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अध्याय 1 सूरदास (पद)

 अध्याय 1

पद

सूरदास

पद्यांश 1



                चरण कमल बंदों हरि राइ।

जाकी कृपा पंगु गिर लंघे,अंधे को सब कुछ दरसाइ।।
 बहीरो सुने, गूंग पुनि बोलै, रंग चलै सिर छत्र धराइ। 
सूरदास स्वामी करुणामय, बार-बार बंदौ तिही पाइ।।

संदर्भ :–

प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

प्रसंग:–

प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने भगवान श्री कृष्ण की महिमा का वर्णन करते हुए उनके चरणों की वंदना की है।


व्याख्या:–



श्रीकृष्ण के परम भक्त सूरदास जी श्री कृष्ण के कमल रूपी चरणों की महिमा का चित्रण करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु! मैं आपके चरणों की वंदना करता हूं, जो कमल के समान कोमल है। इनकी महिमा अपरंपार है, जिनकी कृपा से लगड़ा व्यक्ति पर्वतों को लग जाता है, अंधे व्यक्ति को दिखाई देने लगता है, बहरे को सुनाई देने लगता है, गूंगा फिर से बोलने लगता है, और गरीब व्यक्ति राजा बनकर अपने सिर पर राज छात्र धारण कर लेता है। सूरदास जी कहते हैं—हे प्रभु! आपकी कृपा से असंभव असंभव कार्य भी संभव हो जाता है। अतः ऐसे दयालु श्री कृष्ण के चरणों की में बार बार वंदना करता हूं।

काव्यगत सौंदर्य:–
भाषा –साहित्यिक ब्रज
शैली– मुक्तक
गुण –प्रसाद
रस –भक्ति
छंद –गेयात्मक
शब्द –शक्ति लक्षणा
अलंकार –पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार, अनुप्रास अलंकार ,रूपक अलंकार 




पद्यांश 2


            अबिगत–गति कछु कहत न आवे।

    ज्यों गूंगे मीठे फल को रस अंतर्गत ही भावे।।

 परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावे। मन बानी कों अगम अगोचर, सो जाने जो पावे।।

रूप-रेख-गुण-जाति-जुगाती- बिनु निरालंब कित धावै।

 सब बिधि अगम बिचारहि तातै सुर सगुन –पद गावै।।



संदर्भ :–


प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।



प्रसंग :–


 उपरोक्त पद्यांश में सूरदास ने श्रीकृष्ण के कमल रूपी सगुण रूप के प्रति अपनी भक्ति भावना को व्यक्त किया है। इन्होंने निर्गुण ब्रह्मा की आराधना को अत्यंत कठिन तथा सगुण ब्रह्म की उपासना को सुगम और सरल बताया है।



व्याख्या:–


 सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्मा की आराधना करना कठिन है ।उसके स्वरूप के विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। निर्गुण ब्रह्म की उपासना के आनंद का वर्णन कोई व्यक्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार गूंगा व्यक्ति मीठे फल का स्वाद अपने हृदय में ही अनुभव करता है , वह उसका मौखिक वर्णन नहीं कर सकता, उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म की भक्ति के आनंद का केवल अनुभव किया जा सकता है उसे मौखिक बोलकर प्रकट नहीं किया जा सकता है। यधापि निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति से निरंतर अति अत्यधिक आनंद प्राप्त होता है और उपासक को उससे असीम संतोष भी प्राप्त होता है। मन और वाणी द्वारा ईश्वर तक पहुंचा नहीं जा सकता है, जो इंद्रियों से परे हैं, इसलिए उसे अगम अगोचर कहा गया है। उसे जो प्राप्त कर लेता है, वही उसे जानता है। उस निर्गुण ईश्वर का कोना कोई रूप है ना आकृति, ना ही हमें उसके गुणों का ज्ञान है, जिससे हम उसे प्राप्त कर सके। बिना किसी आधार के उसे कैसे पाया जा सकता है? ऐसी स्थिति में भक्तों का मन बिना किसी आधार के कहां-कहां भटकता रहेगा, क्योंकि निर्गुण ब्रह्म तक पहुंचना असंभव है। इसी कारण सभी प्रकार से विचार करके ही सूरदास जी ने सगुण श्री कृष्ण लीला के पद का गाना अधिक उचित समझा है।



