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सखी री, मुरली लीजे चोरि। जिनि गुपाल किन्हें अपनै बस, प्रीति सबनि की तोरि।।

 सखी री, मुरली लीजे चोरि।

जिनि गुपाल किन्हें अपनै बस, प्रीति सबनि की तोरि।। 

छीन इक घर–भीतर, निसि–बासर,धरत न कबहुं छोरि।

 कबहुं कर, कबहुं अधरनि, कटी कबहुं को खोसत जोरि।।

 ना जानो कछु मेलि मोहिनी, राखी अंग अंग भोरि। 

सूरदास प्रभु को मन सजनी, बंध्यो राग की डोरी।।


संदर्भ :–

प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

 प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में श्रीकृष्ण की का मुरली के प्रति प्रेम तथा उससे ईर्ष्या करती गोपियो की मनोदशा का चित्रण किया गया है।

 व्याख्या:–

 गोपिया एक दूसरे से कहती है कि हे सखी! कृष्ण की मुरली को हम हमें चुरा लेना चाहिए। इस मुरली ने श्रीकृष्ण को अपनी ओर आकर्षित कर अपने वश में कर लिया है श्रीकृष्ण ने भी मुरली के वशीभूत होकर हम गोपियों हम सभी गोपियों को भुला दिया है वह घर के भीतर हो या बाहर कभी एक पल के लिए भी मुरली को नहीं छोड़ते कभी हाथ में रखते हैं तो कभी होठों पर और कभी कमर में घूस लेते हैं इस तरह से श्रीकृष्ण भी उसी उसे कभी भी अपने से दूर नहीं होने देते यह हमारी समझ में नहीं आ रहा है कि मुरली ने कौन सा मोहिनी मंत्र श्री कृष्ण पर चलाया है जिससे श्री कृष्ण पूर्णरूपेण उसके बस में हो गए हैं सूरदास जी कहते हैं कि गोपिया कह रही है कि यह सजनी इस वंशी ने श्री कृष्ण का मन प्रेम की डोर से बांधा हुआ है।


काव्यगत सौंदर्य


भाषा                         ब्रज

शैली                          मुक्तक और गीतात्मक 

गुण                            माधुर्य

रस                            श्रृंगार 

छंद                           गेय पद 

शब्द शक्ति                 लक्षणा 

अलंकार                     अनुप्रास , रूपक अलंकार







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