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लाटी कहानी का सारांश

 लाटी कहानी का सारांश:–



कप्तान जोशी अपनी रोगिणी पत्नी बानों के साथ टीबी अस्पताल गोठिया सैनेटोरियम के बंगला नम्बर तीन में पलंग पास दिन भर आरामकुर्सी डाले बैठा रहता था। कभी अपने हाथों से टेम्प्रेचर चार्ट भरता और कभी समय देखकर देता। बगल के मरीजों की भी बड़ी तृष्णा और चाव सेवा करता था। कभी वह मीठे स्वर में पहाड़ी झोडे नाता जिनकी मिठास में तिब्बती बकरियों के गले में बंधी घटियों की-सी खुनक रहती। पहाड़ी मरीज हुमककर कहते, "बाल कातान साहब, एक और कप्तान अपनी पत्नी सुन्दरी 'बानो' की ओर देख बड़े लाड़ से मुस्करा देता बानी का गोरा चेहरा बीमारी से एकदम पीला पड़ गया था। वह दिन-रात कप्तान को टुकुर-टुकुर देखती रहती। उन दिनों गोठिया का डॉक्टर एक अधेड़ स्विस था। उसने कप्तान से कहा तुम भी परहेज नहीं करते। मरीज को दवा से जीतना होगा, मुहब्बत से नहीं। कप्तान लाल पड़ गया। उन्हीं दिनों कप्शन के बुड़े पिता का पत्र आया। पत्र में उन्होंने लिखा था कि उनके दस-बीस पूत नहीं है. यह बीमारी सत्यानाशी है। किन्तु कान पहले की तरह अलमस्त डोलता, कभी बानों के चिकने केशों को चूमता, कभी उसकी पलकों को, कभी किसी से करता कुछ दिन बाद कप्तान उदास रहने लगा। बानी की बड़ी-बड़ी आँखों में भी उदासी के डोर पह गये। कप्तान को ये पुराने दिन बाद जाने लगे जब वह बानो को अपने ओवरकोट में लपेट कर अपनी देह से सटाए सम्बे चीड़ की छाया में बैठा रहता था। यह बान की हर जिद पूरी करता था। एक दिन शाम होते ही बानी मुरझाने लगी। डॉक्टर दलाल आया और कमरा खाली करने का नोटिस दे दिया। कल ही मरीज को यहाँ से से जाना होगा। मरीज तीन दिन से ज्यादा नहीं बचेंगी। कप्तान का चेहरा सफेद पड़ गया। दूसरे दिन सुबह उठा तो देखा जाना पलंग पर नहीं थी। खोज हुई किन्तु धामो कहीं नहीं मिली। दूसरे दिन घाट पर बानो की साड़ी मिली थी। शायद मृत्यु से पूर्व ही बानो नदी में मृत्यु से मिलने चली गयी थी। कुछ दिन तक कप्तान उसकी साड़ी को छाती से लगाये फिरता रहा। एक साल बाद कप्तान का फिर विवाह हुआ। कप्तान की नयी पत्नी के पिता मेजर जनरल चालीस तमगे लगाकर उन्होंने कन्यादान किया। पत्नी प्रभा एम०ए० पास इकलौती लड़की थी। बहुत जल्दी कप्तान का हँसना खिलखिलाना सब भुल कर रह गया। चार साल में कप्तान को दो बेटे और एक बेटी देकर प्रभा ने धन संचय की ओर ध्यान दिया। फिर एक बार नोटों की मोटी गड्डी लेकर नैनीताल घूमने गये। अब कप्तान की थोड़ी तोंद निकल आयी थी, मूँहों में अब वह ऐंठ नहीं रह गयी थी। नैनीताल आण्ड होटल में दोनों टिके विभिन्न प्रकार के भोजन पैक कराकर पहाड़ घूमने दोनों निकले। भुवाली के पास गाड़ी रुकवाकर एक छोटी-सी चाय की दुकान पर चाय पीने उतरे। दुकानदार चाय बना ही रहा था कि अलख निरंजन करते वैष्णवियों का एक दल चाय की दुकान घेरकर खड़ा हो गया। हेड वैष्णवी बड़ी मुखर और मर्दानी थी। वह बोली, "सोचा, बामण ज्यू की दुकान की साथ छोरियों को पिलाऊं।" सबको देखते हुए दूकानदार बोला, अरे लाटी भी आयी है? वैष्णवी ने कहा अरे कहाँ जाएगी अभागी ? प्रभा और मेजर की दृष्टि लाटी पर पड़ी। देवांगना-सी लादी हंस दी। मेजर का शरीर सुन्न पड़ गया, वह साक्षात् बानो ही थी। गूंगी जिल्हा पर गूंगापन चेहरे पर फैल कर उसे और भोला बना रहा था। प्रभा बोली, "क्या यह गूंगी है, हे भगवान् कैसी सुन्दरता पायी है।" दूकानदार ने कहा, "हाँ सरकार, यह लाटी है, इसका असली नाम क्या है पता नहीं।" हेड वैष्णवी ने कहा, "हमारे गुरु महाराज की इसकी देह नदी में तैरती मिली। जीभड़ी कटकर गिर गयी थी। इसके गले में मंगलसूत्र था, व्याह हो गया होगा। इसे भयंकर क्षयरोग था। गुरु की शरण में रोग-सोक ठीक हो गया, लाटी जीभ दिखा। लाटी भुवनमोहिनी हँसी हँस दी, जी नहीं दिखायी। प्रभा बोली, "अपने आदमी को भी भूल गयी क्या ?" वैष्णवी बोली, "इसे कुछ याद नहीं, फिक-फिक कर हँसती है।" चाय का पैसा देकर वैष्णवी 'उठ साली लाटी' हल्की-सी ठोकर मारकर लाटी को उठाया। वे सब चले गये। लाठी उठी दल के पीछे-पीछे चली गयी।

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