदान होने की प्रेरणा प्रदान की है।


 व्याख्या:-

 कवि युवाओं को प्राकृति के माध्यम से देश हित के लिए स्वयं को समर्पित करने का आग्रह करते हुए कहते हैं कि हे युवाओं! फल से लदे हुई वृक्षों की ओर देखो, जो कि पृथ्वी की और अपना सिर झुकाए हुए हैं। जिस प्रकार कली के भीतर से झांकते फल कली के संकल्पों को बता रहे हैं, उसी प्रकार तुम्हारे हृदय से भी बलिदान हो जाने का संकल्प प्रकट हो जाना चाहिए। अर्थात् देश के युवाओं तुम्हें भी अपने भीतर देश की रक्षा के लिए दृढ़ संकल्प लेना होगा दूसरों की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने के लिए तत्पर रहना होगा। वृक्षों ने अपने मस्तक रूपी फलों का बलिदान के लिए दे दिया है, अब तुम भी उनके इस आत्म बलिदान की परंपरा को अपने आचरण में आत्मसात् कर लो और युग की आवश्यकतानुसार स्वयं को उसकी प्रगति रूपी माला में गुथंते हुए आगे बढ़ते रहो।


काव्य गत सौन्दर्य 

 भाषा - ओजपूर्ण खड़ी बोली।

 शैली - उद्बोधन ।

रस - वीर।

छन्द - तुकांत -मुक्त।

शब्द शक्ति - व्यंजना।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, रूपक अलंकार 


पद्यांश 4

श्वान के सिर हो—चरण तो चाटता है!

भौंक ले—क्या सिंह को वह डाँटता है?

रोटियाँ खायीं कि साहस खो चुका है,

प्राणि हो, पर प्राण से वह जा चुका है।

तुम न खेलो ग्राम-सिंहों में भवानी !

विश्व की अभिमान मस्तानी जवानी !


संदर्भ :-

पुर्ववत्


प्रसंग :-

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने स्वाभिमान के महत्व पर प्रकाश डालते हुए युवकों से उसे किसी भी कीमत पर ना खोने का आह्वान किया है।


 व्याख्या:-

 कवि कहता है कि कहने को सिर तो कुत्ते का भी होता है, और उसमें स्वाभिमान तो नहीं होता। वह अपनी श्रद्धा की तृप्ति के लिए दूसरों की चाटुकारी करता फिरता है और उसके पैरों को चटता रहता है। इसलिए स्वाभिमान की कमी के कारण उसे कोई नहीं पूछता।


उसकी आवाज कितनी भी तेज क्यों ना हो, परंतु उसमें इतना साहस नहीं होता कि उसे भौंकने से सिंह डर जाए, क्योंकि दूसरे की रोटियां खाते ही उसका स्वाभिमान तथा साहस नष्ट हो जाता है। अर्थात् वह जीवित होते हुए भी मरा हुआ-सा प्रतीत होता है।


अत: देश के शक्तिस्वरूप नवयुवकों! तुम्हें भी अपने स्वाभिमान की रक्षा करनी है और पराधीन नहीं रहना है कुत्तो की तरह रोटी के टुकड़ों के लिए अपने स्वाभिमान को नहीं खोना है। तुम्हें अपनी प्रचंड दुर्गा जैसी असीम शक्ति को आपसी झगड़ों में नष्ट नहीं करना है, अपितु उसे देश के दुश्मनों के संघार में लगाना है। तुम्हारी ऐसी मस्तानी जवानी का सारी दुनिया लोहा मानती है।


काव्य गत सौन्दर्य

भाषा - परिमार्जित खड़ी बोली।

 शैली - उद्बोधन ।

रस - वीर।

छन्द - तुकांत -मुक्त।

शब्द शक्ति - व्यंजना।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, रूपक अलंकार ।



पद्यांश 5

ये न मग हैं, तव चरण की रेखियाँ हैं,

बलि दिशा की अमर देखा-देखियाँ हैं।

विश्व पर, पद से लिखे कृति लेख हैं ये,

धरा तीर्थों की दिशा की मेख हैं ये !

