Header Ads Widget

अध्याय 7 महादेवी वर्मा (हिमालय से) संदर्भ सहित व्याख्या

Telegram Group Join Now

अध्याय 7

महादेवी वर्मा

हिमालय से



पद्यांश 1


हे चिर महान्! यह स्वर्णरशिम छू श्वेत भाल,
बरसा जाती रंगीन हास; सेली बनता है, इन्द्रधनुष,
परिमल मल मल जाता बतास! पर रंगीन तूं हिमनिधान!

संदर्भ :-

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के हिमालय से शीर्षक से उद्धृत है यह कवित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित सान्ध्य गीत से ली गई है ।

प्रसंग:-

प्रस्तुत पंक्तियों में कवित्री महादेवी जी ने हिमालय के प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन किया है।

व्याख्या:-

कवित्री हिमालय की महत्ता का वर्णन करते हुए कहती हैं कि हे हिमालय! तुम तो हमेशा से ही महान् हो अर्थात सदियों से ही तुम्हारी महानता ज्यों की त्यों बनी रही हुई है। जब सुर्य की सुनहरी किरणें सफेद बर्फ से ढके तुम्हारे मस्तक को छूती है, तब तुम्हारे चारों और रंगीन हंसी-सी फैल जाती है। बर्फ पर जब सूर्य की सुनहरी किरणें पड़ती है, तब ऐसा प्रतीत होता है; जैसे हिमालय ने अपने सिर पर इंद्रधनुषी पगड़ी बांध रखी हो। चारों और खुशी की लहर फैल गई हो। सतरंगी इंद्रधनुष तुम्हारी पगड़ी बन जाती है तथा ठंडी हवा तुम्हारे शरीर के प्रत्येक अंग को सुगंध से भर देती है, परंतु तुम तो वैरागी की भांति उदासीन ही रहते हो। तुम्हें इन वस्तुओं से किसी प्रकार का अनुराग अर्थात् प्रेम नहीं है, इसलिए तुम महान् हो।

काव्यगत सौंदर्य
भाषा - खड़ी बोली हिंदी।
शैली - चित्रात्मक एवं भावात्मक।
गुण -  माधुर्य।
रस - शांत ।
छन्द - अतुकांत–मुक्त।
शब्द शब्द - लक्षणा।
अलंकार - रूपक अलंकार ,मानवीकरण अलंकार।



पद्यांश 2

नभ में गर्वित झुकता न शीश, 

पर अंक लिए है दीन क्षार; 

मन गल जाता नत विश्व देखे, 

तन सह लेता है कुलिश–भार! 

कितने मृदु कितने कठिन प्राण!


संदर्भ :-

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के हिमालय से शीर्षक से उद्धृत है यह कवित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित सान्ध्य गीत से ली गई है । 


 प्रसंग:-

 प्रस्तुत पंक्तियों में कवित्री ने हिमालय की दृढ़ता का वर्णन किया है, साथ ही उसके प्रति अपनी भावनात्मक अनुभूति का वर्णन किया है अर्थात् हिमालय की कठोरता और कोमलता दोनों का वर्णन किया है।


 व्याख्या:-

 महादेवी जी कहती हैं कि हे हिमालय! तुम स्वाभिमान से नभ में अपना सिर गर्व से ऊंचा उठाकर खड़े हो अर्थात् तुम्हरा सिर किसी के भी सामने नहीं झुकता। तुम इतने कृपालु हो कि तुम इस दीनरूपी तुच्छ मिट्टी की धूल को अपनी गोद में लिए खड़े हो।

संसार का मस्तक अपने सामने झुका देखकर तुम्हारा मन दया से पिघल जाता है और सरिताओं के रूप में प्रवाहित होने लगता है। तुम्हारा शरीर इतना कठोर है कि तुम इस वज्र के आघात को भी सरलता से सह लेते हो, तुम भीतर से कितने कोमल हो और वाह्या रूप से कितने कठोर दिखाई देते हो।


 काव्यगत सौंदर्य

 भाषा - खड़ी बोली हिंदी 

शैली - चित्रात्मक और भावात्मक 

गुण - माधुर्य ।

रस - शांत।

छन्द - अतुकांत - मुक्त।

शब्द शक्ति - लक्षणा।

 अलंकार - अनुप्रास अलंकार, उत्प्रेक्षा अलंकार।



पद्यांश 3


टूटी है तेरी कब समाधि, 

झंझा लौटे शत हार–हार; 

बह चला दृगों से किंतु नीर! 

