अध्याय 3
रसखान
सवैये
पद्यांश 1
मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।
जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मंझारन।।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर् यौन कर छत्र पुरंदर - धारन।
जो खग हौं तो बसेरों करौं, मिलि कालिंदी - कूल कदंब की डारन।।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक का काव्य खण्ड के सवैये शीर्षक से उद्धृत है यह कवि रसखान द्वारा रचित सुजान रसखान से लिया गया है।
प्रसंग:-
प्रस्तुत सवैया में कवि रसखान ने श्री कृष्ण और उनसे जुड़ी वस्तुओं के प्रति लगाव प्रकट किया है, वह कृष्ण की निकटता प्राप्त करने की तीव्र कामना प्रकट करते है।
व्याख्या :-
कृष्ण की लीलाभुमि ब्रज के प्रति अपना लगाव प्रकट करते हुए कवि रसखान कहते हैं कि हे भगवान! मृत्व के पश्चात यदि मैं अपना अगला जन्म मनुष्य के रूप में लूं, तो मेरी इच्छा है कि मैं ब्रज भूमि के ग्वालों के बीच में निवास करूं। यादि मैं पशु योनि में जन्म लूं, जिसमें मेरा कोई वश नहीं है, फिर भी मैं नन्द बाबा की गायों के बीच चरना चाहता हूं, यदि मैं पत्थर बनूं तो उसी गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनना चाहता हूं, जिसे आपने इन्द्र का घमण्ड चूर करनें के लिए और जलमग्न होने से गोकुल ग्राम की रक्षा करने के लिए अपनी अंगुली पर छाते के समान उठा लिया था। यदि मैं पंछी बनूं, तो उसी कदम्ब वृक्ष की शाखाओं पर मेरा बसेरा हो, जो जमुना के किनारे हैं, जिसके नीचे श्री कृष्ण रास रचाया करते थे अर्थात् वह हर रूप में अपने आराध्य श्रीकृष्ण के ही समीप रहना चाहते हैं।
काव्य गत सौन्दर्य
भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक
छंद - सवैया। गुण - प्रसाद
अलंकार - अनुप्रास अलंकार।
पद्यांश 2
आजु गयी हुती भोर ही हौं, रसखानि रई वहि नंद के भौनहिं।
वाको जियौ जुग करोर, जसोमति को सुख जात कह्यो नहिं।।
तेल लगाइ लगाई कै अंजन, भौंहैं बनाइ बनाइ डिठौनहिं।
डारि हमेलनि हार निहारत ज्यौं पुचकारत छौनहिं।।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक का काव्य खण्ड के सवैये शीर्षक से उद्धृत है यह कवि रसखान द्वारा रचित सुजान रसखान से लिया गया है।
प्रसंग:-
प्रस्तुत सवैया में कवि रसखान ने श्री कृष्ण के प्रति माता यशोदा के वात्सल्य का वर्णन किया है।
व्याख्या :-
कवि रसखान कहते हैं कि एक सखी दूसरे सखी से कहती है कि आज मैं श्री कृष्ण के प्रेम में मग्न होकर प्रात:काल नंदजी के भवन में गई थी मेरी कामना है कि उनका पुत्र श्री कृष्ण लाखों-करोड़ों युगों तक जिए। श्री कृष्ण जैसा पुत्र पाकर यशोदा जी को जो सुख मिल रहा है, उसका वर्णन करना अत्यंत कठिन है। वे अपने पुत्र का श्रृंगार कर रही थीं। वे अपने पुत्र के शरीर पर तेल ,आंखों में काजल , भौंहें संवारकर, माथे पर नजर का टीका लगाकर तथा उनके गले में पहनने के आभूषण डालकर उन्हें निहार रही थी और उन पर बलिहारी जा रही थीं तथा उन्हें पुचकरे रही थीं।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - ब्रज। शैली - चित्रात्मक और मुक्तक गुण - प्रसाद । रस - वात्सल्य
छंद - सवैया।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार, यमक अलंकार।
पद्यांश 3
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैसी सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरैं अंगना, पग बाजति पीरी कचोटी।।
