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अध्याय 2 गोस्वामी तुलसीदास(धनुष भंग)

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 अध्याय 2 गोस्वामी तुलसीदासधनुष भंग 

पद्यांश1


उदित उदयगिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग।

विकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग।।


 संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

 प्रसंग:–

 प्रस्तुत दोहे में उस समय का मनोहारी चित्रण किया गया है तब गुरू वविश्वमित्र की आज्ञा से श्री राम धनुष–भंग के लिए मंच से उठ खड़े होते हैं उस समय उनकी जो शोभा थी, उसका वर्णन वर्णन यहां किया गया है।

 व्याख्या:–

 तुलसीदास जी कहते हैं कि जब श्री राम जी स्वयंवर सभा में गुरु विश्वामित्र की आज्ञा प्राप्त करके धनुष–भंग के लिए मंच से उठते हैं, तो उनकी शोभा ऐसी प्रतीत हो रही थी जैसे मंच रूपी उदयाचल पर श्री राम रूपी बाल सूर्य का उदय हो गया हो, जिसे देखकर संत रूपी कमल पुष्प खिल उठे हो और उनके नेत्र रूपी भौरे प्रसन्न हो गए हो अर्थात जब श्रीराम मंच से खड़े हुए तो उस समय स्वयंबर सभा में उपस्थित सभी जन हर्षित हो उठे।

 काव्यगत सौंदर्य :–

भाषा –अवधि । शैली –प्रबंध और चित्रात्मक 

गुण –माधुर्य । रस –श्रृंगार 

छंद –दोहा । अलंकार –अनुप्रास अलंकार

पद्यांश 2


 नृपन्ह केरी आसा निसि नासी।

वचन नखत अवली न प्रकासी।।

मानी महिप कुमुद सकुचाने।

 कपटी भूप उलूक लुकाने।।

 भए बिसोक कोक मुनि देवा।

 बरषहिं सुमन जनावहि सेवा।।

गुरु पद बंदि सहित अनुरागा।

राम मुनिन्ह आयसु मागा।।

संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।


 प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में तुलसीदास जी ने श्रीराम द्वारा धनुष भंग से पहले गुरु और मुनियों से आज्ञा मांगने, सभा में उपस्थित राजाओं की मन: स्थिति राम कि विनयशीलता और उदारता का वर्णन किया है।


 व्याख्या:–

 कवि कहते हैं कि जब श्री राम धनुष भंग के लिए मंच से उठे तो स्वयंबर सभा में उपस्थित राजाओं की सीता को प्राप्त करने की मनोकामना नष्ट हो गई तथा उनके वचन रूपी तारों का एक समूह चमकना बंद हो गया अर्थात सभी मौन हो गए। वहां जो अभिमानी कुमुद रूपी राजा थे, वे सकुचाने लगे तथा श्री राम रूपी सूर्य को देख कर मुरझा गए और कपट रूपी उल्लू की तरह छिप गए, जिस प्रकार रात होने पर चकवा चकवी अपने बिछोह के कारण शोक में डूब जाते हैं, उसी प्रकार सभा में उपस्थित मुनि व देवता भी चकवारूपी शोक में डूबे हुए थे, परंतु श्री राम की तत्परता देख उनका दुःख समाप्त हो गया।

अब राम और सीता के संयोग की बाधा समाप्त हो गई। श्री राम को देखकर सभा में उपस्थित समस्त जन फूलों की वर्षा कर रहे हैं। इसी बीच श्रीराम अपने गुरु विश्वामित्र के चरणों की प्रेम पूर्वक बंदना कर अन्य सभी मुनियों से धनुष भंग करने की अनुमति मांगते हैं।


 काव्य गत सौंदर्य 

भाषा –अवधि। शैली –प्रबंधऔर विवेचनात्मक 

गुण –माधुर्य । रस – भक्ति 

छंद – दोहा । शब्द शक्ति –अभिधा और व्यंजना 

अलंकार –अनुप्रास अलंकार, रूपक अलंकार


पद्यांश 3


सहजहिं चले सकल जग स्वामी।

मत्त मंजू पर कुंजर गामी।।

चलत राम सब पुर नर नारी।

 पुलक पूरी तन भए सुखारी।।

 बंदि पितर सूर सुकृत संभारे।

 जों कछु पुण्य प्रभाउ हमारे।।

 तो सिवधनु मृनाल की नाई।

 तोरहूं रामु गनेश गोसाई।।

संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

 प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम द्वारा धनुष भंग के लिए जनकपुरी के नर– नारियों की मनोकामना को पूर्ण करने हेतु देवताओं की वंदना कराकर श्रीराम के प्रभुत्व रूप का वर्णन किया गया है।

