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अध्याय 7 रामनरेश त्रिपाठी (स्वदेश प्रेम) सन्दर्भ सहित व्याख्या

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अध्याय 7

रामनरेश त्रिपाठी

स्वदेश प्रेम 


 पद्यांश 1


अतुलनीय जिसके प्रताप का

साक्षी है प्रत्यक्ष दिवाकर ।

घूम-घूम-कर देख चुका है,

जिनकी निर्मल कीर्ति निशाकर।

देख चुके हैं जिनका वैभव,

ये नभ के अनन्त तारागण।

अगणित बार सुन चुका है नभ,

जिनका विजय-घोष रण-गर्जन ।।


संदर्भ :-

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के स्वदेश प्रेम शीर्षक से उद्धृत है यह कवि रामनरेश त्रिपाठी द्वारा रचित स्वप्न से ली गई है ।


प्रसंग :-


इन पंक्तियों में कवि ने भारत के गौरवपूर्ण अतीत की झांकी प्रस्तुत की है।

 

व्याख्या :-

कवि कहता है कि तुम उन पूर्वजों को स्मरण करो, जिनके यश की तुलना कोई नहीं कर सकता तथा सूर्य जिनके बल और प्रताप का स्वयं साक्षी है। हमारे पूर्वज तो ऐसे थे, जिनकी निर्मल और स्वच्छ कीर्ति को चंद्रमा भी पूरे विश्व में घूम-घूम कर देख चुका है। आकाश के अनंत तारों को समूह भी उनके ऐश्वर्य को बहुत पहले देख चुका है। यह आकाश भी हमारे पूर्वजों की विजय घोषों और युद्ध की गर्जनाओं को अनेक बार सुन चुका है अर्थात हमारे पूर्वजों के प्रताप, वैभव, यश, युद्ध कौशल सब कुछ अद्भुत और अभूतपूर्व हैं। इनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है।


 काव्यगत सौंदर्य

 भाषा - संस्कृत शब्दों से युक्त साहित्य खड़ी बोली। 

शैली - भावात्मक ।

गुण - ओज।

छन्द - मात्रिक। 

शब्द शक्ति - व्यंजना। 

अलंकार - रूपक अलंकार, अनुप्रास अलंकार ।


पद्यांश 2 


शोभित है सर्वोच्च मुकुट से,

जिनके दिव्य देश का मस्तक।

पूँज रही हैं सकल दिशाएँ।

जिनके जय-गीतों से अब तक ॥

जिनकी महिमा का है अविरल,

साक्षी सत्य-रूप हिम-गिरिवर।

उतरा करते थे विमान-दल

जिसके विस्तृत वक्षस्थल पर ।।


संदर्भ:-

 पूर्ववत् 


प्रसंग:-

 प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने हमारे देश के दिव्य, स्वरूप प्राचीन महिमा और अतीत के गौरव का वर्णन किया है। 


व्याख्या:-

 कवि कहता है कि भारत एक महान् एवं प्राचीन दिव्य देश है, जिस के मस्तक पर हिमालय रूपी सर्वोच्च मुकुट सुशोभित है। हमारे पूर्वज इतने ज्ञानी, गुणी, वीर और परोपकारी थे कि उनके विजय यशगान से आज भी संपूर्ण दिशाएं गूंज रही हैं।

वे हमारे ही पूर्वज थे, जिनकी महिमा के साक्षी हिमालय पर्वत और वन प्रांत के पेड़ पौधे हैं। हिमालय और वन आज भी उनके सत्य रूप का बोध कराते हैं। यह हमारे देश की विस्तृत भारत भूमि है, जिसके वक्षस्थल पर अन्य देशों के विमान भी उतरा करते थे अर्थात् की कीर्ति को सुंदर सुनकर दूर-दूर से विदेशी यहां आया करते थे। इस प्रकार भारत की कीर्ति संपूर्ण विश्व में फैली हुई थी।



 काव्यगत सौंदर्य

 भाषा - साहित्य खड़ी बोली।

 शैली - भावात्मक और वर्णनात्मक

 गुण - ओज।

रस - वीर ।

छन्द - मात्रिक ।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, रूपक अलंकार।


