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मोर–मुकुट की चंद्रिकनु, यौं राजत नंदनंद। मनु ससि सेखर की अकस, किय सेखर सत चंद।।

 मोर–मुकुट की चंद्रिकनु,

यौं राजत नंदनंद। 

मनु ससि सेखर की अकस,

किय सेखर सत चंद।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग :-

प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने श्री कृष्ण के सिर पर विराजमान मोर–मुकुट का सुंदर चित्रण किया है।


 व्याख्या:-

 श्री कृष्ण जी के मस्तक पर मोर का मुकुट अत्यंत सुशोभित हो रहा है। उन मोर पंखों के बीच बनी सुनहरी चंद्राकार चंद्रिकाएं देखकर ऐसा लगता है मानो शंकर जी से तुलना करने के लिए उन्होंने अपने मस्तक पर सैकड़ों चंद्रमाओं को धारण कर लिया हो अर्थात श्रीकृष्ण के मस्तक पर मोर के पंख का मुकुट सैकड़ों चंद्रमाओं के समान लग रहा है तथा शंकर जी की परछाई–सा प्रतीत हो रहा है।


 काव्यगत सौंदर्य:-

 भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक

 गुण - माधुर्य । रस - श्रृंगार

 अलंकार - अनुप्रास अलंकार ,उत्प्रेक्षा अलंकार।



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