प्राण-रेखा खींच दे उठ बोल रानी,

री मरण के मोल की चढ़ती जवानी।



संदर्भ :-

पूर्ववत 


प्रसंग:-

 इस काव्यांश में कवि युवा वर्ग से स्वयं को बलिदान करने का आग्रह कर रहे हैं।


 व्याख्या:-

 कवि कह रहे हैं कि ये मार्ग जो तुम्हारे समक्ष है, तुम्हें दिखाई दे रहे हैं, ये पूर्वजों के आदर्शों की चिह्न है। इन मार्गों का निर्माण तो युवाओं ने ही किया है। युवा उन मार्गों का निर्माण करते हैं, जो उन्हे बलिवेदी की दिशा की ओर ले जाते हैं। युवाओं के लिए यह आवश्यक भी है कि वह अपने पूर्वजों का अनुसरण करते हुए अथवा दूसरों की देखा देखी करते हुए बलिदान के मार्ग पर चलने के लिए तत्पर रहें। वीर युवा अपने प्राण की परवाह किए बिना बलिदान मार्ग की ओर आगे बढ़े और अपने प्राण की चिंता किए बिना नए पथ का निर्माण करें। बलिदान का मार्ग एक साधारण मार्ग नहीं है अपितु यह तो संसार पथ पर पैरों से लिखे कार्य रूपी लेख हैं। इन लेखों में बलिदान रुपी सत्कर्मों की सुगंध है। उन लेखों में सत्कर्म करने का संकल्प भी निहित है। यह पवित्र मार्ग पृथ्वी के तीर्थों की दिशा निर्धारित करने वाले स्तंभ के समान हैं। कवि युवाओं को संबोधित और प्रेरित करते हुए कहते हैं कि हे युवाओं! तुम अपने प्राणों की रेखा खींच दो अर्थात् प्राणों को स्वतंत्र की बलिवेदी पर उत्सर्ग करो, एक अमिट छाप छोड़ जाओ, जिसमें तुम्हें युगो-युगो तक याद किया जा सके। हे युवाशक्ति! तुम अपने मौन को बंद करो और उठ कर बोलो कि जवानी का महत्व ही राष्ट्र के लिए जीवन का बलिदान करने में है।


काव्य गत सौन्दर्य

भाषा - खड़ी बोली।

 शैली - प्रतीकात्मक और उद्बोधनात्मक।

गुण - ओज।

रस - वीर।

छन्द - तुकांत-मुक्त ।

शब्द शक्ति - व्यंजना।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार , रूपक अलंकार।


पद्यांश 6

टूटता-जुड़ता समय—‘भूगोल’ आया,

गोद में मणियाँ समेट ‘खगोल’ आया,

क्या जले बारूद?—हिम के प्राण पाये !

क्या मिला? जो प्रलय के सपने में आये।

धरा? यह तरबूज है दो फाँक कर दे,

चढ़ा दे स्वातन्त्र्य-प्रभु पर अमर पानी !

विश्व माने—तू जवानी है, जवानी !




संदर्भ:-

पूर्ववत्


 प्रसंग:-

 प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने युवकों को देश के गौरव की रक्षा के लिए देश में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए उन्हें प्रेरित और प्रोत्साहित किया है।


 व्याख्या:-

 कवि कहते हैं कि हे युवकों! समय का भूगोल हमेशा एक सा नहीं रहा। जब-जब क्रांति हुई है, तब-तब यह टूटा और जुड़ा है अर्थात नए-नए राष्ट्र बने हैं। क्रांति का सत्कार करने के लिए ब्रह्मांड जिन तारक मणियों को अपनी गोद में लेकर प्रकट हुआ है, वे खगोलीय विस्फोट की अमूल्य भेंट है। अतः तुम्हारा स्वभाव इतना ओजस्वी होना चाहिए, जिससे कि विश्व का मानचित्र और बदला जा सके। हे युवकों! तुम्हें चाहिए कि तुम अपनी जीवन की जगमगाहट से देश के गौरव को प्रकाशित करो, किंतु जिनके हृदय बर्फ की तरह ठंडे पड़ गए हैं, वे उस प्रकार की क्रांति नहीं कर सकते, जिस प्रकार ठंडा बारूद नहीं जल सकता है।


हे युवकों! तुम यदि प्रलय की भांति पराधीनता और अन्याय के प्रति क्रांति नहीं कर सकते, तो तुम्हारी जवानी व्यर्थ है। यदि तुम चाहो तो पृथ्वी को भी तरबूज की तरह चीर सकते हो। हे देश के युवकों की जवानी! तू यदि देश की आजादी के लिए स्वतंत्रता रूपी ईश्वर पर अपने रक्त रूपी अमर पानी चढ़ा दे तो तू अमर हो जाएगा और संसार में तेरा उदाहरण देकर तुझे सराहा जाएगा।


 काव्यगत सौंदर्य 


भाषा - साहित्य खड़ी बोली

शैली - प्रवाहमयी तथा ओजपूर्ण।

गुण ओज।

रस - वीर ।

छन्द - तुकांत-मुक्त।

 शब्द शक्ति - लक्षणा एवं व्यंजना।

 अलंकार - अनुप्रास अलंकार , रूपक अलंकार।


पद्यांश 7

लाल चेहरा है नहीं—फिर लाल किसके?

लाल खून नहीं ? अरे, कंकाल किसके ?

प्रेरणा सोयी कि आटा-दाल किसके?

सिर न चढ़ पाया कि छापा-माल किसके ?

