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रस की परिभाषा,विभाव, अनुभाव व संचारी भाव किसे कहते है तथा हास्य रस और करुण रस की परिभाषा

 रस 


रस का अर्थ

 काव्य को पढ़ने या सुनने से जो आनंद प्राप्त होता है, उसे रस कहते हैं। इसको काव्य की आत्मा भी कहा जाता है। रस को निम्न प्रकार से प्रभाषित किया जाता है।

 भरतमुनि के अनुसार, “विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।” 


रस के अवयव/अंग 


स्थायी भाव :-

स्थायी भाव का अर्थ है—प्रधान भाव। जो भाव मनुष्य के हृदय में सदैव स्थायी रूप से विद्यमान होते हैं, उन्हें स्थायी भाव कहते हैं। स्थायी भाव की संख्या 9 मानी गई है, किंतु बाद में आचार्यों ने दो और भावों( वात्सल्य और भक्त रस) का स्थायी भाव मान लिया। इस प्रकार स्थायी भाव की संख्या 11 हो गई है। जो चित्र में निम्न प्रकार है।




विभाव:-


 जो व्यक्ति, वस्तु, परिस्थितियां और स्थायी भाव को जाग्रत करते हैं, उन कारणों को विभाव कहते हैं। विभाव दो प्रकार के होते हैं— आलंबन विभाव और उद्दीपन विभाव।


(i) आलंबन विभाव किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण किसी व्यक्ति के मन में जब कोई स्थायी भाव जाग्रत होता है, तो उस व्यक्ति या वस्तु को उस भाव का 'आलंबन विभाव' कहते हैं।


 उदाहरण यदि किसी व्यक्ति के मन में मगरमच्छ को देखकर भय का स्थायी भाव जाग्रत हो जाए, तो यहां मगरमच्छ उस व्यक्ति के मन में उत्पन्न भय नामक स्थायी भाव का आलंबन विभाव होगा।


(ii) उद्दीपन विभाव जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव बढ़ने या तीव्र होने लगता है, वह उद्दीपन विभाव कहलाते हैं; जैसे— एकांत स्थल, चांदनी, कोकिल कुजन , नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएं आदि।


 उदाहरण कृष्ण मुरली बजाकर आकर्षित करते हैं, तो यहां 'मुरली' उद्दीपन विभाव है।


अनुभाव :-

भाव का बोध कराने वाले कारण तथा मानव मन में स्थायी भाव के जागने पर जो शारीरिक चेष्टाएं दिखाई देती हैं, उन्हें अनुभाव कहते हैं; जैसे— भेड़िए को देखकर भय से कांपना या बचाव के लिए जोर जोर से चिल्लाना ।


अनुभाव के चार भेद होते हैं

(i) कायिक शरीर की बनावटी चेष्टा को कायिक अनुभाव कहते हैं।

 (ii) मानसिक हृदय की भावना के अनुकूल मन में आनंद, सुख, दु:ख या मस्तिष्क में तनाव आदि से उत्पन्न होने वाले भाव, मानसिक अनुभाव कहलाते हैं।


(iii) आहार्य मन में भाव के अनुसार अलग-अलग प्रकार की बनावटी वेश-भूषा रचना करने को आहार्य अनुभाव कहते हैं।

(iv) सात्विक जो अनुभाव मन में आए भाव के कारण स्वयं प्रकट हो जाते हैं, सात्विक भाव कहलाते हैं। ऐसे शारीरिक विकारों पर आश्रय का कोई वश नहीं चलता है।

 सात्विक अनुभाव आठ प्रकार के होते हैं

(क) स्तंभ (शरीर के अंगो का जड़ हो जाना)

(ख) स्वेद (पसीने से तर हो जाना)

(ग) रोमांच (रोंगटे खड़े हो जाना)

(घ) स्वर भंग (आवाज न निकलना) 

(ङ) कम्प (कांपना)

(च) विवर्णता (चेहरे का रंग उड़ जाना) 