 व्याख्या :–

संपूर्ण जग के स्वामी श्री राम अपने गुरु विश्वामित्र जी के चरणों की वंदना कर तथा अन्य मुनियों की आज्ञा प्राप्त करके सुंदर मतवाले हाथी की भांति मस्त चाल से धनुष की और स्वाभाविक रूप से बढ़ रहे हैं। श्री राम ने धनुष की ओर बढ़ते ही जनकपुरी के सभी नर नारी सुख का अनुभव करते हुए आनंदित है, जिससे उनका शरीर रोमांच से भर गया। जनकपुरी के नर –नारियों ने अपने पूर्वजों तथा देवताओं की वंदना कर अपने पुण्यों का स्मरण किया कि यदि हमारे द्वारा किए गए पुण्यों का तनिक भी प्रभाव होता तो हे गणेश गुसाई! श्री राम शिव धनुष को कमल की नाल समान सहज ही तोड़ डाले।

काव्य गत सौंदर्य:–

 भाषा – अवधी। शैली –प्रबंध और विवेचनात्मक 

गुण –माधुर्य । रस –श्रृंगार

छंद –दोहा । अलंकार –अनुप्रास अलंकार ,

                                          उपमा अलंकार 



पद्यांश 4


रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाई।

सीता मातु सनेह बस वचन कहइ बिलखाई।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।


 प्रसंग:–

 प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी ने सीताजी की माता का नाम के प्रति वात्सल्य प्रेम का वर्णन किया गया है।


 व्याख्या :–

श्रीराम अत्यंत सुंदर व कोमल रूप वाले हैं। अतः सीता जी की माता वात्सल्य प्रेम से उन्हे देख रही हैं। वह अपनी सखियों को अपने पास बुला कर स्नेह पूर्ण विलाप करती हुई कहने लगी अर्थात सीताजी की माता श्री राम की कोमलता पर अत्यंत मुग्ध हो गई। उनकी मनोकामना भी यही है कि सीता जी का विवाह राम के साथ हो जाए, परंतु श्रीराम की कोमलता को देखकर उनका मन व्याकुल है कि जब इतने अत्यंत शूरवीर राजा धनुष को हिला तक नहीं पाए तो यह कोमल बालक इसे कैसे तोड़ेगा? इसी संदेह के कारण सीताजी की माता भावुक हो उठी तथा तथा राम और सीता दोनों के स्नेह मे अपनी सखियों से अपनी मन की व्यथा कहने लगी।

 काव्यगत सौंदर्य

भाषा –अवधि । शैली– प्रबंध 

गुण –प्रसाद । रस –वात्सल्य 

छंद –दोहा। अलंकार –अनुप्रास अलंकार


पद्यांश 5



सखि सब कोतुकु देखनिहारे।

 जेउ कहावत हितू हमारे।।

 कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाही।

 ए बालक असि हठ भलि नाही ।।

रावन बान छुआ नहि चापा।

हारे सकल भूप करि दापा ।।

सो धनु राजकुअंर कर देही।

 बाल मराल कि मंदर लेही ।।

संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी की माता का राम के प्रति चिंता का वर्णन है। श्री राम की कोमलता को देखकर उनका मन चिंतित है।जब शक्तिशाली राजा इस धनुष को हिला तक नहीं सके, तब यह बालक इस धनुष को कैसे तोड़ पाएगा?


 व्याख्या:–

 सीताजी की माता अपनी सखियों से कहती हैं कि हे सखी! जो लोग हमारे हितैषी कहलाते हैं, वे सभी तमाशा देखने वाले हैं। क्या इनमें से कोई भी राम के गुरु विश्वामित्र को समझने के लिए जाएगा कि ये (राम) अभी बालक है। इस धनुष को तोड़ने के लिए हठ (जिद) करना अच्छा नहीं अर्थात इस धनुष को बड़े बड़े योद्धा हिला तक नहीं पाए।

 धनुष को तोड़ने के लिए विश्वामित्र का आज्ञा देना और राम का आज्ञा मानकर चल देना तमाशे जैसा नहीं है। यह मेरी पुत्री का स्वयंवर है खेल नहीं, फिर इन्हें क्यों कोई नहीं समझता? इस धनुष की कठोरता के कारण रावण और बाणासुर जैसे वीर योद्धाओं ने इसे छुआ तक नहीं। सभी राजाओं का धनुष तोड़ने का घमंड टूट चुका है अर्थात सभी अपनी हार मान चुके हैं, तो धनुष को तोड़ने के लिए इस राजकुमार के हाथों में क्यों दे दिया है?