काव्यगत सौन्दर्य 

भाषा–साहित्यिक ब्रज 

शैली –मुक्तक 

गुण –प्रसाद 

रस –भक्ति और शांत 

छंद –गीतात्मक 

शब्द शक्ति –लक्षणा 

अलंकार –अनुप्रास अलंकार



पद्यांश 3



           किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।

मनीमय कनक नंद के आगन ,बिंब पकरिबै धावत।। 

कबहुं निरखि हरि आपू छाह कौ,कर सौं पकरन चाहत।

किलकि हंसत राजत द्वे दतियां, पुनि– पुनि तिहीं अवगाहत ।।
कनक भूमि पर कर–पग छाया, यह उपमा इक राजति।
करी करी प्रतिपद प्रतिमनि वसुधा, कमल बैठकी साजति।।
बाल –दशा– सुख निरखि जसोदा, पुनि– पुनि नंद बुलावति।
   अंचरा तर लै ढांकि, सूर के प्रभु को दूध पियावति।।

संदर्भ :–


प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

प्रसंग:–

प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने मणियुक्त आंगन में घुटनों के बल चलते हुए बालक श्रीकृष्ण की शोभा का वर्णन किया है।

व्याख्या:–

कवि सूरदास जी श्रीकृष्ण की बाल मनोवृतियो का वर्णन करते हुए बालक कृष्ण किलकारी मारते हुए घुटनों के बल चल रहे हैं ।नंद द्वारा बनाए मणियों से युक्त आंगन में श्रीकृष्ण अपनी परछाई देख उसे पकड़ने के लिए दौड़ने लगते हैं। कभी तो अपनी परछाई देखकर हंसने लगते हैं और कभी उसे पकड़ना चाहते हैं ,जब श्री कृष्ण किलकारी मारते हुए हंसते हैं, तो उनके आगे के दांत बार-बार दिखाई देने लगते हैं, जो अत्यंत सुशोभित हो रहे हैं। श्री कृष्ण के हाथ पैरों की छाया उस पृथ्वी रुपी सोने होने के फर्श पर ऐसी प्रतीत हो रही है मानव प्रत्येक मणि में उनके बैठने के लिए पृथ्वी ने कमल का आसन सजा दिया हो अथवा प्रत्येक मणि पर उनके कमल जैसे हाथ पैरों का प्रतिबिंब पड़ने से ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर कमल के फूलों का आसन बिछ रहा हो।
श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं को देखकर माता यशोदा जी आनंदित होती है और बाबा नंद को बार-बार वहां बुलाती है। उसके पश्चात माता यशोदा सूरदास के प्रभु बालक श्रीकृष्ण को अपने आंचल से ढक कर दूध पिलाने लगती हैं।

काव्यगत सौंदर्य

भाषा–ब्रज
शैली –मुक्तक

गुण –प्रसाद और माधुर्य

रस –वात्सल्य
छंद –गीत आत्मक
शब्द शक्ति –लक्ष्णा
अलंकार अनुप्रास अलंकार उपमा अलंकार 


पद्यांश 4




 मैं अपनी सब गाइ चरैहौ।

प्रात होत बाल के संग जैहौ, तेरे कहैं न रैहौ ।।

ग्वाल बाल गाइनि के भीतर, नैकहूं डर नहि लागत। 

आजु न सोवाे नन्द– दुहाई, रैनि रहौगौ जागत।।

 और ग्वाल सब चरैहैं, मैं घर बैठो रैहौ।

 सूर श्याम तुम सोइ रहौ अब, प्रात जान में देंहौ।।

 

संदर्भ :–

प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

 प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्री कृष्ण के स्वभाविक बाल हठ का चित्रण किया है, जिसमें वह अपने ग्वाल शाखाओं के साथ अपनी गायों को चराने के लिए वन में जाने की हट कर रहे हैं।



 व्याख्या:–

 बालक कृष्ण अपनी माता यशोदा से हट करते हुए कहते हैं कि हे माता! में अपनी गांयो को चराने वन जाऊंगा। प्रात: काल होते ही में भैया बलराम के साथ वन में जाऊंगा और तुम्हारे कहने पर भी घर में ना रुकूंगा , क्योंकि वन मे ग्वाल शाखाओं के साथ रहते हुए मुझे तनिक भी डर नहीं लगता। आज मैं नंद बाबा की कसम खाकर कहता हूं कि रात भर नहीं सोऊंगा, जागता रहूंगा। हे माता! अब ऐसा नहीं होगा कि सब ग्वाल बाल गाय चराने जाए और मैं घर में बैठा रहूं। ये सुनकर माता यशोदा ने श्री कृष्ण को विश्वास दिलाया हे पुत्र! अब तुम सो जाओ सुबह होने पर मैं तुम्हें गाय चराने के लिए अवश्य भेज दूंगी ।