(छ) आश्रु (आंसू) 

(ज) प्रलय (सुध- बुध खो देना)



संचारी / व्यभिचारी भाव:–


आश्रय के मन में उत्पन्न होने वाले अस्थिर मनोविकारों को संचारी भाव कहते हैं। भरतमुनि के अनुसार, ये पानी में उठने और अपने अपने आप विलीन होने वाले बुलबुलों के समान हैं।


 हास्य रस:-

किसी पदार्थ या व्यक्ति की असाधारण आकृति, विचित्र वेशभूषा, अनोखी बातों, चेस्टाओं आदि से हृदय में जो विनोद का भाव जाग्रत होता है, उसे हास रस कहते हैं। यही हास जब स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव, संचारी भावों में पुष्ट हो जाता है, तो 'हास्य रस' कहलाता है।

उदाहरण

“ गोपियां कृष्ण को बाला बना, 

बृष भावन के भवन चली मुस्कातीं 

वहां उनको निज सजनि बता, 

रहीं उसके गुणों को बतलातीं। 

स्वागत में उठ राधा ने ज्यों,

निज कण्ठ लगाया, तो वे थीं ठठातीं 

'होली है, होली है, कहके तभी 

सब भेद बताकर खूब हंसातीं।”


अन्य उदाहरण

उदाहरण-1

“नाना वाहन नाना वेषा। विंहसे सिव समाज निज देखा॥

कोउ मुखहीन, बिपुल मुख काहू बिन पद कर कोड बहु पदबाहू॥’


स्पष्टीकरण-

स्थायी भाव- हास

आलम्बन विभाव- शिव समाज

आश्रयालम्बन- स्वयं शिव

उद्दीपन- विचित्र वेशभूषा

अनुभाव- शिवजी का हँसना

संचारी भाव- रोमांच, हर्ष, चापल्य


उदाहरण-2


“बिन्ध्य के बासी उदासी तपोव्रतधारि महा बिनु नारि दुखारे।

गौतमतीय तरी तुलसी, सो कथा सुनि भै मुनिबृन्द सुखारे॥

है हैं सिला सब चन्द्रमुखी, परसे पद-मंजुल कंज तिहारे।

कीन्हीं भली रघुनायक जू करुना करि कानन को पगु धारे॥”


स्पष्टीकरण-


स्थायी भाव- हास

आश्रयालम्बन- पाठक

आलम्बन- विन्ध्य के उदास वासी

उद्दीपन- गौतम की स्त्री का उद्धार, स्तुति, कथा सुनना, राम के आगमन पर प्रसन्न होना

अनुभाव- हँसना, मुनियों की कथा आदि सुनना

संचारी भाव- हर्ष, स्मृति आदि


 करुण रस :-

जब किसी प्रिय व्यक्ति अथवा मनचाही वस्तु के नष्ट होने या उसका कोई अनिष्ट होने पर, हृदय में जो शोक उत्पन्न होता है, करुण रस कहलाता है। इसमें विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के मेल से स्थायी भाव 'शोक' का जन्म होता है।


 उदाहरण


जो भूरि भाग्य भरी विदित थी निरुपमेय सुहासिनी।

हे हृदयबल्लभ! हूं वही अब मैं महा हतभागिनी।। 

जो साथिनी होकर तुम्हारी थी अतीव सनाथिनी।

है अब उसी मुझ-सी जगत में और कौन अनाथिनी।।

अन्य उदाहरण

उदाहरण 1

सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।

धोति फटी-सी लटी दुपटी अरु, पाँय उपानह की नहिं सामा।।

द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।

पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा।।



उदाहरण 2

ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।

हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये।।

देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।

पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये।।


 श्रृंगार रस:–


सहृदय के बिस में रति नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग होता है तो वह श्रृंगार रस का रूप धारण कर लेता है। उसके दो भेद होते हैं- संयोग और वियोग, इन्हें क्रमशः संभोग एवं विप्रलंभ कहते हैं। 


(1) संयोग श्रृंगार—नायक और नायिका के मिलन का वर्णन संयोग श्रृंगार कहलाता है। 

उदाहरण-


कौन हो तुम बसंत के दूत

विरस पतझड़ में अति सुकुमार ;

घन तिमिर में चपला की रेख

तपन में शीतल मंद बयार!


