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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का संक्षिप्त जीवन परिचय, बादल राग, सन्ध्या-सुन्दरी सन्दर्भ सहित व्याख्या

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 सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का संक्षिप्त जीवन परिचय:–



• जन्म सन् 1897 ई० ।

• जन्म स्थान – मेदिनीपुर (बंगाल)।

• पिता- रामसहाय त्रिपाठी

• पत्नी- मनोहरा देवी ।

• मृत्यु सन् 1961 ई० ।

• प्रमुख रचनाएँ—परिमल, भार इनके ऊपर अनामिका, गीतिका




बादल राग सन्दर्भ सहित व्याख्या :–


झूम-झूम मृदु गरज- गरज घन घोर! 

राग- अमर! अम्बर में भर निज रोर! 

झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में, 

घर, मरु तरु मर्मर, सागर में,

सरित-तड़ित-गति चकित पवन में, 

मन में, विजन-गहन कानन में, 

आनन आनन में, रव घोर कठोर- 

राग- अमर! अम्बर में भर निज रोर! 


सन्दर्भ:–

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित महाकवि  सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला’ द्वारा रचित ‘बादल-राग’ शीर्षक कविता से  उद्धृत है।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में बादलों से बरसकर सम्पूर्ण प्रकृति को कोमलता एवं गम्भीरता से भर देने का आग्रह किया गया है।


व्याख्या:–

 प्रस्तुत पद्यांश में कविवर निराला बादलों का आह्वान करते हुए कहते हैं कि हे बादलों! तुम मन्द-मन्द झूमते हुए अपनी घनघोर गर्जना से सम्पूर्ण वातावरण को भर दो। अपने शोर से आकाश में एक ऐसा संगीत छोड़ दो, जो अमर हो। हे बादल! तुम धरती पर ऐसे बरसो, जिससे झर-झर ध्वनि निर्झरों, पर्वतों एवं सरोवरों में भर जाए। झरने एवं सरोवर जल से परिपूर्ण होकर सरसता का संचार करें। तुम अपने स्वर से, अमर संगीत से प्रकृति के कण-कण में नवजीवन का संचार करो, जिससे प्रत्येक घर नवजीवन की स्वर-लहरी से ध्वनित हो उठे। तुम ऐसे बरसो, जिससे मरुस्थल के वृक्ष हरे-भरे होकर मर्मर ध्वनि करते हुए लहराने लगें। समुद्र, नदी आदि में बिजली की गति भर जाए, उसके विकास की गति देखकर पवन भी आश्चर्यचकित हो जाए। प्रत्येक व्यक्ति के मन में, गहन जंगलों में, सुनसान स्थलों में तुम अपना अमर संगीत भर दो। प्रत्येक व्यक्ति को आनन्द प्रदान करो, हर्षित करो और उन्हें विषम परिस्थितियों को सहन करने के लिए आवश्यक कठोरता प्रदान करो। तुम ऐसा मधुर एवं अमर संगीत पैदा करो, जो सम्पूर्ण आकाश में भर जाए।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – खड़ीबोली ।

शैली – भावात्मक एवं प्रगीतात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – वीप्सा, अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण ।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।





अरे वर्ष के हर्ष! 

बरस तू बरस बरस रसधार! 

पार ले चल तू मुझको

बहा दिखा मुझको भी निज 

गर्जन-भैरव-संसार ! 




सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने बादलों से बरसकर सम्पूर्ण प्रकृति को रसविभोर कर देने का आग्रह किया है।


व्याख्या:–

 प्रस्तुत पद्यांश में कविवर निराला बादलों का आह्वान करते हुए कहते हैं कि वर्ष भर में सबसे अधिक आनन्द प्रदान करने वाले बादल तुम अपनी जल की धारा से सम्पूर्ण वातावरण को आनन्दमय कर दो अर्थात् वर्षा की बूंदों को बरसा। कर सम्पूर्ण प्रकृति के कण-कण में नवजीवन का संचार कर दो, क्योंकि बादलों के बरसने से सम्पूर्ण प्रकृति आनन्दविभोर हो उठती है, इसलिए तुम अपनी रसधारा को बरसाकर सम्पूर्ण धरती को रससिक्त कर दो। कवि कहता है कि आनन्द प्रदान करने वाले बादल तुम अपनी वर्षा की बूदों से सम्पूर्ण वातावरण को भर दो। तुम ऐसे बरसो कि चारों ओर बरस-बरस कर आनन्द की धारा बह जाए अर्थात् प्रकृति को आनन्दमय बना दो। हे बादल! तुम धरती पर अत्यधिक बरसकर अपनी भीषण गर्जना के यथार्थ रूप से मुझे भी परिचित कराओ। कहने का तात्पर्य । यह है कि कवि बादलों को इतना अधिक बरसने के लिए कह रहा है कि तुम बरसकर मुझे भी अपने साथ बहाकर ले चलो। फलस्वरूप इस भीषण संसार में जगत् के उस पार पहुँचकर मैं भी तुम्हारे गर्जना भरे उस संसार को देखू जिसे। भयावह कहा गया है। हे बादल! तुम इतना बरसो कि मेरे अस्तित्व को अपने में विलीन कर दो।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – खड़ीबोली ।

