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ऊधों मोहिं ब्रज बिसरत नाही। बृंदावन गोकुल बन उपबन, सघन कुंज की छांही।।

  

                   ऊधों मोहिं ब्रज बिसरत नाही।

बृंदावन गोकुल बन उपबन, सघन कुंज की छांही।।
प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत।
माखन रोटी दहो सजायो, अति हित साथ खवावत।
गोपी ग्वाल बाल संग खेलत, सब दिन हँसत सिरात।
सूरदास धनि -धनि ब्रजबासी, जिनसो हित जदु - जात।

संदर्भ:—

           प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

प्रसंग:—

          प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास ने श्रीकृष्ण की मनोदशा का चित्रण किया है  उद्धव ने मथुरा पहुंचकर श्रीकृष्ण को वहां की सारी स्थिति बताई ,जिसे सुनकर श्रीकृष्ण भाव विभोर हो गए।

ब्याख्या:—

            श्री कृष्ण, उद्धव से कह रहे हैं कि है उद्धव! मैं ब्रज को भूल नहीं पाता। मैं सबको भूलने का प्रयास करता हूं ,किंतु मेरे लिए संभव नहीं हो पाता। वृंदावन और गोकुल के वन, उपवन सभी मुझे याद आते हैं वहां के कुंजो की घनी छांव  भी  मुझसे भुलाए नहीं भूलती। प्रातः काल माता यशोदा और नंद बाबा मुझे देखकर हर्षित होते तथा अत्यंत सुख का अनुभव करते थे वह भी मुझे रह —रहकर स्मरण हो आता है माता यशोदा मुझे मक्खन ,रोटी और दही बड़े प्रेम से खिलाती थी गोपियां और ग्वाल—बालों के साथ में खेला करता था। सारा दिन हंसते- खेलते हुए व्यतीत होता था ।यह सब बातें बहुत याद आती हैं। सूरदास जी कहते हैं कि वे ब्रजवासी धन्य है, क्योंकि श्रीकृष्णा स्वयं उनके हित की  चिंता करते हैं, उन्हे श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ऐसा हितेषी और कौन मिल सकता है।

काव्यगत सौंदर्य:—


भाषा — ब्रज।       रस — श्रृंगार
छंद — गेयात्मक।       शब्द शक्ति — अभिधा और व्यंजना








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