ऊधों मन न भए दस बीस।
एक हूतो सो गयो स्याम संग, को अवराधे ईस।।
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यों देही बिनु सीस।
आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहीं कोटि बरीस।।
तुम तो सखा श्याम सुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूर हमारे नंद - नंदन बिनु, और नहीं जगदीस ।।
संदर्भ:—
प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।
प्रसंग:—
प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्री कृष्ण के मथुरा चले जाने के बाद गोपियों का उनको याद करके व्याकुल होने का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है श्री कृष्ण, उद्धव को गोपियों के पास ज्ञान व योग का संदेश लेकर ब्रज में भेजते हैं, परंतु गोपियां इस संदेश को स्वीकार करने में स्वयं को असमर्थ बताती हैं, क्योंकि वह श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी अन्य की उपासना नहीं कर सकती हैं।
व्याख्या:—
गोपियां, उद्धव से कहती हैं कि है उद्धव हमारे दस बीस मन नहीं है। हमारे पास तो केवल एक ही मन था, वह भी श्रीकृष्ण के साथ चला गया अब हम किस मन से तुम्हारे द्वारा बताए गए निर्गुण ब्रह्मा की आराधना करें अर्थात जब मन ही नहीं है तो किस प्रकार हम तुम्हारे द्वारा बताए गए धर्म का पालन करें।
श्री कृष्ण के बिना हमारी सारी इंद्रियां कमजोर हो गई हैं अर्थात शक्तिहीन और निर्बल हो गई हैं जैसे बिना सिरवाला धड़ थिथिल बेकार हो जाता हैm हम सिर्फ तीर्थ के बिना मृत्यु हो गई हैं जीवन के लक्षण के रूप में हमारी सांस केवल इस आशा में चल रही है कि श्री कृष्ण मथुरा से अवश्य लौटेंगे और हमें उनके दर्शन प्राप्त हो जाएंगे श्री कृष्ण के लौटने की आशा के सहारे तो हम करोड़ों वर्ष तक जीवित रह सकती हैं गोपियां उधर से कहती हैं कि है उधो तुम तो सिर्फ के अभिन्न मित्र हो और संपूर्ण योग विद्या विद्या तथा मिलन के उपायों के ज्ञाता होता तुम ही स्वीकृत से हमारा मिलन करा सकते हो सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों से कह रही हैं कि हम तुम्हें स्पष्ट बता देना चाहती हैं कि नंद जी के पुत्र श्री कृष्ण को छोड़कर हमारा कोई अराध्य नहीं है।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण माधुर्य
रस श्रृंगार (वियोग)
छंद गेय पद
शब्द शक्ति अभिधा और व्यंजना
अलंकार अनुप्रास अलंकार
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