काव्यगत सौंदर्य 

भाषा –ब्रज

शैली –मुक्तक

गुण –माधुर्य

रस –वात्सल्य

छंद –गेय पद 

शब्द शक्ति –लक्ष्णा

अलंकार –अनुप्रास अलंकार




 

पद्यांश 5


मैया हो न चरैहौ गाइ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसो, मेरे पाइं पिराइ।
जो न पत्याहि पूछी बलदाउहीं ,अपनी सौह दिवाइ।
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालिन, गारी देति रिसाइ।
मैं पठवति अपने लरिका कों, आवे मन बाहराइ।।
सूर स्याम मेरो अति बालक, मारत ताहि रिंगाई।।

संदर्भ :–

प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

प्रसंग:–

प्रस्तुत पद्यांश में माता यशोदा ने श्री कृष्ण द्वारा हट किए जाने पर मुझे वन भेज दिया, किंतु वन मे ग्वाल– शाखाओं ने उन्हें परेशान किया तथा प्रस्तुत पद में श्रीकृष्ण घर लौटकर माता यशोदा से उनकी शिकायत करते हैं ।

व्याख्या:–

श्री कृष्ण माता यशोदा से कहते हैं कि हे माता! अब में गाय चराने नहीं जाऊंगा सभी ग्वाले मुझसे ही अपनी गायों को घेरने के लिए कहते हैं, इधर से उधर तो दोड़ते दोड़ते मेरे पैरों में दर्द होने लगता है। हे माता! यदि आपको मेरी बात पर विश्वास ना हो तो अपनी सौगंध दिला कर बलराम भैया से पूछ लो।
यह सुनकर माता यशोदा क्रोधित होकर ग्वालो को गाली देने लगती हैं। सूरदास जी कहते हैं कि माता यशोदा कहती है कि मैं अपने पुत्र को वन में इसलिए भेजती हूं कि उसका मन बहला जाए । मेरा कृष्ण अभी बहुत छोटा है, ये ग्वाले उसे इधर-उधर दौड़ाकर मार डालेंगे।


काव्यगत सौंदर्य 



भाषा –ब्रज



शैली –मुक्तक



गुण –माधुर्य



रस –वात्सल्य



छंद –गेय पद 



शब्द शक्ति अ–भिधा 



अलंकार –अनुप्रास अलंकार




पद्यांश


 सखी री, मुरली लीजे चोरि।

जिनि गुपाल किन्हें अपनै बस, प्रीति सबनि की तोरि।। 

छीन इक घर–भीतर, निसि–बासर,धरत न कबहुं छोरि।

 कबहुं कर, कबहुं अधरनि, कटी कबहुं को खोसत जोरि।।

 ना जानो कछु मेलि मोहिनी, राखी अंग अंग भोरि। 

सूरदास प्रभु को मन सजनी, बंध्यो राग की डोरी।।



संदर्भ :–

प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

 प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में श्रीकृष्ण की का मुरली के प्रति प्रेम तथा उससे ईर्ष्या करती गोपियो की मनोदशा का चित्रण किया गया है।

 व्याख्या:–

 गोपिया एक दूसरे से कहती है कि हे सखी! कृष्ण की मुरली को हम हमें चुरा लेना चाहिए। इस मुरली ने श्रीकृष्ण को अपनी ओर आकर्षित कर अपने वश में कर लिया है श्रीकृष्ण ने भी मुरली के वशीभूत होकर हम गोपियों हम सभी गोपियों को भुला दिया है वह घर के भीतर हो या बाहर कभी एक पल के लिए भी मुरली को नहीं छोड़ते कभी हाथ में रखते हैं तो कभी होठों पर और कभी कमर में घूस लेते हैं इस तरह से श्रीकृष्ण भी उसी उसे कभी भी अपने से दूर नहीं होने देते यह हमारी समझ में नहीं आ रहा है कि मुरली ने कौन सा मोहिनी मंत्र श्री कृष्ण पर चलाया है जिससे श्री कृष्ण पूर्णरूपेण उसके बस में हो गए हैं सूरदास जी कहते हैं कि गोपिया कह रही है कि यह सजनी इस वंशी ने श्री कृष्ण का मन प्रेम की डोर से बांधा हुआ है।