वेद की वाणी कि हो आकाश-वाणी,

धूल है जो जग नहीं पाई जवानी।


संदर्भ:-

पूर्ववत् 


 प्रसंग:-

 प्रस्तुत पद्यांश में माखनलाल जी युवाओं को वीर-युवकों के लक्षण समझा रहे हैं।


 व्याख्या:-

 कवि युवाओं में उत्साह का संचार करते हुए कहते हैं कि यदि तुम्हारे चेहरे पर उत्साह एवं जोश जोश की लालिमा नहीं है और तुम्हारे मस्तक का तेज समाप्त हो गया है तो तुम भारत माता की संतान कहलाने का अधिकार खो चुके हो। यदि तुम्हारे रक्त में ओजस्विता उष्णता का गुण नहीं है, तुम्हारा शरीर मात्र अस्थि-पंजर है उसकी कोई उपयोगिता नहीं है।


कवि कहते हैं कि यदि तुम्हारे भीतर देश रक्षा की प्रेरणा एवं उसकी इच्छा सो गई है यह समाप्त हो गई है, तो तुम्हारा जीवन देश के लिए व्यर्थ हैं और शत्रुओं के लिए एवं भोजन मात्र हों।

कवि कहते हैं कि धार्मिक क्रिया- कलापों अर्थात माला जपने या तिलक लगाने का औचित्य भी तब ही है, जब तुम्हारे अंदर देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने का सामर्थ्य हो। वह कहते हैं कि वेदों की उक्तियां हो या आकाश से उत्पन्न वेद वाणी , अगर उसमें युवाओं का जोश, उत्साह एवं अद्म्य साहस उत्पन्न करने का गुण विद्यमान नहीं है, तो वेदों और देववाणी भी व्यर्थ है।


 काव्यगत सौंदर्य 


भाषा - साहित्य खड़ी बोली

शैली - प्रवाहमयी तथा ओजपूर्ण।

गुण - ओज।

रस - वीर ।

छन्द - तुकांत-मुक्त।

शब्द शक्ति - व्यंजना।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार , रूपक अलंकार।


पद्यांश 8

विश्व है असि का?— नहीं संकल्प का है!

हर प्रलय का कोण काया-कल्प का है;

फूल गिरते, शूल शिर ऊँचा लिये हैं;

रसों के अभिमान को नीरस किये हैं।

खून हो जाये न तेरा देख, पानी,

मरण का त्यौहार, जीवन की जवानी ! 


संदर्भ:-

 पूर्ववत्


 प्रसंग :-

इन पंक्तियों में कभी युवाओं को क्रांति का दूत मानते हुए उन्हें मातृभूमि के लिए आत्मोसर्ग करने की प्रेरणा दे रहे हैं।


 व्याख्या:-

 कवि युवाओं को क्रांति के लिए उत्साहित करते हुए उनसे पूछते हैं कि क्या यह संसार केवल तलवार का है? क्या इस संसार को तलवार या अन्य हिंसक हत्यारों से ही जीता जा सकता है ? कवि अपने प्रश्नों के लिए स्वयं ही उत्तर देते हुए कह रहे हैं कि यह संसार केवल दृढ़ संकल्प वाले व्यक्तियों के लिए हैं, तलवार का नहीं हिंसक हथियारों का नहीं। इस संसार को दृढ़ संकल्प से ही जीता जा सकता है। संसार के प्रत्येक प्रलय का उद्देश्य संसार में क्रांति परिवर्तन लाना होता है। इसी प्रकार युवा वर्ग यदि किसी बात के लिए संकल्प कर ले तो क्रांति आ सकती है एवं परिवर्तन प्रारंभ हो सकता है। अतः युवाओं को अपने संकल्प से क्रांति के लिए आगे आना चाहिए। 

व्यक्ति के अंदर यदि दृढ़ संकल्प ना हो तो उसका पतन शुरू हो जाता है। कोमल पुष्प हवा के हलके झोंके से ही जमीन पर गिर जाता हैं और अपना सौंदर्य खो बैठते हैं, परंतु कठोर कांटे आंधी और तूफान में भी अपने अपना सीना गर्व से ताने खड़े रहते हैं। हे युवा-वर्ग! दृढ़ संकल्प से उत्पन्न आत्मोसर्ग की भावना कवि विचलित नहीं होती है। कांटे फूलों की कोमलता और उसके सौन्दर्य के अभिमान को अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति से नष्ट कर देते हैं।

 कवि युवाओं से कहता है कि हे युवा-वर्ग! तुम्हारी नसों के रक्त में जो उत्साह है, जो उष्णता है, वह जोश शीतल होकर नष्ट ना हो जाए। जवानी उसी का नाम है, जो मृत्यु को त्योहार अर्थात् उल्लास का क्षण माने।मरण का त्यौहार अर्थात् बलिदान का दिन ही जवानी का सबसे आनंदमय दिन होता है।


काव्य गत सौन्दर्य


भाषा - खड़ी बोली।

शैली - उद् बोधानात्मक।

गुण ओज।

रस - वीर ।

छन्द - तुकांत-मुक्त।

 शब्द शक्ति - लक्षणा एवं व्यंजना।

 अलंकार - अनुप्रास अलंकार , रूपक अलंकार।






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