उधो जाहु तुमहि हम जाने।
स्याम तुमहि ह्या को नाहि पठयो, तुम हो बीच भुलाने।।
ब्रज नारिन सो जोग कहत हो, बात कहत ना लजाने।
बड़े लोग ना विवेक तुम्हारे, ऐसे भए आयने।।
हमसो कहीं लई हम सहि कै, जिय गुनि लेहु सयाने।
कह अबला कह दसा दिगंबर, मष्ट करो पहिचाने।।
सांच कहो तुमको अपनी सौ, बुझाति बात निदाने।
सूर स्याम जब तुमहि पठायौ, तब नैकहुं मुसकाने।।
संदर्भ:—
प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में गोपिया उद्धव से कहती हैं – हे उद्धव! हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्मा को नहीं मानेंगे। उद्धव तथा गोपियों के बीच हुई तर्क वितर्क का वर्णन किया गया है।
व्याख्या:–
गोपिया उद्धव से कहती है कि तुम यहां से वापस चले जाओ। हम तुम्हें अच्छी प्रकार से जानते हैं। हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तुम्हें यहां श्रीकृष्ण ने नहीं भेजा हैं। तुम स्वयं रास्ता भटक कर यहां आ गए हो। तुम ब्रज की नारियों से योग की बात कर रहे हो, तुम्हें लज्जा नहीं आती। तुम भले ही बुद्धिमान और ज्ञानी होंगे ,परंतु हमें ऐसा लगता है कि तुम में विवेक नहीं है, नहीं तो तुम ऐसी अज्ञानता पूर्ण बातें हमसे क्या करते? तुम यह मन में विचार कर लो, जो हम से कह दिया ब्रज में किसी अन्य से ऐसी बात ना कहना। हमने तो सहन कर लिया, कोई दूसरी गोपी सहन नहीं करेगी। कहां योग के दिगंबर (वस्त्र हीन) अवस्था और कहां हम अबला नारीयां। अतः अब तुम चुप हो जाओ और जो भी कहना सोच समझकर कहना। अब तुम सो सच सच बतलाओ कि जब श्री कृष्ण ने तुम्हें यहां भेजा था, वह क्या थोड़ा सा मुस्कुरा थे वे अवश्य मुस्कुराए होंगे। तभी तो उन्होंने तुम्हारे साथ उपहास करने के लिए तुम्हें यह भेजा है।काव्यगत सौंदर्य:—
भाषा — ब्रज। रस — श्रृंगार
छंद — गेयात्मक। शब्द शक्ति — अभिधा और व्यंजना
गुण –– माधुर्य। अलंकार –– अनुप्रास
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