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निरगुन कौन देस, को बासी? मधुकर कहि समुझाइ सौह दे, बुझति साँच न हांसी।।

 निरगुन कौन देस, को बासी?

 मधुकर कहि समुझाइ सौह दे, बुझति साँच न हांसी।।

 को है जनक, कौन है जननी, कौन नारि, को दासी?

 कैसो बरन, भेष है केसों, किहि रस मैं अभिलाषी?

 पावेगो पुनि कियो आपनो, जो रे करेगो गांसी।।

सुनत मौन ह्वै राह्यो बावरों, सुर सबै मति नासी ।।

संदर्भ:— 

           प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास ने गोपियों के माध्यम से निर्गुण ब्रह्म की उपासना का खंडन तथा सगुण कृष्ण की भक्ति का मुंडन किया है।


 व्याख्या :–

गोपिया भ्रमर की अन्योक्ति से उद्धव को संबोधित करते हुए कहती हैं कि है उद्धव! यह निर्गुण ब्रह्म किस देश के निवासी हैं? हम तुमको तुमको शपथ दिलाकर सत्य पूछती हैं, कोई हंसी मजाक नहीं कर रही हैं| तुम यह बताओ कि इस निर्गुण का पिता कौन है? इसकी मां कौन है ? कौन पत्नी है और कोन उसकी दासी है? उसका रंग रूप कैसा है? उसकी भेस भूषा कैसी है? उसे किस रस से अधिक लगाव है? गोपिया, उद्धव को चेतावनी देते हुए कहती हैं कि हमें सभी बातों का ठीक-ठीक उत्तर देना। यदि तुम हमारे साथ कपट करोगे तो उसका फल स्वयं ही भूगतोगे। सूरदास जी कहते हैं की गोपियों के इतने व्यंग्यात्मक तर्क सुनकर उद्धव ठगे से हो गए और उनका सारा विवेक समाप्त हो गया। गोपियों ने अपने वाक् चातुर्य से ज्ञानी उद्धव हो को परास्त कर दिया। अर्थात उद्धव का सारा ज्ञान अनपढ़ गोपियों के सामने नष्ट हो गया।


काव्यगत सौंदर्य:—

भाषा — ब्रज।          रस — श्रृंगार

छंद — गेय पद।     शब्द शक्ति — अभिधा और व्यंजना

शैली –– मुक्तक।







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