 कोई इन्हे समझौता क्यों नहीं की क्या हंस का बच्चा कभी मंदराचल पहाड़ उठा सकता है अर्थात शिव जी के जिस धनुष को रावण और बाणासुर जैसे महान शक्तिशाली योद्धा छू तक नहीं सके, उसे तोड़ने के लिए विश्वामित्र का श्री राम को आज्ञा देना अनुचित है। श्री राम का भी उसे तोड़ने के लिए आगे बढ़ना बाल हठ है।


 काव्य गत सौंदर्य

भाषा –अवधि। शैली –प्रबंध और विवेचनात्मक 

गुण –माधुर्य । रस –वात्सल्य 

छंद –चौपाई।

अलंकार– अनुप्रास अलंकार तथा रूपक अलंकार।


पद्यांश 6


भूप सयानप सकल सिरानी।

सखी विधि गति कछु जाति न जाने।।

बोली चतुर सखी मृदु बानी।

तेजवंत लघु गनिअ न रानी।। 

कह कुंभज कह सिंधु अपारा।

सोशेउ सुजसु सकल संसारा। 

रवि मंडल देखत लघु लागा। 

उदास तासु तीभवन तम भागा।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।


 प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी की माता श्री राम की कोमलता को देख विचलित हो उठती हैं तब उनकी सखियां उनकी शंका को दूर करने के लिए तेजस्वी व्यक्तियों को तेजस्विता का वर्णन करती है।


व्याख्या:–

 तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी की माता राजा जनक को उलाहना देते हैं कि चाहे कोई विश्वामित्र को समझाइए या न समझाए, परंतु राजा को तो उन्हे समझाना चाहिए, लेकिन अब तो मुझे ऐसा लग रहा है कि राजा जनक की सारी समझदारी समाप्त हो गई है। हे सखी! विधाता की करनी को कोई नहीं जानता कि वह क्या चाहते हैं? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। तभी उनकी एक सखी कहती है कि है रानी! तेजवान व्यक्ति चाहे उम्र में छोटा क्यों ना हो, उसे छोटा नहीं मानना चाहिए।

 कहां घड़े से उत्पन्न होने वाले मुनि अगस्तय और कहां विस्तृत और अपार समुंद्र। दोनों में कोई समानता नहीं है, पर मुनि ने अपने पराक्रम से उस अपार समुद्र को सोख लिया था। इस कारण उनका यश सारे संसार में विद्यमान है अर्थात जिस प्रकार सूर्य को घेरा छोटा सा दिखाई देता है, किंतु सूर के उदित होते ही तीनों लोक का अंधकार मिट दूर हो जाता है, उसी प्रकार तुम श्रीराम को छोटा मत समझो।

काव्य गत सौंदर्य 

भाषा –अवधि। शैली –प्रबंध और विवेचनात्मक 

गुण –माधुर्य । रस –वात्सल्य 

छंद –चौपाई।

अलंकार– अनुप्रास अलंकार तथा रूपक अलंकार।

 


पद्यांश 7


मंत्र परम लघु जासु बस, विधि हरि हर सुर सर्व। महामत्त गजराज कहूं, बस कर अंकुश खर्व ।।

संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

प्रसंग :—

       प्रस्तुत दोहे में श्रीराम की तेजस्विता को तथ्यपरक सिद्ध किया गया है यहां मंत्र और अंकुश द्वारा सभी देवताओं और हाथी को नियंत्रित किए जाने का वर्णन है

 व्याख्या:— 

          तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी की माता जय श्री राम को छोटा समझ कर उनके प्रति अपनी शंका प्रकट करती हैं ,तब एक सखी सीताजी की माता से कहती है कि हे रानी! जिस प्रकार ओम का मंत्र अत्यन्त छोटा होता है परंतु ब्रह्मा, विष्णु ,शिव और समस्त देवगण उनके बस में हैं, उसी प्रकार महान मदमस्त हाथी को वश में करने वाला अंकुश भी बहुत छोटा सा होता है अतः तुम श्रीराम को छोटा मत समझो वह उम्र में छोटे क्यों ना हो, तुम उनकी कोमलता पर मत जाओ वह अवश्य ही धनुष तोड़ देंगे।


 काव्य गत सौंदर्य:–

 भाषा –अवधि। शैली –प्रबंध और विवेचनात्मक 

गुण –माधुर्य । रस –वात्सल्य 

छंद –चौपाई।

अलंकार– अनुप्रास अलंकार तथा रूपक अलंकार।



पद्यांश 8

काम कुसुम धनु सायक लिन्हे है। 

सकल भुवन अपने बस किन्हें।।

 देबि ताजिअ संसउ अस जानी।

भंजब धनुषु राम सुनु रानी।।

 सखी बचन सुनि भे परतीती।

 मिटा विषादु बढ़ी अति प्रीती।।

 तब रामहि बिलोंकि बैदेही।

 सभय हृदय बिनावति जेहि तेही।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।


 प्रसंग:–

 प्रस्तुत दोहा –चौपाई में सीता जी की माता की सखी अनेक तथ्यों द्वारा उनका संशय दूर करती हैं ,तभी सीता जी, श्री राम से विवाह करने के लिए सभी देवताओं से विनती करती हैं। इसी मोहकता का यहां वर्णन किया गया है।