काव्यगत सौंदर्य



भाषा –ब्रज

शैली –मुक्तक और गीतात्मक 

गुण –माधुर्य

रस –श्रृंगार 

छंद –गेय पद 

शब्द शक्ति –लक्षणा 

अलंकार –अनुप्रास , रूपक अलंकार




पद्यांश 7




  

 ऊधों मोहिं ब्रज बिसरत नाही।
बृंदावन गोकुल बन उपबन, सघन कुंज की छांही।।
प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत।
माखन रोटी दहो सजायो, अति हित साथ खवावत।
गोपी ग्वाल बाल संग खेलत, सब दिन हँसत सिरात।
सूरदास धनि -धनि ब्रजबासी, जिनसो हित जदु - जात।।

संदर्भ:—

           प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

प्रसंग:—

          प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास ने श्रीकृष्ण की मनोदशा का चित्रण किया है उद्धव ने मथुरा पहुंचकर श्रीकृष्ण को वहां की सारी स्थिति बताई ,जिसे सुनकर श्रीकृष्ण भाव विभोर हो गए।

ब्याख्या:—

            श्री कृष्ण, उद्धव से कह रहे हैं कि है उद्धव! मैं ब्रज को भूल नहीं पाता। मैं सबको भूलने का प्रयास करता हूं ,किंतु मेरे लिए संभव नहीं हो पाता। वृंदावन और गोकुल के वन, उपवन सभी मुझे याद आते हैं वहां के कुंजो की घनी छांव भी मुझसे भुलाए नहीं भूलती। प्रातः काल माता यशोदा और नंद बाबा मुझे देखकर हर्षित होते तथा अत्यंत सुख का अनुभव करते थे वह भी मुझे रह —रहकर स्मरण हो आता है माता यशोदा मुझे मक्खन ,रोटी और दही बड़े प्रेम से खिलाती थी गोपियां और ग्वाल—बालों के साथ में खेला करता था। सारा दिन हंसते- खेलते हुए व्यतीत होता था ।यह सब बातें बहुत याद आती हैं। सूरदास जी कहते हैं कि वे ब्रजवासी धन्य है, क्योंकि श्रीकृष्णा स्वयं उनके हित की चिंता करते हैं, उन्हे श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ऐसा हितेषी और कौन मिल सकता है।

काव्यगत सौंदर्य:—


भाषा — ब्रज। रस — श्रृंगार
छंद — गेयात्मक। शब्द शक्ति — अभिधा और व्यंजना




पद्यांश 8




             ऊधों मन न भए दस बीस।

एक हूतो सो गयो स्याम संग, को अवराधे ईस।।

इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यों देही बिनु सीस।

आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहीं कोटि बरीस।।

तुम तो सखा श्याम सुन्दर के, सकल जोग के ईस।

सूर हमारे नंद - नंदन बिनु, और नहीं जगदीस ।।



संदर्भ:—

          प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

प्रसंग:—

          प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्री कृष्ण के मथुरा चले जाने के बाद गोपियों का उनको याद करके व्याकुल होने का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है श्री कृष्ण, उद्धव को गोपियों के पास ज्ञान व योग का संदेश लेकर ब्रज में भेजते हैं, परंतु गोपियां इस संदेश को स्वीकार करने में स्वयं को असमर्थ बताती हैं, क्योंकि वह श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी अन्य की उपासना नहीं कर सकती हैं।

व्याख्या:— 

          गोपियां, उद्धव से कहती हैं कि है उद्धव हमारे दस बीस मन नहीं है। हमारे पास तो केवल एक ही मन था, वह भी श्रीकृष्ण के साथ चला गया अब हम किस मन से तुम्हारे द्वारा बताए गए निर्गुण ब्रह्मा की आराधना करें अर्थात जब मन ही नहीं है तो किस प्रकार हम तुम्हारे द्वारा बताए गए धर्म का पालन करें।

