गोरज बिराजै भाल लहलही बनमाल
आगे गैयां पांचवें ग्वाल गावै मृदु बानि री।
तैसी धुनि बांसुरी की मधुर मधुर, जैसी
बंक चितवनि मंद मंद मुसकानि री।।
कदम बिटप के निकट तटिनी के तट,
आटा चढ़ि चाहि पीत पट फहरानि री।
रस बरसावै तन - तपनि बुझावै नैने,
प्राननि रिझावै वह आवै रसखानि री।।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक काव्य खण्ड के कवित्त शीर्षक से उद्धृत है यह कवि रसखान द्वारा रचित सुजान रसखान से लिया गया है ।
प्रसंग:-
उपरोक्त सवैया में कवि रसखान ने सायंकाल में श्री कृष्ण के वन से लौटते हुए उनके सौंदर्य के अत्यंत मनोहर रूप को चित्रित किया है।
व्याख्या :-
एक गोपी दूसरे गोपी से कहती है कि हे सखी! वन से गायों के साथ लौटते हुए श्री कृष्ण के माथे पर जो गायों के खुरों से उड़ी हुई धूल लगी हुई है, वह अत्यंत मनमोहक लग रही है और उनके वक्ष स्थल पर वन के फूलों की माला लहरा रही है। उनके आगे आगे गायें चल रही है और पीछे–पीछे ग्वाल–बाल चल रहे हैं, जो मधुर स्वर में गीत गा रहे हैं। जितनी मधुर उनकी बांसुरी की धुन है उतनी ही मधुर उनकी मंद मंद मुस्कान और चितवन है अर्थात उनका रूप, बांसुरी की ध्वनि और चितवन सभी अत्यंत मधुर लग रहे हैं।
हे सखी! तू अट् टालिका पर चढ़कर कदंब वृक्ष के समीप, यमुना नदी के किनारे पर श्री कृष्ण के पीले वस्त्रों को फहराते हुए देख, उससे जिस रस का वर्षा हो रही है, उसे आंखो द्वारा देखने से तन का ताप शांत हो रहा है और वह प्राणों को मोहता हुआ इस ओर ही आ रहा है अर्थात रस की खान श्री कृष्ण रस को बरसाते हुए गोपियों की ओर चले आ रहे हैं, जिससे उनके तन का ताप शांत हो रहा है उनका सौंदर्य नेत्रों की प्यास बुझा रहा है और हमें अपनी ओर आकर्षित कर रहा है।
काव्य गत सौंदर्य
भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक
गुण - माधुर्य। रस - श्रृंगार
छन्द - कवित्त।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार ।
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