 व्याख्या:–

 सीताजी की माता को उनकी सखी श्रीराम की वीरता का वर्णन करते हुए कहती है कि कामदेव ने फूलों का ही धनुष बाण लेकर सारे संसार को अपने बस में कर रखा है अतः हे देवी! आप अपने मन की शंका का परित्याग कर दीजिए। श्री राम इस शिव धनुष को अवश्य ही तोड़ देंगे। आप मेरी बात का विश्वास कीजिए। अपनी सखी सके ऐसे वचन सुनकर रानी को श्रीराम की क्षमता पर विश्वास हो गया और उनका दुख समाप्त हो गया तथा उनका विषाद श्रीराम के प्रति स्नेह के रूप में परिवर्तित हो गया। तभी श्री राम को देखकर सीता जी विचलित हो वह सभी देवताओं से विनती करने लगी अर्थात सीता जी का हृदय भय से व्याकुल हो उठा।


 काव्यगत सौंदर्य

 भाषा –अवधि । शैली –प्रबंध और वर्णनात्मक 

गुण –माधुर्य।   रस –श्रृंगार 

छंद – चौपाई।   शब्द शक्ति– अभिधा और लक्ष्णा 

अलंकार –अनुप्रास अलंकार।



पद्यांश 9


मनहीं मन मनाव अकुलानी।
होहु प्रसन्न महेश भवानी।।
करहु सफल अपानि सेवकाई।
करि हितू हरहु चाप गरुआई।।
गननायक बरदायक देवा।
आजु लगे किन्हीउ तुअ सेवा।।
बार-बार विनती सुनि मोरी।
करहु गुरुता अति थोरी।।

संदर्भ:–

प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

प्रसंग:–

उपरोक्त पद्यांश में सीता जी के विचलित हृदय से श्रीराम के लिए सभी देवताओं से विनती का वर्णन किया गया है।

व्याख्या:–

तुलसीदास जी ने सीता जी के हृदय रूपी भय का वर्णन करते हुए कहा है कि सीता, श्री राम को देखकर व्याकुल होकर मन– ही –मन विनती कर रही है कि है महेश भवानी! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। आज तक मैंने जो आपकी सेवा की है, उसका फल मुझे दीजिए और मेरा कल्याण कीजिए। इस शिव धनुष के भारीपन का हरण कीजिए।
हे गणनायक! वरदान देने वाले देव, आज के दिन के लिए मैंने आपकी सेवा की थी। आपसे मेरी बार-बार विनती है कि कृपा कर आप मेरी इस बिनती को सुने l
हे गणेश! इस धनुष के भारीपन को अत्यधिक कम कर दीजिए अर्थात सीता जी सभी देवतागणो तथा गणेश जी से श्रीराम की सहायता करने की विनती कर रही है।

काव्य गत सौंदर्य
भाषा –अवधि।   शैली– प्रबंध और वर्णनात्मक
गुण –माधुर्य।  रस– भक्ति
छंद –चौपाई ।   शब्द शक्ति– अभिधा और लक्षणा
अलंकार –अनुप्रास अलंकार।


पद्यांश 10

देखि देखी रघुबीर तन, सुर मानव धरि धीर।

भरे विलोचन प्रेम जल, पुलकावली सरीर ।।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी बार-बार श्रीराम को देख रही है तथा अपने मन को धैर्य बंधा रही हैं। श्रीराम के प्रति उनके सात्विक प्रेम का वर्णन किया गया है।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।


 व्याख्या:–

 श्री राम धनुष तोड़ने के लिए मंच पर खड़े हुए हैं, सीता जी उन्हें बार-बार देख रही है अर्थात उनके शरीर को निहार रही है और धैर्य धारण कर देवताओं को मनोवांछित वर प्रदान करने के लिए मना रही हैं ।उनके नेत्रों में प्रेम रूपी आंसू भरे हैं तथा शरीर में रोमांच भर गया है।


 काव्य गत सौंदर्य

 भाषा –अवधि।   शैली– प्रबंध और वर्णनात्मक

गुण –माधुर्य।  रस– भक्ति
छंद –चौपाई ।   शब्द शक्ति– अभिधा और लक्षणा
अलंकार –अनुप्रास अलंकार।


पद्यांश 11



नीके निरखि नयन भरि शोभा।

पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा।।

अहह तात दारूनि हठ ठानी। 

समुझत नहि कछु लाभु न हानी।।

सचिव सभय सिख देइ न कोई।

 बुध समाज बड़ अनुचित होई।।

 कह धनु कुलि सहु चाहि कठोरा।

 कह स्यामल मृदुगात किसोरा ।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी के मन में संदेह है कि इतनेतनेतने कोमल शरीर वाले राम ये शिव धनुष कैसे तोड़ेंगे, इसलिए उन्हें अपने पिता द्वारा किए गए कठोर प्रण पर क्रोध आ रहा है। इसी मनोदशा का वर्णन किया गया है।


व्याख्या:–

 तुलसीदास जी कहते हैं कि जब श्री राम धनुष तोड़ने के लिए मंच पर खड़े हुए और सीता जी उनकी शोभा को भली भांति बाद देख रही हैं, तभी उन्हें अपने पिता के धनुष तोड़ने का कठोर पर याद आया तो उनका मन अत्यंत दुखी हो गया। सीता जी मन ही मन सोचती है कि पिताजी ने इस कठोर परण का आयोजन क्यों किया?