शैली – भावात्मक एवं प्रगीतात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण।

 गुण –प्रसाद ।

शब्द शक्ति –लक्षणा।





उथल-पुथल कर हृदय-

मचा हलचल

चल रे चल-

मेरे पागल बादल! 

धँसता दलदल,

हँसता है नद खल, खल,

बहता, कहता कुलकुल कलकल कलकल। 


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में कवि निराला ने वर्षा करते हुए बादलों को

देखकर अपने हृदय के हर्षोल्लास को वाणी प्रदान की है।


व्याख्या:–

 कवि बादलों का आह्वान करता हुआ कहता है कि हे बादलों! तुम इतना बरसो कि मेरे हृदय को आनन्दविभोर कर उलट-पलट कर दो अर्थात मेरे मन में हलचल पैदा कर दो। तम्हारे बरसने से दलदल धंस जाते । हैं। समुद्र खिल-खिलाकर हँसने लगता है। सरिताओं का जल कलकल कीnध्वनि से तुम्हारा ही यशोगान करने लगता है। इतना बरसो कि वर्षा के पानी से मिट्टी जमीन में दब जाए अर्थात् वह मिट्टी दलदल का रूप लेकर पुनः धरा में विलीन हो जाए। कवि बादलों को इतना बरसने के लिए कह रहा है कि नदियाँ वर्षा के पानी से भरकर हिलोरे खाने लगें अर्थात नदियों को पानी से लबालब भर देने के लिए कवि ने कहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि बादल तू इतना बरस कि कही भी पानी का अभाव न हो, नदियाँ कुलकुल, कलकल की ध्वनि से सदैव बहती रहें, सम्पूर्ण पृथ्वी भावविभोर होकर खिलाखलाकर हँसती रहे।


काव्य गत सौंदर्य:–

रस– शान्त ।

भाषा– खड़ीबोली।

शैली– भावात्मक एवं प्रगीतात्मक।

 छन्द– मुक्त।

अलंकार – वीप्सा, अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण।

 गुण– प्रसाद ।

 शब्द शक्ति– अभिधा एवं लक्षणा।





देख-देख नाचता हृदय 

बहने को महा विकल बेकल,

इस मरोर से–इसी शोर से– 

सघन चोर गुरु गहन रोर से। 

मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर! 

राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने आकाश के उमडते. गरजते और वर्षा करते बादलो। को देखकर अपने हृदय के हर्षोल्लास को वाणी दी है।


व्याख्या:–

 कवि कहता है हे बादल! तुम्हें बरसता देख सम्पूर्ण पृथ्वी भावविभोर हो । उठती है। वर्षा की बूंदों को देखकर मन खशी से नाच उठता है। बादलों के बरसने से न केवल हर्ष की लहर चारों ओर फैल जाती है, अपित मन बैचेन/व्याकुल होकर वर्षा की बूंदों में ही मदमस्त हो जाना चाहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्षा करते बादलों को देखकर कवि का हृदय प्रसन्नता से भर उठता है और उसका मन वर्षा के पानी में मदमस्त हो जाने को व्याकुल है अर्थात् वह स्वयं को वर्षा के पानी में खो देना चाहता है।

अत: कवि के व्याकुल मन ने उसे दुविधा की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। कवि बरसते हुए बादलों को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हे बादल! मुझे आसमान का वह छोर अर्थात् किनारा दिखा, जो अत्यधिक डरावना प्रतीत हो रहा था अर्थात् वह किनारा जिसकी थाह अत्यधिक गहरी व डरावनी थी। कवि कहता है कि मुझे अपने साथ बहाकर आकाश का वह किनारा दिखा दो और आकाश के साथ मेरे हृदय में भी अपना गम्भीर स्वरयुक्त अमर संगीत भर दो। तुम ऐसा मधुर एवं अमर संगीत पैदा करो, जो सम्पूर्ण आकाश में फैल जाए।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – खड़ीबोली ।

शैली – भावात्मक एवं प्रगीतात्मक।

छन्द – मुक्त ।

अलंकार – पुनरुक्तिप्रकाश एवं अनुप्रास।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – लक्षणा एवं व्यंजना।




सन्ध्या-सुन्दरी सन्दर्भ सहित व्याख्या:




दिवसावसान का समय

मेघमय आसमान से उतर रही है

वह सन्ध्या-सुन्दरी परी-सी

धीरे धीरे धीरे।

तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,

मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,

किन्तु जरा गम्भीर, नहीं है उनमें हास-विलास।

हँसता है तो केवल तारा एक

गुंथा हुआ उन धुंघराले काले काले बालों से

हृदयराज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने सन्ध्या का वर्णन एक रमणी व सुन्दरी के रूप में किया है।


व्याख्या:–

 प्रस्तुत काव्य पंक्तियों के माध्यम से कवि निराला कहते हैं। कि दिन की समाप्ति का समय है और मेघों से घिरे हुए आकाश से सन्ध्यारूपी सुन्दरी एक परी के समान धीरे-धीरे नीचे उतर रही है। वह अपने आँचल में अन्धकार को भरे हुए चली आ रही है। सन्ध्या के आगमन के साथ धरती पर धीरे-धीरे चारों ओर अन्धकार फैलने लगता है। अन्धकार से भरा उसका आँचल एकदम शान्त है अर्थात् सन्ध्या के समय चारों ओर वातावरण में शान्ति व्याप्त हो गई है। उसमें ज़रा भी चंचलता का आभास नहीं मिलता। सन्ध्यारूपी सुन्दरी के अधराधर मधुर हैं, किन्तु उसकी मुखमुद्रा गम्भीर है। उसमें मोद व प्रसन्नता को व्यक्त करने वाली चेष्टाओं का अभाव है। सन्ध्या के समय सुन्दरी के काले होते बालों में गुँथा एक तारा है, जो अभिषेक का प्रतीक है अर्थात् उसके काले घुघराले बालों में गुंथा हुआ एक ही तारा हँस रहा है और वह हँसता हुआ तारा ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानों वह अपने हृदय-राज्य की रानी का अभिषेक कर रहा हो।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – खड़ीबोली ।

शैली –चित्रात्मक एवं वर्णनात्मक ।

छन्द –मुक्त।

अलंकार – रूपक, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण, पुनरुक्तिप्रकाश व विरोधाभास ।

गुण – माधुर्य ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।




 अलसता की-सी लता

किन्तु कोमलता की वह कली

सखी नीरवता के कन्धे पर डाले बाँह,

छाँह-सी अम्बर पथ से चली।

नहीं बजती उसके हाथों से कोई वीणा,

नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,

नूपुरों में भी रुनझुन-रुनझुन नहीं,

सिर्फ एक अव्यक्त शब्द-सा “चुप, चुप, चुप’

है गूंज रहा सब कहीं-



सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने सन्ध्या की नीरवता एवं निस्तब्धता का सजीव वर्णन प्रस्तुत किया है।


व्याख्या:–

 प्रस्तुत पद्यांश में कविवर निराला ने सन्ध्या-सुन्दरी को आलस्य की लता के समान बताया है, फिर भी वह कोमलता की कली है । अर्थात् आलस्य विद्यमान होते हुए भी उसमें कोमलता का गुण विद्यमान है।। आगे कवि नीरवता को सन्ध्या सुन्दरी की सखी के रूप में चित्रित करते । हए कहता है कि सन्ध्या सुन्दरी अपनी सखी नीरवता के कन्धे पर बाँह रख। हुए छाया के समान सूक्ष्म और अदृश्य रूप से आकाश-मार्ग से उतरती । चली आ रही है। कहने का तात्पर्य है कि सन्ध्या सुन्दरी, कोमल कली के समान खिली नीरवता के कन्चे पर बाँह डालकर छाया के समान अम्बर पंथ से उतर चली है, उसके हाथों में कोई वीणा नहीं बजती, न ही प्रेम के संगीत का आलाप सुनाई पड़ता है। उसके घुघरूओं से भी रुनझुन ध्वनि सनाई नहीं पड़ती अर्थात् सन्ध्या सुन्दरी अपने भीतर अन्धकार का साम्राज्य लेके आ रही है, उसके आने से किसी प्रकार की ध्वनि नहीं होती चारों ओर अन्धकारमय वातावरण होता है। निराला जी कहते हैं कि सम्पूर्ण विश्व में केवल ‘चुप, चुप, चुप’ का अस्फुट (अत्यन्त मन्द) स्वर सब जगह गूंज रहा है तात्पर्य यह है कि सर्वत्र नीरवता का साम्राज्य है।


काव्य गत सौंदर्य:–

भाषा – खडीबोली ।

शैली – चित्रात्मक एवं वर्णनात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – मानवीकरण, यमक, विरोधाभास, पुनरुक्तिप्रकाश एवं अनुप्रास।