 इसमें रति स्थायी भाव है। आलम्बन विभाग है- श्रद्धा (विषय) और मनु (आश्रय) उद्दीपन विभाव एकान्त प्रदेश, श्रद्धा की कमनीयता, कोकिलकण्ठ, रम्य परिधान संचारी भाव है- आश्रय मनु के हर्ष, चपलता, आशा, उत्सुकता आदि भाव।


 इस प्रकार विभावादि से पुष्ट रतिः स्थायी भाव शृंगार रस की दशा को प्राप्त हुआ है।


रौद्र रस:–

 विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से क्रोध नामक स्थायी भाव रौद्र रस का रूप धारण कर लेता है।

उदाहरण:–

ज्वलल्ललाट पर अदम्य, तेज वर्तमान था 

प्रचण्ड मान भंग जन्य, क्रोध वर्तमान था 

ज्वलन्त पुच्छ-बाहु व्योम में उछालते हुए 

अराति पर असा अग्नि-दृष्टि डालते हुए 

उठे कि दिग-दिगन्त में अवर्ण्य ज्योति छा गई। 

कपीश के शरीर में प्रभा स्वयं समा गई।



इस पद में लंका में हनुमानजी की पूंछ के जलाये जाने पर उनकी प्रतिक्रिया का वर्णन है। यहाँ क्रोध स्थायी भाव है। हनुमान् आश्रय हैं। शत्रु आलम्बन है। राक्षसों का सामने पड़ना उद्दीपन, पूँछ का आकाश में उछालना, अग्नि दृष्टि डालना, तन का तेज आदि अनुभाव है। आवेश, चपलता उग्रता आदि संचारी भाव हैं। इन सबसे पुष्ट क्रोध स्थायी भाव ने रौद्र रस का रूप ग्रहण किया है।


वीर रस:–


विभाग अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उत्साह नामक स्थायी भाव वीर रस की दशा को प्राप्त होता है। 

उदाहरण- 

आये होंगे यदि भरत कुमति-वश वन में, 

तो मैंने यह संकल्प किया है मन में-- 

उनको इस शर का लक्ष्य चुनूँगा क्षण में, 

प्रतिषेध आपका भी न सुनूँगा रण में। 


इस पद में उत्साह स्थायी भाव है। लक्ष्मण आश्रय और भरत आलम्बन हैं उनके वन में आगमन का समाचार उद्दीपन है। लक्ष्मण के वचन अनुभाव हैं। उत्सुकता, उग्रता, चपलता आदि संचारी भाव हैं। इनसे पुष्ट उत्साह स्थायी भाव वीर रस दशा को प्राप्त हुआ है।


भयानक रस:–


विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से भय नामक स्थायी भाव भयानक रस का रूप ग्रहण करता है।

 उदाहरण- 

लंका की सेना तो कपि के गर्जन रव से कांप गई। 

हनुमान के भीषण दर्शन से विनाश ही भाँप गई। 

उस कंपित शंकित सेना पर कपि नाहर की मार पड़ी। 

त्राहि-त्राहि शिव त्राहि-त्राहि शिव की सब ओर पुकार पड़ी।



यहाँ भय स्थायी भाव है। लंका की सेना आश्रय एवं हनुमान् आलम्बन हैं। गर्जन रव और भीषण दर्शन उद्दीपन हैं। काँपना, त्राहि त्राहि पुकारना आदि अनुभाव हैं। शंका, चिन्ता, सन्त्रास आदि संचारी भाव हैं। इनसे पुष्ट भय स्थायी भाव भयानक रस को प्राप्त हुआ है।