 किसी ने उन्हें समझाया क्यों नहीं, वे अपनी इस हठ के आगे उससे होने वाली लाभ हानि के बारे में कुछ नहीं सोच रहे हैं मंत्री जी भी भय के कारण उन्हें कुछ नहीं समझा पा रहे हैं। इस सभा में बड़े बड़े ज्ञानी बैठे हैं, तब भी यहां इतना बड़ा अनुचित हो रहा है, कोई भी इस अनर्थ को नहीं रोक पा रहा है। 

कहां वज्र से भी कठोर यह धनुष और कहां यह कोमल शरीर वाले सावले किशोर श्रीराम अर्थात सीता जी के मन में यह भय बैठ गया है कि श्री राम इस वज्र समाज के सामान धनुष को तोड़ पाएंगे या नहीं।


 काव्यगत सौंदर्य

 Pahle ke jaise 




पद्यांश 12


विधि केहि भांति धरो उर धीरा।

सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा।।

 सकल सभा कै मति भै भोरी।

 अब मोहि संभुचाप गति तोरी।।

 निज जड़ता लोगन्ह पर डारी।

 होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी।।

 अति परिताप सीये मन माही।

 लव निमेष जुग सय जाही।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।


  प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी के क्रोध और सभा के उपस्थित सभी ज्ञानी लोगों पर उनके द्वारा आक्षेप किए जाने का वर्णन किया गया है ।


व्याख्या:–

 सीता जी कहती हैं कि है विधाता! अब मैं किस तरह अपने हृदय को धैर्य बताऊं, क्या कभी शिरीष के फूल के कण से हीरे को काटा जा सकता है। यहां तो विद्वत सभा के सभी लोग की बुद्धि भोली अर्थात बावली हो गई है। हे शिव धनुष! अब तो मुझे तुम्हारा ही आसरा है, तुम्ही कोमल होकर मेरे मनोकामना को पूरा करो ।मैं जानती हूं कि तुम जड़ वस्तु हो ऐसा नहीं कर सकते। अतः तुम अपनी इस जड़ता को यहां बैठे लोगों पर उतार फेंको, क्योंकि यह चेतन होते हुए भी जड़ बन गए हैं। तभी तो कोई मेरे पिताजी को नहीं समझा देख रहे है। तथा अन्य सभी विद्वान भी मौन तमाशा देख रहे हैं।

 जड़ता त्यागने के बाद तनिक अपनी दृष्टि रघुनाथ जी के कोमल शरीर पर डालो तथा उसी के समरूप हल्के हो जाओ। सीता जी के मन में अत्यधिक संताप हो रहा है। इसी कारण उन्हें पलक झपक में लगा एक क्षण भी सो योगों के समान लग रहा है। वह श्री राम जी की कोमलता का स्मरण करके ईश्वर से उन पर कृपा करने की प्रार्थना करती हैं ।


काव्य गत सौंदर्य

 Pahle ke jaise 


पद्यांश 13 


प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि,राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु , बिधु मंडल डोल।।

संदर्भ:–

प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।
प्रसंग :–
प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी द्वारा श्री राम को निरंतर देखने रहने तथा उनके नेत्रों का मोहक वर्णन किया गया है ।

व्याख्या:–

सीता जी प्रभु श्री राम को निरंतर देख रही हैं, तभी सभा में किसी ने उनको देख लिया है, जिससे वह लज्जावती पृथ्वी को देखने लगती हैं। इस तरह उनका श्री राम को देखने का कर्म निरंतर चल रहा है, कभी व श्रीराम को देखती हैं तो कभी पृथ्वी को देखती है, जिस कारण उनके चंचल नेत्र ऐसे लग रहे हैं मानो चंद्र मंडल रूपी डोल में कामदेव की दो मछलियां जल क्रीडाए कर रही हैं।

काव्य गत सौंदर्य
भाषा– अवधि ।   शैली –प्रबंध और वर्णनात्मक
गुण –माधुर्य।        रस –श्रृंगार
छंद –दोहा ।     अलंकार –अनुप्रास अलंकार


पद्यांश 14

गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी।

 प्रगट न लाज निसा अवलोकी।।

 लोचन जलु रह लोचन कोना।

 जैसे परम कृपन कर सोना।।

 सकुची व्याकुलता बडि जानी।

 धरि धीरजु प्रतीति उर आनी।।

 तन मन वचन मोर पनु साचा।

 रघुपति पद सरोज चितु राचा।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

 प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी का श्री राम के प्रति सात्विक प्रेम का सुंदर चित्रण प्रस्तुत किया गया है