पद्यांश 3


सागर निज छाती पर जिनके,

अगणित अर्णव-पोत उठाकरे ।

पहुँचाया करता था प्रमुदित,

भूमंडल के सकल तटों पर ।

नदियाँ जिसकी यश-धारा-सी ।

बहती हैं अब भी निशि-वासर।

हूँढो, उनके चरण-चिह्न भी,

पाओगे तुम इनके तट पर ।



संदर्भ:-

 पूर्ववत्


प्रसंग:-

 प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने अपने पूर्वज की गरिमा तथा समर्पण भाव का चित्रण किया है।


 व्याख्या:-

 कवि कहता है कि हमारे पूर्वजों (हमारे देश) का गौरव पूर्ण इतिहास रहा है। समुद्र स्वयं उनकी सेवा में लीन रहता था। वह अपने वक्ष पर उनके अनगिनत जहाजों को उठाकर प्रसन्नता से पृथ्वी के समस्त तटों तक पहुंचाया करता था। हमारे देश में रात दिन बहने वाली नदियों को देखकर ऐसा लगता है, मानो वह हमारे पूर्वजों का यशोगान गा रही हो। धन्थ थे हमारे पूर्वज, जिन्होंने अपने समय में देश का गौरवान्वित रूप देखा।


आज भी माना जाता है उनके चरण चिन्ह नदियों और समुद्रों के तट पर मिल जाएंगे अर्थात् हमारे पूर्वज के समान व्यवहार करने से आज भी हमें उसी यश की प्राप्ति हो सकती हैं, जो उन्हें प्राप्त थी।


 काव्यगत सौंदर्य :-

भाषा - बज्र।

 शैली - भावात्मक ।

गुण - ओज।

रस - वीर।

छन्द - मात्रिक।

 शब्द शक्ति - व्यंजना ।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, उपमा अलंकार, रूपक अलंकार ।



पद्यांश 4


विषुवत्-रेखा का वासी जो,

जीता है नित हाँफ-हाँफ कर।

रखता है अनुराग अलौकिक,

वह भी अपनी मातृ-भूमि पर ॥

धुववासी, जो हिम में, तम में,

जी लेता है काँप-काँप कर। 

वह भी अपनी मातृ-भूमि पर, |

कर देता है प्राण निछावर ॥ 


संदर्भ:-

 पूर्ववत्


प्रसंग:-

 प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने बताया है कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी मातृभूमि से प्रेम करना चाहिए ।


व्याख्या:-

 कवि अपने देश से असीम प्रेम करने की प्रेरणा देता हुआ कहता है कि विषुवत रेखा का वह भु-भाग जहां असहनीय गर्मी पड़ती है और वहां के लोग गर्मी के कारण हांफ-हांफ कर जीवन बिताते हैं किंतु इतने कष्टों के होने पर भी वह अपने मातृभूमि से अत्यधिक लगाव रखते हैं। उनका अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम अतुलनीय होता है। वे गर्मी की मार से परेशान होने पर अन्यत्र जाकर बसने की बात नहीं सोचते हैं।

इसी प्रकार ध्रुवीय प्रदेशों में जहां वर्ष के अधिकांश महीनों में बर्फ जमी रहती है तथा भीषण सर्दी के कारण कांपते हुए जीवन व्यतीत करना पड़ता है। सर्दी कोहरे और धुंध के कारण दिन रात का अंतर करना कठिन हो जाता है, वहां के लोग भी असहाय शारीरिक कष्ट सहते हुए भी वहीं रहना पसंद करते हैं।

इसका सीधा-सा कारण अपनी मातृभूमि के प्रति अटूट प्रेम ही तो है। यहां के निवासी शत्रुओं से रक्षा करते हुए अपनी मातृभूमि के लिए जान की बाज़ी तक लगा देते हैं। 


काव्यगत सौंदर्य:-

 