 श्री कृष्ण के बिना हमारी सारी इंद्रियां कमजोर हो गई हैं अर्थात शक्तिहीन और निर्बल हो गई हैं जैसे बिना सिरवाला धड़ थिथिल बेकार हो जाता हैm हम सिर्फ तीर्थ के बिना मृत्यु हो गई हैं जीवन के लक्षण के रूप में हमारी सांस केवल इस आशा में चल रही है कि श्री कृष्ण मथुरा से अवश्य लौटेंगे और हमें उनके दर्शन प्राप्त हो जाएंगे श्री कृष्ण के लौटने की आशा के सहारे तो हम करोड़ों वर्ष तक जीवित रह सकती हैं गोपियां उधर से कहती हैं कि है उधो तुम तो सिर्फ के अभिन्न मित्र हो और संपूर्ण योग विद्या विद्या तथा मिलन के उपायों के ज्ञाता होता तुम ही स्वीकृत से हमारा मिलन करा सकते हो सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों से कह रही हैं कि हम तुम्हें स्पष्ट बता देना चाहती हैं कि नंद जी के पुत्र श्री कृष्ण को छोड़कर हमारा कोई अराध्य नहीं है।





काव्यगत सौंदर्य

 भाषा –ब्रज 

शैली –मुक्तक 

गुण –माधुर्य 

रस –श्रृंगार (वियोग)

छंद –गेय पद 

शब्द शक्ति –अभिधा और व्यंजना 

अलंकार –अनुप्रास अलंकार




पद्यांश 9



 

उधो जाहु तुमहि हम जाने।
स्याम तुमहि ह्या को नाहि पठयो, तुम हो बीच भुलाने।।
ब्रज नारिन सो जोग कहत हो, बात कहत ना लजाने। 
बड़े लोग ना विवेक तुम्हारे, ऐसे भए आयने।।
हमसो कहीं लई हम सहि कै, जिय गुनि लेहु सयाने।
कह अबला कह दसा दिगंबर, मष्ट करो पहिचाने।।
सांच कहो तुमको अपनी सौ, बुझाति बात निदाने।
सूर स्याम जब तुमहि पठायौ, तब नैकहुं मुसकाने।।

संदर्भ:— 

           प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

प्रसंग:–

प्रस्तुत पद्यांश में गोपिया उद्धव से कहती हैं – हे उद्धव! हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्मा को नहीं मानेंगे। उद्धव तथा गोपियों के बीच हुई तर्क वितर्क का वर्णन किया गया है।

व्याख्या:–

गोपिया उद्धव से कहती है कि तुम यहां से वापस चले जाओ। हम तुम्हें अच्छी प्रकार से जानते हैं। हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तुम्हें यहां श्रीकृष्ण ने नहीं भेजा हैं। तुम स्वयं रास्ता भटक कर यहां आ गए हो। तुम ब्रज की नारियों से योग की बात कर रहे हो, तुम्हें लज्जा नहीं आती। तुम भले ही बुद्धिमान और ज्ञानी होंगे ,परंतु हमें ऐसा लगता है कि तुम में विवेक नहीं है, नहीं तो तुम ऐसी अज्ञानता पूर्ण बातें हमसे क्या करते? तुम यह मन में विचार कर लो, जो हम से कह दिया ब्रज में किसी अन्य से ऐसी बात ना कहना। हमने तो सहन कर लिया, कोई दूसरी गोपी सहन नहीं करेगी। कहां योग के दिगंबर (वस्त्र हीन) अवस्था और कहां हम अबला नारीयां। अतः अब तुम चुप हो जाओ और जो भी कहना सोच समझकर कहना। अब तुम सो सच सच बतलाओ कि जब श्री कृष्ण ने तुम्हें यहां भेजा था, वह क्या थोड़ा सा मुस्कुरा थे वे अवश्य मुस्कुराए होंगे। तभी तो उन्होंने तुम्हारे साथ उपहास करने के लिए तुम्हें यह भेजा है।


काव्यगत सौंदर्य:—

भाषा — ब्रज। रस — श्रृंगार

छंद — गेयात्मक। शब्द शक्ति — अभिधा और व्यंजना

गुण –– माधुर्य। अलंकार –– अनुप्रास 

 


पद्यांश 10



 

 निरगुन कौन देस, को बासी?

 मधुकर कहि समुझाइ सौह दे, बुझति साँच न हांसी।।

 को है जनक, कौन है जननी, कौन नारि, को दासी?

