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अध्याय 7 महादेवी वर्मा( वर्षा सुंदरी के प्रति) सन्दर्भ सहित व्याख्या

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 अध्याय 7 

महादेवी वर्मा

वर्षा सुंदरी के प्रति


पद्यांश 1

रूपसि तेरा घन-केश-पाश !

श्यामल-श्यामल कोमल-कोमल

लहराता सुरभित केश-पाश ! |

नभ-गंगा की रजतधार में ।

धो आयी क्या इन्हें रात ?

कम्पित हैं तेरे सज़ल अंग,

सिहरा सा तन है सद्यस्नात!

भीगी अलकों के छोरों से

चूती बूंदें कर विविध लास !

रूपसि तेरा घन-केश-पाश ! 



संदर्भ :–

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के वर्षा सुंदरी के प्रति शीर्षक से उद्धृत है यह कवियत्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित नीरजा से ली गई है।


 प्रसंग:-

 प्रस्तुत पंक्तियों में वर्षा श्रुति सुंदरी के रूप का वर्णन किया गया है तथा वर्षा का मानवीकरण किया गया है।


 व्याख्या:-

 महादेव जी कहती हैं कि हे वर्षा रूपी सुंदरी! तेरे घने केस रूपी जाल बादलों के सामान श्यामल हैं अर्थात् अत्यंत कोमल हैं। जो सुगंध से भरकर लहरा रहे हैं। वह सुंदरी से प्रश्न पूछ करती हैं कि– क्या तुम इन केशों को अकाश गंगा की चांदी के सामान धारा में धोकर आई हो? तेरे अंग भीगे हुए हैं और ठंड से कांप रहे हैं।


 तुम्हारे रोमांचित और सिहरते शरीर को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे कोई स्त्री अभी अभी स्नान करके आई हो। तेरे भीगे हुए बालों की लटों ओ से जल की बूंदें टपक रही है, जो नृत्य करती हुई प्रतीत हो रही है। हे सुंदरी! तेरा यह बादल रूपी बालों का समूह अत्यंत सुंदर लग रहा है।


 काव्यगत सौंदर्य

 भाषा - साहित्य खड़ी बोली।

 शैली - चित्रात्मक ।

गुण - माधुर्य ।

रस - श्रृंगार।

 छंद - अतुकान्त - मुक्त।

अलंकार - पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार, रूपक अलंकार , मानवीकरण अलंकार।



पद्यांश 2 

सौरभ भीनी झीना गीला

लिपटा मृदु अंजन-सा दुकूल;

चल अंचल में झर-झर झरते।

पथ में जुगनू के स्वर्ण-फूल;

दीपक से देता बार-बार |

तेरा उज्ज्वल चितवन-विलास !

रूपसि तेरा घन-केश-पाश ! 


संदर्भ :-

पुर्ववत्।


प्रसंग:-

 प्रस्तुत पंक्तियों में वर्षा की सुंदरी के रूप में सजीव चित्रण किया गया है।

 

व्याख्या :-

कवयित्री वर्षा को संबोधित करती हुई कहती है कि हे वर्षा रूपी सुंदरी! तेरे शरीर पर सुगंध से भरा महीन, गीला, कोमल और श्याम वर्ण का रेशमी वस्त्र लिपटा हुआ है, जो आंखों के काजल के समान प्रतीत हो रहा है अर्थात् यह काले बादल इस तरह प्रतीत हो रहे हैं जैसे किसी सुंदरी के सुगंधित, कोमल और काले रंग के वस्त्र हों।

 तेरे चंचल आंचल से रास्ते में जुगनू रूपी स्वर्ण निर्मित फूल झर रहे हैं बादलों में चमकती बिजली तुम्हारी उज्जवल दृष्टि है जब तुम अपनी ऐसी सुंदर दृष्टि किसी पर डालती हो तो उसके मन में प्रेम के दिपक जगमगाने लगते हैं। रूपवती वर्षा सुंदरी! तेरे बादल रूपी घने केश अत्यंत सुंदर हैं।