वीभत्स रस:–


विभाव अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से जुगुप्सा (घृणा) स्थायी भाव वीभत्स रस का रूप ग्रहण करता है।

 उदाहरण-


कोउ अंतड़िनि की पहिरि माल इतरात दिखावत।

कोउ चरबी से चोप सहित निज अंगनि लावत ॥ 

कोउ मुंडनि ले मानि मोद कंदुक लौं डारता ।

कोउ रुंडनि पै बैठि करेजौ फारि निकारत।।



उपर्युक्त पद में जुगुप्सा स्थायी भाव है। श्मशान का दृश्य आलम्बन है। अंतड़ी की माला पहनकर इतरना, चोप सहित शरीर पर चर्बी का पोतना, हाथ में मुण्डों को लेकर गेंद की तरह उछालना आदि उद्दीपन विभाव है। दैन्य, ग्लानि ,निवेद आदि संचारी भाव है। इन सबसे पुष्ट जुगुप्सा स्थायी भाव वीभत्स रस दशा को प्राप्त हुआ है।


अद्भुत रस:–


विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग में विस्मय नामक स्थायी भाव अद्भुत रस की दशा को प्राप्त है। प्रकरणों में लोकोत्तरता देखकर ओ आश्चर्य होता है, उसे विस्मय कहते हैं। 

उदाहरण--


इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मति भ्रम मोरि कि आन विसेखा। 

तन पुलकित मुख वचन न आया। नयन मूदि चरनन सिर नावा।।



यहां विस्मय स्थायी भाव है। माता कौशल्या आश्रय तथा यहाँ-वहाँ दो बालक दिखायी देना आलम्बन है। 'तन पुलकित मुख वचन न ' में रोमांच और स्वरभंग अनुभाव है। जड़ता ,वितर्क आदि संचारी है, अतः यहाँ अद्भुत रस है।


 शान्त रस:–


 विभाव, अनुभव और संचारी भाव के संयोग से निर्वेद नामक स्थायी भाव शान्त रस का रूप ग्रहण करता है।


 उदाहरण:–

 अबला नसानी अब न नसैहौं।

राम कृपा भव निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं।

पायो नाम चारु चिंतामनि उर करतें न खसैहौं।

श्याम रूप सूचि रुचिर कसौटी थित कंचनहिं कसैहौं। परवस जाति हँस्यो इन इन्दिन निज बस ह्वै न हँसैहौं मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद कमल बसैहौं।



यह निर्वेद स्थायी भाव है। सांसारिक असारता और इन्द्रियों द्वारा उपहास उद्दीपन है। स्वतन्त्र होने तथा राम के चरणों में रति होने का कथन अनुभाव है। धृति, बितर्क, मति आदि संचारी हैं। इन सबसे पुष्ट निर्वेद शान्त रस को प्राप्त हुआ है।


वात्सल्य (वत्सल) रस:–


वात्सल्य नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से 'वात्सल्य रस सम्पुट होता है।


 उदाहरण:–

 जसोदा हरि पालने झुलावैं।

हररावैं दुलरावै मल्हावैं, जोइ सोइ कछु गावैं। 

मेरे लाल को आव से निंदरिया, काहे न आन सुवावैं। 

तू काहँ नहीं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावैं। 

कबहुँ पलक हरि मंदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावैं। 

सोवत जानि मौन ह्वै के रहि, करि करि सैन बतावैं। 

इहि अन्तर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरै गावैं। 

जो सुख सूर' अमर-मुनि दुर्लभ, सो नंद-भामिनी पावैं।


इसमें वात्सल्य स्थायी भाव है। यशोदा आश्रय और कृष्ण आलम्बन हैं। यशोदा का गीत गाना आदि अनुभाव है। इन सबसे पुष्ट वात्सल्य स्थायी भाव वत्सल रस दशा को प्राप्त हुआ है।


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