 व्याख्या:–

 यहां कवि सीता जी की वाणी की असमर्थता को प्रकट करते हुए कहते हैं कि सीता जी के प्रेमभाव की वाणी रूपी भ्रमरी को उनके मुख्यरुपी कमल ने रोक रखा है अर्थात वह कुछ बोल नहीं पा रही है। जब वह भ्रमरी लज्जारूपी रात देखती है, तो वह अत्यंत मौन होकर कमल में बैठी रहती है और स्वयं को प्रकट नहीं करती, क्योंकि वह तो रात्रि के बीत जाने पर ही प्रातः काल में प्रकट होकर गुनगुनाती है अर्थात सीताजी लज्जा के कारण कुछ नहीं कह पाती और उनके मन की बात मन में ही रह जाती है।

 उनका मन अत्यंत भावुक है जिसके कारण उनकी आंखों में आंसू छलछला आते है, परंतु वह उन आसुओं को बाहर नहीं निकलने देती हैं।

 सीताजी के आंसू आंखों के कोनों में ऐसे समाए हुए हैं जैसे महाकंजूस का सोना घर के कोनों में ही गड़ा रहता है। सीता जी अत्यंत विचलित हो रही थी, जब उन्हें अपनी इस व्याकुलता का बोध हुआ तो वह सकुचा गई और अपने हृदय में रखकर अपने मन में विश्वास है कि यदि मेरे तन, मन, वचन से श्री राम का वरण सच्चा है, रघुनाथ जी के चरण कमलों में मेरा चित्र वास्तव में अनुरक्त है तो ईश्वर मुझे उनकी दासी अवश्य बनाएंगे।


 काव्य सौंदर्य

 भाषा –अवधी।   शैली –प्रबंध और चित्रात्मक 

गुण –माधुर्य ।

रस –श्रृंगार।   शब्द शक्ति –अभिधा और लक्षणा 

अलंकार – अनुप्रास अलंकार।



पद्यांश 15


तो भगवानु सकलर उर बासी।
करिहि मोहि  रघुवर के दासी।।
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू।
सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू।।
प्रभू तन चितई प्रेम तन ठाना।
कृपा निधान राम सबु जाना।।
सियहि बिलोकि तकेउ कैसे।
चितव गरुरू लघु ब्यालहि जैसे।।

संदर्भ:–

प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

प्रसंग:–

प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी का श्री राम के प्रति पूर्ण रूप से अनुरक्त दृश्य का वर्णन किया गया है।

व्याख्या:–

तुलसीदास जी कहते हैं कि सीता जी ने श्री राम जी की और देखकर इस बात का निश्चय कर लिया कि सबके हृदय में निवास करने वाले भगवान श्रीराम मुझे अपनी दासी अवश्य बनाएंगे, क्योंकि जिसका जिस पर सच्चाई स्नेह प्रेम होता है, वह उसे अवश्य मिलता है ,इसमें कुछ भी संदेह नहीं होता है। प्रभु श्री राम को देखकर सीता जी ने अपने चितवन में उनके प्रति प्रेम ठान लिया अर्थात यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि यह हृदय केवल श्रीराम का वरण करेगा। उनकी इस मनोकामना को कृपा निधान भगवान राम ने भली भांति जान लिया, इसलिए श्री राम ने धनुष को बिल्कुल ऐसे देखा जैसे गरुड़ एक छोटे सांप को देखता है।

काव्य गत सौंदर्य
भाषा – अवधी।   शैली –प्रबंध

गुण– प्रसाद।।  रस –श्रृंगार एवं भक्ति


पद्यांश 16


लखन लखेउ रघुबंसनि, ताकेउ हर कोदंडु।

पुलकि गात बोले बचन, चरन चापि ब्रह्मांडु।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

 प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में लक्ष्मण का श्री राम को देखकर आनंदित होने का वर्णन किया गया हैहै। यहां लक्ष्मण का श्री राम के प्रति स्नेह और उनकी स्वयं की बलवत्ता का वर्णन किया गया है ।


व्याख्या:–

 तुलसीदास जी कहते हैं कि जब लक्ष्मणजी ने देखा कि रघुकुल मणि श्रीराम शिव जी के धनुष को खंडित करने की दृष्टि से देख रहे हैं, तो उनका शरीर आनंदित हो उठा। शिव धनुष के खंडन से ब्रह्मांड में उथल-पुथल ना हो जाए; इसलिए लक्ष्मण जी ने अपने चरणों से ब्रह्मांड को दबा लिया।


 काव्यगत सौंदर्य

 भाषा –अवधि शैली –प्रबंध 

गुण –ओज रस –वीर 

 छंद–दोहा । अलंकार –अनुप्रास अलंकार


पद्यांश 17

दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला।

धरहु धरनि धरि धीर डोला।।

राम चहहि संकर धनु तोरा।

होहु सजग सुनि आयसु मोरा।।

चाप समीप रामु जब आए।

नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए।।

सब कर संसउ अरु अग्यानू।

 मंद महिपन्ह कर अभिमानु 


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में लक्ष्मण जी ने धरती को धारण करने वाले कच्छप ,शेषनाग और वाराह को आगाह किया है, कि श्री राम धनुष को तोड़ने वाले हैं, इसलिए आप सभी पृथ्वी को भली–भांति संभाल कर रखना। इस तरह रोमांच दृश्य का वर्णन यहां किया गया है।