सुनकर जलते कण की पुकार! 

सुख से विरक्त दु:ख में समान!


संदर्भ :-

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के हिमालय से शीर्षक से उद्धृत है यह कवित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित सान्ध्य गीत से ली गई है ।


प्रसंग:-

 प्रस्तुत पंक्तियों में हिमालय की दृढ़ता का वर्णन किया गया है, साथ ही उसके प्रति अपनी भावनात्मक अनुभूति का वर्णन किया है,


 व्याख्या:-

 कवित्री कहती है कि हे हिमालय! तुम तो एक तपस्वी की भांति समाधि लगाकर बैठे हो। तुम्हारी यह समाधि कब टूटेगी। आंधी के सैकड़ों झटके तुम्हारे तुम्हें लगे, पर वे तुम्हारा कुछ न बिगाड़ सकें। तुम विचलित नहीं हुए और वे स्वयं ही हार मान कर चले गए। एक ओर तो तुम्हारे अंदर इतनी दृढ़ता यवं कठोरता है कि कोई भी बाधा तुम्हारे मार्ग की रुकावट नहीं बन सकती और दूसरी और तुम इतने सहृदय और भावुक हो कि धूप में जलते हुए कण की पुकार सुनकर तुम्हारे नेत्रों से आंसुओं की धारा फूट पड़ती है। तुम किसी का दु:ख नहीं देख सकते। तुम तो एक ही योगी हो, जो सुख से विरक्त रहते हो अर्थात् सुख की कामना नहीं करते। तुम तो सुख और दु:ख में समान भाव से ही स्थित रहते हो और यही भावना तुम्हारी उच्चता की प्रतीक है।


 काव्यगत सौंदर्य 

भाषा - खड़ी बोली हिंदी।

 शैली - गीत ।

गुण - माधुर्य ।

रस - शांत।

छन्द - अतुकांत-मुक्त 

शब्द शब्द - लक्षणा।

अलंकार - पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार ,मानवीकरण अलंकार।


पद्यांश 4

          मेरे जीवन का आज मूक,

           तेरी छाया से हो मिलाप ;

          तन तेरी साधकता छू ले ,

        मन ले करूणा की थाह नाप !

          उर में पावस दृग में विहान !


संदर्भ :-

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के हिमालय से शीर्षक से उद्धृत है यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित सान्ध्य गीत से ली गई है ।


प्रसंग:-

 प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री हिमालय को देखकर उसके गुणों को अपने मन में सहेजने की कामना करती है ।


व्याख्या:—

       महादेवी जी कहती हैं कि मैं तो यह कामना करती हूं कि मैं अपने जीवन के मौन को तुम्हारी छाया में मिला दूं अर्थात वह हिमालय के गुणों को अपने आचरण में उतारना चाहती हैं। वह कामना करती हुई कहती है कि मेरा शरीर भी तुम्हारी तरह कठोर साधना शक्ति से परिपूर्ण हो और मेरा मन इतनी करुणा से भर जाए ,जितनी करुणा तुम्हारी हृदय में भरी हुई है।


 मेरे हृदय में भी वर्षा का निवास है तथा नेत्रों में प्रातः कालीन सौंदर्य भरा हुआ है अर्थात मेरे हृदय में करुणा के कारण सरसता बनी रहें। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हिमालय सारे कष्टों को सहन करता है ,वैसे ही मैं भी संकटों से विचलित न होऊँ 


 काव्यगत सौंदर्य :—

भाषा — खड़ी - बोली हिंदी ।

 शैली — भावात्मक गीति ।

गुण — माधुर्य।

 रस — शान्त ।

छंद — अतुकान्त - मुक्त। 

 शब्द-शक्ति — लक्षणा।

अलंकार — अनुप्रास अलंकार, मानवीकरण अलंकार।







Post a Comment

0 Comments