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भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरी कदराई।। सिय कर सोचु जनक पछतावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा।।

 भृगुपति केरि गरब गरुआई।

सुर मुनिबरन्ह केरी कदराई।।

 सिय कर सोचु जनक पछतावा।

रानिन्ह कर दारुन दुख दावा।।

संभूचाप बड़ बोहितु पाई।

 चढ़े जाइ सब संगु बनाई।।

 राम बाहु बल सिंधु अपारू ।

चहत पारु नाहि कोउ कड़ हारू।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

 प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में परशुराम श्रेष्ठ मुनि, सीता जी, जनक, तथा रानिया सभी की चिंता का कारण शिव धनुष को बताया गया है।


 व्याख्या:–

 कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि परशुराम के गर्व की गुरूता, सभी देवता तथा श्रेष्ठ मुनियों का भय, सीता जी की चिंता, राजा जनक का पछतावा और उनकी रानियों के दारुण दुख का दावानल, यह सभी शिव जी के धनुषरूपी बड़े जहाज को पाकर उसमें सब एक साथ चढ़ गए हैं।

ये सभी श्री राम के बाहुबलरूपी अपार समुद्र को पार करना चाहते हैं, परंतु उनके पास कोई नाविक नहीं है अर्थात परशुराम का घमंड, श्रेष्ठ मुनियों और देवताओं का भय, सीता जी की चिंता, राजा जनक के पश्चात, व उनकी रानियों का दुख व चिंता का कारण यह शिव धनुष है।

सभी अपनी अपनी चिंताओं से मुक्त होना चाहते हैं। यह तभी संभव होगा, जब शिव धनुष तोड़ा जाएगा। यह सभी दुखों से मुक्त हो सकते हैं, यदि राम जी के आनंद बाहुबल को जान ले, परंतु इनके पास कोई केवट नहीं है, जो इन्हें पार समुद्र को पार कर सके अर्थात् श्री राम के बाहुबल के विषय में बता सके।


काव्य गत सौन्दर्य

भाषा –अवधि।     शैली –प्रबंध

गुण–ओज और प्रसाद।    रस –वीर ओर शांत

छंद–चौपाई।    शब्द शक्ति –अभिधा और लक्षणा

अलंकार –अनुप्रास अलंकार।



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