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संदेसो देवकी सौ कहियों। हो तो धाइ तिहारे सूत की, मया करत ही रहियों।। जदपि टेव तुम जानति उनकी

 संदेसो देवकी सौ कहियों।

 हो तो धाइ तिहारे सूत की, मया करत ही रहियों।।

जदपि टेव तुम जानति उनकी, तऊ मोहि कहि आवै। 

प्रात होत मेरे लाल लड़ेतै, माखन रोटी भावै।।

 तेल उबटनौ अरु तातो जल, ताहि देखि भाजि जाते। 

जोइ–जोइ मांगत सोई सोई देती, क्रम क्रम करि कै न्हाते।।

 सूर पथिक सुन मोहि रैनि दिन, बढ्यो रहत उर सोच। 

मेरो अलक लड़ेतो मोहन ह्वैहै करत संकोच।।


संदर्भ:— 

           प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

 

प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्री कृष्ण की माता देवकी के पास मथुरा चले जाने के बाद माता यशोदा के स्नेह तथा उनकी पीड़ा का वर्णन किया है।


व्याख्या:–

 यशोदा जी देवकी को एक पथिक के हाथ संदेश बिजवाती हुई कहती हैं कि मैं तुम्हें मैं तो तुम्हारे पत्र की धाय माँ हूं पर वह मुझे मैया कहता रहा है। इसलिए मेरा उसके प्रति वात्सल्य भाव स्वाभाविक है। यधापि आप तो उसकी सारी आदतें जानती होंगी, फिर भी मेरा मन आपसे कुछ कहने को उत्कंठीत हो रहा है।

मेरे लाडले श्री कृष्ण सुबह उठते ही माखन रोटी खाने की आदत है। उबटन, तेल और गर्म पानी को देखते ही श्री कृष्ण भाग जाते हैं। उन्हें यह सब पसंद नहीं है। इस समय वह जो मांगा करते थे, मैं उन्हें दिया करती थी। उन्हें धीरे-धीरे स्नान करने की आदत है। सूरदास जी कहते हैं कि माता यशोदा की हृदय में रात दिन यही चिंता सताती रहती है कि उनका लड़का उनका लाडला कृष्ण मथुरा में कुछ मांगने में संकोच तो नहीं करते।


 काव्य सौंदर्य

 भाषा 

शैली मुक्तक 

गुण माधुर्य 

रस वात्सल्य 

के पद 

शब्द शक्ति 

अलंकार अनुप्रास अलंकार


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