 काव्यगत सौंदर्य 

भाषा - साहित्य खड़ी बोली ।

शैली - चित्रात्मक।

 गुण - माधुर्य ।

रस - श्रृंगार।

छन्द - अतुकांत - मुक्त।

 अलंकार - पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार, उपमा अलंकार,

  रूपक अलंकार।



                   पद्यांश 3 

उच्छ्वसित वक्ष पर चंचल है।

बक-पाँतों का अरविन्द हार;

तेरी निश्वासे छू भू को

बन-बन जातीं मलयज बयार;

केकी-रव की नृपुर-ध्वनि सुन

जगती जगती की मूक प्यास !

रूपसि तेरा घन-केश-पाश !


संदर्भ:-

 पूर्ववत् ।


प्रसंग:-

 प्रस्तुत पंक्तियों में वर्षा का मानवीकरण कर उसका सुंदरी के रूप में चित्रण किया गया है।


 व्याख्या:-

 कवयित्री कहती है कि हे वर्षा रूपी सुंदरी! दीर्घ श्वास के कारण तेरा वक्षस्थल कंपित हो रहा है ,जिसके कारण बगुलो की पंक्ति रूपी कमल के फूलों की माला चंचल - सी प्रतीत हो रही है ।

जब तुम्हारे मुख से निकली बूंद रूपी सांसे पृथ्वी पर गिरती हैं तो उसके पृथ्वी के स्पर्श से होने उठने वाली एक प्रकार की महक मलयगिरी की सुगंधित वायु प्रतीत होती है तुम्हारे आने पर चारों और नृत्य करते हुए मोरो की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है, जो कि तुम्हारे पैरों में बंधे हुए घुंघरूओं के समान मालूम पड़ती है जिसको सुनकर लोगों के मन में मधुर प्रेम की प्यास जागृत होने लगती है।

 तात्पर्य है कि मोरों की मधुर आवाज से वातावरण में जो मधुरता छा जाती है वह लोगों को आनंद और उल्लास से जीने की प्रेरणा प्रदान करती है। हे वर्षा रूपी सुंदरी! तेरा केश रूपी पाश काले काले बादलों के समान है।


 काव्यगत सौंदर्य:—

 भाषा — साहित्यिक खड़ी बोली शैली—चित्रात्मक गुण— माधुर्य रस— श्रृंगार 

छंद — अनुप्रास अलंकार, यमक अलंकार

                    पद्यांश 4

 इन स्निग्ध लटों से छा दे तन

पुलकित अंकों में भर विशाल;

झुक सस्मित शीतल चुम्बन से ।

अंकित कर इसका मृदल भाल;

दुलरा दे ना, बहला दे ना |

यह तेरा शिशु जग है उदास !

रूपसि तेरा घन-केश-पाश !



 संदर्भ :—

 पूर्ववत !


 प्रसंग:—

      प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री ने वर्षा में मातृत्व की और संसार में उसके शिशु की कल्पना की है। 


व्याख्या :—

‌ कवयित्री वर्षारूपी सुंदरी से आग्रह करती है कि हे वर्षा सुंदरी! तुम अपने कोमल बालों की छाया में इस संसार रूपी अपने शिशु को समेट लो। उसे अपनी रोमांचित और विशाल गोद में रखकर ,उसके मस्तक को मुस्कुराहट के साथ चूम लो। हे सुंदरी !तुम्हारे बादलरूपी बालों की छाया से, मधुर चुंबन और दुलार से इस संसाररुपी,शिशु का मन बहल जाएगा और उसकी उदासी भी दूर हो जाएगी। वर्षारूपी सुन्दरी! तुम्हारी बादलरूपी काली केश राशि बड़ी मोहक प्रतीत हो रही हैं।


काव्यगत सौन्दर्य:—

भाषा — साहित्यिक खड़ी बोली शैली—चित्रात्मक और भावात्मक गुण — माधुर्य

रस — श्रृंगार और वात्सल्य

छंद — अतुकान्त मुक्त 

अलंकार —रूपक अलंकार, मानवीकरण अलंकार 



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