भाषा - सरल खड़ी बोली।

शैली - भावात्मक 

गुण - ओज।

रस - वीर।

छन्द - मात्रिक।

 शब्द शक्ति - व्यंजना ।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार


पद्यांश 5


तुम तो, हे प्रिय बंधु, स्वर्ग-सी,

सुखद्, सकल विभवों की आकर।

धरा-शिरोमणि मातृ-भूमि में,

धन्य हुए हो जीवन पाकर॥

तुम जिसका जल अन्न ग्रहण कर,

बड़े हुए लेकर जिसकी रज।

तन रहते कैसे तज दोगे,

उसको, हे वीरों के वंशज ॥



संदर्भ:-

 पूर्ववत्


 प्रसंग:-

 प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मातृभूमि को स्वर्ग से बढ़कर बताते हुए देश प्रेम की प्रेरणा प्रदान की है।

 

व्याख्या:-

कवि कहता है कि हे प्रिय बंधु(भाई)! तुमने जहां जीवन पाया है, वह धरा स्वर्ग के समान सुख देने वाली, संपूर्ण सुखों की खान है। पृथ्वी का वह भाग जहां तुमने जन्म लिया है, वह सभी धरा-खंडों से श्रेष्ठ है। तुम्हारी मातृभूमि धरा-शिरोमणि है। 

ऐसी धरती पर जन्म लेकर तुम धन्य हो। जिस देश के अन्य जल को ग्रहण करके तथा जिस देश की धूल मिट्टी में खेल कर तुम बड़े हुए हो। वीरों के वंशज उस देश को शरीर रहते हुए कैसे छोड़ देंगे? अपने देश से प्रेम करो तथा उसका त्याग मत करो, क्योंकि इस मातृभूमि की रक्षा करना तुम्हारा पुनीत कर्तव्य है ।


काव्यगत सौंदर्य:-

 

भाषा - सरल खड़ी बोली।

शैली - भावात्मक 

गुण - ओज।

रस - वीर।

छन्द - मात्रिक।

 शब्द शक्ति - व्यंजना ।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, उपमा अलंकार।



पद्यांश 6


जब तक साथ एक भी दम हो,

हो अवशिष्ट एक भी धड़कन।

रखो आत्म-गौरव से ऊँची

पलकें, ऊँचा सिर, ऊँचा मन ॥

एक बूंद भी रक्त शेष हो,

जब तक मन में हे शत्रुजय !

दीन वचन मुख से न उचारो, 

मानो नहीं मृत्यु का भी भय ॥


सन्दर्भ:-

पुर्ववत्


प्रसंग :-

प्रस्तुत पद्यांश में कभी लोगों को स्वाभिमान के साथ जीवन जीने का संदेश दे रहा है ।


व्याख्या :-

कवि कहता है कि हे मातृभूमि से प्रेम रखने वाले भाई! तुम अपनी अंतिम सांस तक और बची हुई एक भी धड़कन की धड़कने तक अपने आत्म-गौरव की रक्षा करो। पलकों को किसी के भाई से या दबाव से गिरने मत दो, अपना मस्तक किसी के सामने मत झुकाओ। उसे सदैव ऊंचा रखो। अपने मन को कभी अपने मन को भी ऊंचा रखो।

हे शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले! जब तक तुम्हारे शरीर में रक्त की एक भी बूंद शेष है, तुम्हारे भीतर शाक्ति शेष है, तब तक तुम अपने मुख से किसी के भी सामने दीनता प्रदर्शित मत करो।

मृत्यु का भय सामने उपस्थित होने पर भी अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए डटे रहना, मृत्यु से भयभीत ना होना। इस शरीर को तुम फिर से प्राप्त कर सकते हो। जीवन और मृत्यु तो चक्रवात इस संसार में चलते रहते हैं, लेकिन अपने स्वाभिमान की रक्षा सबसे पहले करो ।


काव्यगत सौंदर्य:-

 

भाषा - सरल खड़ी बोली।

शैली - भावात्मक 

गुण - ओज।

रस - वीर।

छन्द - मात्रिक।

 शब्द शक्ति - व्यंजना ।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, उपमा अलंकार।


