अध्याय 6
सुमित्रानंदन पंत
चंद्र लोक में प्रथम बार
पद्यांश 1
चंद्रलोक में प्रथम बार,
मानव ने किया पर्दापण,
छिन्न हुए लो, देश काल के,
दुर्जय बाधा बंधन!
दग्-विजयी मनु-सुत, निश्चय,
यह महत् ऐतिहासिक क्षण,
भू-विरोध हो शांत।
निकट आएं सब देशों के जन।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के चन्द्रलोक में प्रथम बार शीर्षक से उद्धृत है यह कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित ऋता काव्य संग्रह से ली गई है।
प्रसंग:-
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मानव के चंद्रमा पर पहुंचने की ऐतिहासिक घटना के महत्व को व्यक्त किया है। यहां कभी ने उन संभावनाओं का वर्णन किया है जो मानव के चंद्रमा पर पैर रखने से साकार होती प्रतीत होती हैं।
व्याख्या :-
कवि कहता है कि जब चंद्रमा पर प्रथम बार मानव ने अपने कदम रखे तो ऐसा करके उसने देशकाल के उन सारे बंधनों, जिन पर विजय पाना कठिन माना जाता था, उन्हें छिन्न-भिन्न कर दिया। मनुष्य को या विश्वास हो गया कि इस ब्रह्मांड में कोई भी देश और ग्रह – नक्षत्र अब दूर नहीं है। आज निश्चय ही मानव ने दिग्विजय प्राप्त कर ली है अर्थात उसने समस्त दिशाओं को जीत लिया है या एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षण है कि अब सभी देशों के निवासी मानवों पर परस्पर विरोध समाप्त कर एक दूसरे के निकट आना चाहिए और प्रेम से रहना चाहिए। संपूर्ण विश्व ही एक देश में परिवर्तित हो गया है। सभी देशों के मनुष्य एक दूसरे के निकट आएं, यहां यही कवि की मंगलकामना है।
काव्यगत सौंदर्य:-
भाषा - साहित्य खड़ी बोली ।
शैली - प्रतीकात्मक ।
गुण - औज।
रस - वीर।
छन्द - तुकांत-मुक्त ।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार।
पद्यांश 2
युग–युग का पौराणिक स्वप्न हुआ मानव का संभव,
समारंभ शुभ नए चंद्र–युग का भू को देव गौरव!
फाहराए ग्रह उपग्रह में धरती का श्यामल अंचल,
सुख संपद् संपन्न जगत् में बरसे जीवन–मंगल।
अमरीका सोवियत बनें
नव दिक् रचना की वाहन
जीवन पद्धतियों के भेद
समन्वित हों, विस्तृत मन!
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के चन्द्रलोक में प्रथम बार शीर्षक से उद्धृत है यह कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित ऋता काव्य संग्रह से ली गई है।
प्रसंग:-
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मनुष्य के चंद्रमा पर पहुंचने से मानव कल्याण की मनोकामना का चित्रण किया है।
व्याख्या:-
संपूर्ण संसार पुराने समय से चंद्रमा पर पहुंचने का स्वप्न देख रहा था, जो आज मनुष्य की मेहनत से संभव हुआ है। कवि का कथन है कि जब मैं चाहता हूं कि ब्रह्मांड के ग्रहों - उपग्रहों में इस पृथ्वी का आंचल फहराने लगे। तात्पर्य है कि मनुष्य अन्य ग्रहों पर भी पहुंच कर वहां पृथ्वी जैसी हरियाली और जीवन का संचार कर दे। सुख और वैभव से युक्त इस संसार में मानव जीवन के कल्याण की वर्षा हो। संपूर्ण संसार में कहीं भी दुख व्याप्त ना रहे।
अत: चारों ओर जीवन में मंगल ही मंगल हो, कवि की यही मनोकामना है। चंद्रलोक पर प्रथम बार मनुष्य के पहुंचने के पश्चात कवि की प्रार्थना है कि अमेरिका और रूस में आपसी सुख समृद्धि की प्रचुरता में वृद्धि हो और विशाल शक्ति-संपन्न देश के समस्त जीवन मार्गों में स्थापित हो और सभी का मन रूपी हृदय बड़ा व उदार बने।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - साहित्य खड़ी बोली
शैली - प्रतीकात्मक।
गुण - ओज।
रस - वीर।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार।
पद्यांश 3
अणु-युगे बने धारा जीवन हित
स्वर्ण–सृजन का साधन,
मानवता ही विश्व सत्य
भू–राष्ट्र करें आत्मार्पण!
धरा चंद्र की प्रीति परस्पर
जगत प्रसिद्ध, पुरातन,
हृदय–सिंधु में उठता
स्वार्गिक ज्वार देख चन्द्रानन!
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के चन्द्रलोक में प्रथम बार शीर्षक से उद्धृत है यह कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित ऋता काव्य संग्रह से ली गई है।
प्रसंग:-
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने अणु–युग के प्रति लोक कल्याण की भावना को प्रकट किया है। कवि चाहता है कि विज्ञान का विकास मानव के कल्याण के लिए हो।
व्याख्या:-
कवि कामना करता है कि अणु–युग का विकास मानव जाति के कल्याण के लिए हो अर्थात विज्ञान का प्रयोग मानव के विकास के लिए हो, जिससे यह पृथ्वी स्वर्ग के समान सुखी और संपन्न हो जाए। आपसी बैर–विरोध समाप्त हो जाएं तथा भाईचारे की भावना उत्पन्न हो जाए और सब मिल–जुल कर रहें। इस संसार में केवल मानवता ही सत्य है। अतः सभी राष्ट्रों को अपनी स्वार्थ भावना का त्याग कर देना चाहिए। कवि कहता है कि पृथ्वी और चंद्रमा का प्रेम संसार में प्रसिद्ध है और यह अत्यंत प्राचीन प्रेम संबंध है। माना जाता है कि चंद्रमा पृथ्वी का ही एक भाग था जो बाद में उससे अलग हो गया। आज भी पूर्णिमा के दिन चंद्रमा को देखकर समुंदर के हृदय में ज्वार आता है, मानो यह पृथ्वी और चंद्रमा की प्रेम का परिचायक हो।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा – साहित्य खड़ी बोली।
शैली - प्रतीकात्मक एवं भावात्मक।
गुण - प्रसाद ।
रस - शांत।
छंद - तुकांत - मुक्त।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार।
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