 कैसो बरन, भेष है केसों, किहि रस मैं अभिलाषी?

 पावेगो पुनि कियो आपनो, जो रे करेगो गांसी।।

सुनत मौन ह्वै राह्यो बावरों, सुर सबै मति नासी ।।

संदर्भ:— 

           प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास ने गोपियों के माध्यम से निर्गुण ब्रह्म की उपासना का खंडन तथा सगुण कृष्ण की भक्ति का मुंडन किया है।


 व्याख्या :–

गोपिया भ्रमर की अन्योक्ति से उद्धव को संबोधित करते हुए कहती हैं कि है उद्धव! यह निर्गुण ब्रह्म किस देश के निवासी हैं? हम तुमको तुमको शपथ दिलाकर सत्य पूछती हैं, कोई हंसी मजाक नहीं कर रही हैं| तुम यह बताओ कि इस निर्गुण का पिता कौन है? इसकी मां कौन है ? कौन पत्नी है और कोन उसकी दासी है? उसका रंग रूप कैसा है? उसकी भेस भूषा कैसी है? उसे किस रस से अधिक लगाव है? गोपिया, उद्धव को चेतावनी देते हुए कहती हैं कि हमें सभी बातों का ठीक-ठीक उत्तर देना। यदि तुम हमारे साथ कपट करोगे तो उसका फल स्वयं ही भूगतोगे। सूरदास जी कहते हैं की गोपियों के इतने व्यंग्यात्मक तर्क सुनकर उद्धव ठगे से हो गए और उनका सारा विवेक समाप्त हो गया। गोपियों ने अपने वाक् चातुर्य से ज्ञानी उद्धव हो को परास्त कर दिया। अर्थात उद्धव का सारा ज्ञान अनपढ़ गोपियों के सामने नष्ट हो गया।



काव्यगत सौंदर्य:—

भाषा — ब्रज। रस — श्रृंगार

छंद — गेय पद। शब्द शक्ति — अभिधा और व्यंजना

शैली –– मुक्तक।



पद्यांश 11




 संदेसो देवकी सौ कहियों।

 हो तो धाइ तिहारे सूत की, मया करत ही रहियों।।

जदपि टेव तुम जानति उनकी, तऊ मोहि कहि आवै। 

प्रात होत मेरे लाल लड़ेतै, माखन रोटी भावै।।

 तेल उबटनौ अरु तातो जल, ताहि देखि भाजि जाते। 

जोइ–जोइ मांगत सोई सोई देती, क्रम क्रम करि कै न्हाते।।

 सूर पथिक सुन मोहि रैनि दिन, बढ्यो रहत उर सोच। 

मेरो अलक लड़ेतो मोहन ह्वैहै करत संकोच।।


संदर्भ:— 

           प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।

 

प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्री कृष्ण की माता देवकी के पास मथुरा चले जाने के बाद माता यशोदा के स्नेह तथा उनकी पीड़ा का वर्णन किया है।



व्याख्या:–

 यशोदा जी देवकी को एक पथिक के हाथ संदेश बिजवाती हुई कहती हैं कि मैं तुम्हें मैं तो तुम्हारे पत्र की धाय माँ हूं पर वह मुझे मैया कहता रहा है। इसलिए मेरा उसके प्रति वात्सल्य भाव स्वाभाविक है। यधापि आप तो उसकी सारी आदतें जानती होंगी, फिर भी मेरा मन आपसे कुछ कहने को उत्कंठीत हो रहा है।

मेरे लाडले श्री कृष्ण सुबह उठते ही माखन रोटी खाने की आदत है। उबटन, तेल और गर्म पानी को देखते ही श्री कृष्ण भाग जाते हैं। उन्हें यह सब पसंद नहीं है। इस समय वह जो मांगा करते थे, मैं उन्हें दिया करती थी। उन्हें धीरे-धीरे स्नान करने की आदत है। सूरदास जी कहते हैं कि माता यशोदा की हृदय में रात दिन यही चिंता सताती रहती है कि उनका लड़का उनका लाडला कृष्ण मथुरा में कुछ मांगने में संकोच तो नहीं करते।



 काव्य सौंदर्य

 भाषा  –ब्रज 

शैली –मुक्तक 

गुण –माधुर्य 

रस –वात्सल्य 

लक्षणा –शब्द शक्ति 

अलंकार –अनुप्रास अलंकार














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