पद्यांश 7


निर्भय स्वागत करो मृत्यु का,

मृत्यु एक है विश्राम-स्थल।

जीव जहाँ से फिर चलता है,

धारण कर नव जीवन-संबल ॥

मृत्यु एक सरिता है, जिसमें,

श्रम से कातर जीव नहाकर ।।

फिर नूतन धारण करता है, |

काया-रूपी वस्त्र बहाकर ॥


सन्दर्भ:-

पुर्ववत्


प्रसंग:-

 प्रस्तुत पद्यांश में देश की रक्षा हेतु सर्वस्व समर्पित करने के लिए कहा गया है। देश की रक्षा करते हुए यदि मृत्यु का वरण करना पड़े तो वह भी श्रेयस्कर है ।



व्याख्या:-

 कवि कहता है, कि हे देशवासियों! मृत्यु का वरण सहर्ष करो। मृत्यु का स्वागत करो, क्योंकि मृत्यु एक विश्राम स्थल है। मृत्यु के बाद जीव पुन: नए शरीर को धारण करके फिर से अपनी जीवन-यात्रा को शुरू करता है। मृत्यु एक नदी के सामान है, जिसमें नहाकर श्रम से कातर प्राणी पुराने शरीर रूपी वस्त्र का त्याग करके एक नए शरीर रूपी वस्त्र को धारण करता है।

कवि के कहने का तात्पर्य है कि कर्म करने के लिए जीव शरीर धारण करता है और संसार में जब वह थक जाता है, तो मृत्यु के बाद में शरीर को नई शक्ति के साथ धारण करके पुनः अपनी जीवन यात्रा को शुरू करता है। मृत्यु का वरण करके वह अपने पुराने काया रूपी वस्त्र को छोड़कर पुनः अपने शरीर रूपी वस्त्र को धारण करता है। मृत्यु का स्वागत उल्लास और उत्साह से करना चाहिए।


काव्यगत सौंदर्य:-

 

भाषा - खड़ी बोली।

शैली - भावात्मक 

गुण - ओज।

रस - वीर।

छन्द - मात्रिक।

 शब्द शक्ति - व्यंजना ।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, उपमा अलंकार।


पद्यांश 8



सच्चा प्रेम वही है जिसकी ।

तृप्ति आत्म-बलि पर हो निर्भर ।

त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है,

करो प्रेम पर प्राण निछावर ॥

देश-प्रेम वह पुण्य-क्षेत्र है,

अमल असीम, त्याग से विलसित ।

आत्मा के विकास से जिसमें,

मनुष्यता होती है विकसित ॥ 


सन्दर्भ:-

पुर्ववत्


प्रसंग :-

 उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने सच्चे देश-प्रेम के लिए त्याग और बलिदान जैसे गुणों को आवश्यक माना है।


 व्याख्या:-

 कवि कहता है कि सच्चा प्रेम उसे कहा जाता है जिसमें आत्मसमर्पण की भावना कूट-कूटकर भरी होती है अर्थात् आत्मसमर्पण के अभाव में प्रेम को सच्चा नहीं कहा जा सकता। सच्चे प्रेम को पाने के लिए आत्म बलिदान भी देना पड़े, तो संकोच नहीं करना चाहिए। त्याग के बिना प्रेम निर्जीव-सा होता है। देश प्रेम ऐसा पवित्र क्षेत्र है, जो निर्मलता और सीमा रहित त्याग जैसे गुणों से सुशोभित होता है। देश प्रेम का वह पवित्र भावना है, जिससे मनुष्य की आत्मा विकसित होती है, जो मनुष्य में मानवता और मनुष्यता के विकास के लिए आवश्यक होती है। अतः मनुष्य में मानवता का पूर्ण विकास हो, इसके लिए उस में देश प्रेम की भावना आवश्यक है।


काव्यगत सौंदर्य:-

 

भाषा - खड़ी बोली।

शैली - भावात्मक 

गुण - ओज।

रस - वीर।

छन्द - मात्रिक।

 शब्द शक्ति - व्यंजना ।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, उपमा अलंकार।











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