 व्याख्या:–

 लक्ष्मण जी कहते हैं कि हे दिग्गजों! हे कच्छप! , हे शेषनाग! , हे वाराह! आप सभी धैर्य धारण करें तथा पृथ्वी को संभाल कर रखें, क्योंकि श्री राम इस शिव धनुष को तोड़ने जा रहे हैं, इसलिए आप सब मेरी इस आज्ञा को सुनकर सतर्क हो जाइए। जब श्री राम धनुष के पास गए तब वहां उपस्थित नर नारियों अपने पुण्यों को मनाने लगे, क्योंकि सभी को श्री राम के धनुष तोड़ने पर शंका तथा अज्ञान है कि श्री राम धनुष को तोड़ पाएंगे या नहीं। सभा में उपस्थित नीच अहनकारी राजाओं को भी यही लग रहा है की राम जी धनुष नहीं तोड़ पाएंगे, क्योंकि जब हम से यह धनुष नहीं टूटा तो राम से कैसे टूटेगा?


 काव्यगत सौंदर्य

 भाषा –अवधी। शैली –प्रबंध 

गुण –ओज और प्रसाद । रस– वीर और शांति 

छंद –दोहा –चौपाई। शब्द शक्ति –अभिधा और लक्षणा 

अलंकार –अनुप्रास अलंकार

पद्यांश 18


भृगुपति केरि गरब गरुआई।

सुर मुनिबरन्ह केरी कदराई।।

 सिय कर सोचु जनक पछतावा।

रानिन्ह कर दारुन दुख दावा।।

संभूचाप बड़ बोहितु पाई।

 चढ़े जाइ सब संगु बनाई।।

 राम बाहु बल सिंधु अपारू ।

चहत पारु नाहि कोउ कड़ हारू।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

 प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में परशुराम श्रेष्ठ मुनि, सीता जी, जनक, तथा रानिया सभी की चिंता का कारण शिव धनुष को बताया गया है।


 व्याख्या:–

 कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि परशुराम के गर्व की गुरूता, सभी देवता तथा श्रेष्ठ मुनियों का भय, सीता जी की चिंता, राजा जनक का पछतावा और उनकी रानियों के दारुण दुख का दावानल, यह सभी शिव जी के धनुषरूपी बड़े जहाज को पाकर उसमें सब एक साथ चढ़ गए हैं।

ये सभी श्री राम के बाहुबलरूपी अपार समुद्र को पार करना चाहते हैं, परंतु उनके पास कोई नाविक नहीं है अर्थात परशुराम का घमंड, श्रेष्ठ मुनियों और देवताओं का भय, सीता जी की चिंता, राजा जनक के पश्चात, व उनकी रानियों का दुख व चिंता का कारण यह शिव धनुष है।

सभी अपनी अपनी चिंताओं से मुक्त होना चाहते हैं। यह तभी संभव होगा, जब शिव धनुष तोड़ा जाएगा। यह सभी दुखों से मुक्त हो सकते हैं, यदि राम जी के आनंद बाहुबल को जान ले, परंतु इनके पास कोई केवट नहीं है, जो इन्हें पार समुद्र को पार कर सके अर्थात् श्री राम के बाहुबल के विषय में बता सके।


काव्य गत सौन्दर्य

भाषा –अवधि। शैली –प्रबंध

गुण–ओज और प्रसाद। रस –वीर ओर शांत

छंद–चौपाई। शब्द शक्ति –अभिधा और लक्षणा

अलंकार –अनुप्रास अलंकार।


पद्यांश 19


राम बिलोके लोग सब, चित्र लिखे से देखि।

चितई सीय कृपायन जानी बिकल बिसेषि।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।


 प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में जब श्रीराम ने सभा में उपस्थित लोगों की ओर देखा तो उन्हें सभी लोग जड़ प्रतीत हुए। इस दृश्य को यहां प्रस्तुत किया गया है।


 व्याख्या:–

 कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि जब श्री राम ने धनुष तोड़ने की चेष्टा की और वहां उपस्थित सभी लोगों को देखा तो उन्हें वे चित्र में लिखे हुए से प्रतीत हुए अर्थात वह सभी जड़ के समान लग रहे थे। उसके बाद जब कृपा के धाम श्री राम ने सीता जी की ओर देखा तो वे उन्हें सबसे अधिक व्याकुल लगी।