 गुण –प्रसाद ।

शब्द शक्ति –लक्षणा ।



 व्योम-मण्डल में-जगतीतल में-

सोती शान्त सरोवर पर उस अमल-कमलिनी-दल में-

सौन्दर्य-गर्विता के अति विस्तृत वक्षःस्थल में-

धीर वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में-

उत्ताल-तरंगाघात-प्रलय-घन-गर्जन-जलधि प्रबल में-

क्षिति में-जल में-नभ में-अनिल-अनल में-

सिर्फ एक अव्यक्त शब्द-सा, ‘चुप, चुप, चुप

है गूंज रहा सब कहीं-



सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने प्रकृति के कोमल एवं कठोर दोनों रूपों का वर्णन किया है।


व्याख्या:–

 प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कविवर निराला जी कहते हैं कि सम्पूर्ण आकाश मण्डल में, धरती पर शान्त सरोवर में, विचारमग्न कमलिनी के समूह में, अपने सौन्दर्य के मान में इठलाती नदी के विस्तृत वक्षःस्थल पर अर्थात् अपने अनुपम सौन्दर्य पर अभिमान करती हुई नदी की अत्यन्त । विशाल हृदय स्थल पर, धीर-वीर और गम्भीर मुद्रा में रहने वाले अटल। और अचल हिमालय की उत्तुंग चोटियों पर, निश्चल भाल के ऊपर उठते हुए शिखरों पर, प्रलयकालीन मेघ के समान गरजते हुए पर्वत के आकार वाले तरंगों से पूर्ण समुद्र पर, पृथ्वी तल में, विपुल जलराशि में, प्रकाश में, आकाश में, वायु में तथा सर्वत्र व्याप्त अग्नि में केवल यही एक अव्यक्त-सा शब्द ‘चुप-चुप-चुप’ गूंज रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि सर्वत्र नीरवता का साम्राज्य विद्यमान है। चुपचाप आती हुई सन्ध्या-सुन्दरी ने वातावरण की अनुकूलता की रक्षा में गाम्भीर्य और नीरवता की झीने परदे डाल दिए गए हैं।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – खड़ीबोली ।

शैली – चित्रात्मक एवं वर्णनात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – अनुप्रास एवं मानवीकरण ।

गुण – प्रसाद एवं माधुर्य ।

शब्द शक्ति – अभिधा।


और क्या है? कुछ नहीं।

मदिरा की वह नदी बहाती आती,

थके हुए जीवों को वह सस्नेह

प्याला एक पिलाती.

सुलाती उन्हें अंक पर अपने,

दिखलाती फिर विस्मृति के अगणित मीठे सपने,

अर्धरात्रि की निश्चलता में हो जाती जब लीन,

कवि का बढ़ जाता अनुराग,

विरहाकुल कमनीय कण्ठ से

आप निकल पड़ता तब एक विहाग।



सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने यह स्पष्ट किया है कि सन्ध्या किस प्रकार रात्रि में परिवर्तित होकर सम्पूर्ण विश्व को विश्रामावस्था में पहुँचा देती है।


व्याख्या :–

कविवर निराला कहते हैं कि सन्ध्याकाल में अस्फुट या अनुभव न होने वाले ‘चुप-चुप’ के शब्द के अतिरिक्त और कुछ भी शेष नहीं है। चारों ओर शान्ति ही विद्यमान है अर्थात् सन्ध्या ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। अपने आगमन से उसने सम्पूर्ण संसार को एक समान रूप में लाकर खड़ा कर दिया है मानो वह मदिरा की नदी को अपने साथ बहाती ला रही है और थके हुए प्राणियों को मदिरा का प्याला भरकर स्नेहपूर्वक पिलाकर उन्हें अपनी गोद में सुलाती है अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी रात्रि में चिरनिद्रा में लीन हो जाती है। वह सभी प्राणियों को उनके सुख-दुःख दर्द भुलाकर असंख्य मीठे-मीठे सपने दिखलाती है, जो उनकी इच्छाओं व कामनाओं के वशीभूत होते हैं। अत: इस प्रकार सन्ध्या स्वयं अपने अस्तित्व का त्याग कर रात्रि में लीन हो जाती है और रात्रि के इस दृश्य (रूप) को देखकर कवि का हृदय अनुराग से भर उठता है, उसे अपनी प्रिया की स्मृति सताने लगती है, परिणामस्वरूप विरह से व्याकुल होकर उसके कण्ठ से आह अर्थात वेदना के रूप में जो स्वर प्रस्फुटित होता है वही विहाग (अर्द्ध रात्रि के बाद गाया जाने वाला राग) का रूप ग्रहण कर लेता है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – खड़ीबोली ।

शैली – चित्रात्मक एवं वर्णनात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – रूपकातिशयोक्ति, मानवीकरण एवं अनुप्रास।

गुण – माधुर्य ।

शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।




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