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मेरी भव–बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ। जा तन की झाईं परै, स्यामु हरित–दुति होई।।

 मेरी भव–बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।

जा तन की झाईं परै, स्यामु हरित–दुति होई।।


 संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग :-

प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने राधिका जी की स्तुति की है। वह उनकी कृपा पाना चाहते हैं और सांसारिक बाधाओं को दूर करना चाहते हैं।


 व्याख्या :-

कवि बिहारी राधिका जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे चतुर राधिके! तुम मेरी इस संसार/रूपी बाधाओं को दूर करो अर्थात तुम भक्तों के कष्टों का निवारण करने में परम–चतुर हो, इसलिए मुझे इन संसार के कष्टों से मुक्ति दिलाओ। जिसके तन की परछाई पड़ने से श्री कृष्ण के शरीर की नीलिमा हरे रंग में परिवर्तित हो जाती है अर्थात श्रीकृष्ण भी प्रसन्न हो जाते हैं, जिनके शरीर की परछाई पड़ने से हृदय प्रकाशमान हो उठता है। उसके सारे अज्ञान का अंधकार दूर हो जाता है ऐसी चतुर राधा मेरी सांसारिक बाधाओं को दूर करे।


 काव्यगत सौंदर्य 

भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक 

गुण - माधुर्य , प्रसाद ।      

रस - श्रृंगार एवं भक्ति ।

छन्द- दोहा।

 अलंकार - अनुप्रास अलंकार, श्लेष अलंकार।



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