 काव्यगत सौंदर्य

 भाषा –अवधि । शैली –प्रबंध व चित्रात्मक 

गुण –प्रसाद और माधुर्य। रस– श्रृंगार और शांत 

शब्द शक्ति– अभिधा लक्षणा। 

 अलंकार –अनुप्रास अलंकार।


पद्यांश 20


देखी बिपुल विकल वैदेही।

निमिष बिहात कलप सम तेहि।।

तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा।

मुए करइ का सुधा तड़ागा।।

का बरसा सब कृषी सुखाने।

समय चुके पुनि का पछिताने।।

अस जिएं जानि जानकी देखी।

 प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

 प्रसंग:–

 उपरोक्त पद्यांश में श्री राम को सीता जी की व्याकुलता का बोध हो जाने का मनमोहक वर्णन किया गया है।


व्याख्या:–

 कवी तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री राम ने सीताजी को अत्यंत व्याकुल देखा तो उन्होंने अनुभव किया कि उनका एक क्षण एक-एक कल्प के समान बीत रहा था। तभी श्रीराम ने एक पल का भी विलंब किए बिना धनुष भंग करने का निर्णय किया, क्योंकि यदि कोई प्यासा व्यक्त पानी ना मिलने पर शरीर त्याग दे तो उसकी मृत्यु के पश्चात अमृत के तालाब का कोई औचित्य नहीं । जिस प्रकार खेतों के सूख जाने पर वर्षा का होना व्यर्थ है। उसी प्रकार किसी कार्य के होने का उचित समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ है? जब श्रीराम ने सीता जी को देखा और अपने प्रति विशेष प्रेम को मन ही मन जानकर प्रभु राम अत्यंत प्रसन्न हुए।


 काव्य गत सौंदर्य 

भाषा–अवधी। शैली –प्रबंध और सूक्तिपरक 

गुण– माधुर्य । रस –श्रृंगार और अद्भुत 

छंद–दोहा । शब्द शक्ति –अभिधा और लक्षणा

अलंकार– अनुप्रास अलंकार।



पद्यांश 21


गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा।

अति लाघवं उठाइ धनु लिन्हा।

दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ।

 पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।।

 लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें।

 काहुं न लखा देख सबु ठाढ़े।।

तेही छन राम मध्य धनु तोरा।

भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

 प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम द्वारा धनुष तोड़ने के पश्चात वातावरण की स्थिति का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है।


 व्याख्या:–

 तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री राम ने मन –ही– मन अपने गुरु जी को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को अपने हाथ में उठा लिया। जैसे ही श्री राम ने धनुष को अपने हाथ में उठाया तो वह बिजली की भांति चमका और आकाश में मंडलाकार हो गया।


 श्री राम ने यह कार्य इतनी फुर्ती व कुशलता से किया कि सभा में उपस्थित लोगों में से किसी ने भी उन्हें हाथ में धनुष लेते हुए और प्रत्यंचा चढ़ाते हुए और खींचते हुए नहीं देखा अर्थात किसी को पता ही नहीं चला कि कब उन्होंने धनुष हाथ में लिया, कब प्रत्यंचा चढ़ाई और कब खींच दिया। सारा कार्य एक क्षण में ही समाप्त हो गया, उसी क्षण उन्होने धनुष को बीच में से तोड़ दिया। धनुष टूटने की इतनी भयंकर ध्वनि हुई कि वह तीनो लोकों में व्याप्त हो गई।


 काव्य गत सौंदर्य

 भाषा –अवधी। शैली –प्रबंध और सुक्तिपरक

गुण–माधुर्य। रस –श्रृंगार ओर अद् भुत

छन्द–दोहा । शब्द शक्ति–अभिधा और लक्षणा

अलंकार–अनुप्रास अलंकार


पद्यांश 22


भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि ताजि मरागु चले। चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरूम कलमले।।

सुर असुर मुनि कर कान दिन्हें सकल बिकल विचारहीं।

कोदंड खड़ेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहिं।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

प्रसंग:–

 उपरोक्त पद्यांश में धनुष– भंग के पश्चात सभी लोकों में मची उथल-पुथल का आलंकारिक वर्णन किया गया है।


 व्याख्या :–

कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि जब श्रीराम ने शिव धनुष को तोड़ा तो उनके टूटने की भयंकर कठोर ध्वनि की गुंज सभी लोक में गुंज गई, जिससे घबराकर सूर्य के रथ के घोड़े मार्ग को छोड़कर चलने लगे। समस्त दिशाओं के हाथी चिघांड़ने लगे, पृथ्वी कांपने लगी, शेषनाग, वाराह और कच्छप व्याकुल हो उठे।

 देवता,राक्षस और मुनि कानों पर हाथ रख कर व्याकुल होकर विचारने लगे। तुलसीदास जी कहते हैं कि जब सभी को यह विश्वास हो गया कि श्री राम ने धनुष तोड़ डाला है, तब सब श्रीरामचंद्र की जय जय बोलने लगे।


 काव्य गत सौन्दर्य

भाषा- अवधी। शैली - प्रबंध और चित्रात्मक

गुण- ओज । रस - अद्भुत 

शब्दशक्ति - अभिधा और लक्षणा

 अलंकार - अनुप्रास अलंकार








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