वा छबि को रसखानि बिलोकत,वारत काम कला निज कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी हरि - हाथ हों लै गयौ माखन - रोटी।।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक का काव्य खण्ड के सवैये शीर्षक से उद्धृत है यह कवि रसखान द्वारा रचित सुजान रसखान से लिया गया है।
प्रसंग :-
प्रस्तुत सवैया में कवि रसखान ने श्री कृष्ण के बाल रूप का मनोहरी चित्रण किया है। श्री कृष्ण के सौंदर्य को देखकर एक गोपी अपनी सखी से उनके सौंदर्य का वर्णन करती है।
व्याख्या:-
कवि रसखान कहते हैं कि एक सखी दूसरे सखी से कहती है कि हे सखी! श्यामवर्ण के कृष्ण धूल से भरे हुए अत्यंत सुशोभित व आकर्षक लग रहे हैं ऐसे ही उनके सिर पर सुंदर चोटी सुशोभित हो रही है। वे अपने आंगन में खाते और खेलते हुए विचरण कर रहे हैं। उनके पैरों में पायल बज रही है और वे पीले रंग की छोटी सी धोती पहने हुए हैं। कवि रसखान कहते हैं कि उनके उस सौंदर्य को देखकर कामदेव भी उन पर अपनी कोटि-कोटि कलाओ को न्योछावर करता है। उस कौए का भाग भी कितना अच्छा है, जिसे श्री कृष्ण जी के हाथों से मक्खन और रोटी छीन कर खाने का अवसर प्राप्त हुआ है।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - ब्रज। शैली - चित्रात्मक और मुक्तक
गुण - माधुर्य । रस - वात्सल और भक्ति
छंद - सवैया।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार।
पद्यांश 4
जा दिन तें वह नंद की छोहरा, या बन धेनु चराइ गयौ है।
मोहिनी ताननि गोधन गावत, बेनु बजाइ रिझाइ गयौ है।
वा दिन सो कछु टोना सो कै,रसखानि हियै मैं समाइ गयौ है।
कोऊ न काहु की कानि करै, सिगरो ब्रज बीर, बिकाइ गयौ है।।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक का काव्य खण्ड के सवैये शीर्षक से उद्धृत है यह कवि रसखान द्वारा रचित सुजान रसखान से लिया गया है।
प्रसंग :-
प्रस्तुत पद्यांश में ब्रज की गोपियों पर श्री कृष्ण के मनमोहक प्रभाव का सुंदर चित्रण किया गया है।
व्याख्या:-
श्री एक सखी दूसरे सखी से कहती है कि जिस दिन से वह नंद का पुत्र इस वन में अपनी गाय चराने के लिए आया है और अपनी बांसुरी की मधुर तान सुना कर हमें अपनी अपने प्रति रिझा गया है।
हे सखी! उसी दिन से ऐसा जान पड़ता है कि वह कोई जादू–सा कर हमारे हृदय में बस गया है अर्थात श्री कृष्ण के प्रति प्रेम हमारे हृदय में समा गया है। हे सखी! तब से कोई भी किसी की शर्म नहीं कर रहा, कोई भी गोपी किसी भी मर्यादा का पालन नहीं करती। सभी ब्रज की गोपियां, श्री कृष्ण के लिए व्याकुल हो रही है अर्थात श्री कृष्ण की बांसुरी के वशीभूत हो गई हैं और सभी ने अपनी लाज–शर्म को त्याग दिया है अर्थात संपूर्ण ब्रज ही उनके हाथों बिक गया है।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक
गुण - माधुर्य। रस - श्रृंगार
छंद - सवैया ।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार, उत्प्रेक्षा अलंकार।
पद्यांश 5
कान्ह भये बस बांसुरी के, अब कौन सखी, हमकौं चहिहै।
निसधोस रहे संग - साथ लगीं,यह सौतिन तापन कयौं सहिहै।।
जिन मोहि लियौ मनमोहन कौ, रसखानि सदा हमकौं दहिहै।
मिलि आओ सबै सखि, भागि चलैं अब तो ब्रज में बंसुरी रहिहै।।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक का काव्य खण्ड के सवैये शीर्षक से उद्धृत है यह कवि रसखान द्वारा रचित सुजान रसखान से लिया गया है।
प्रसंग:-
उपरोक्त सवैया में कवि रसखान ने गोपियों का श्री कृष्ण की बांसुरी के प्रति सौतन रूपी भाव का वर्णन किया है।
व्याख्या :-
एक सखी दूसरे सखी से कहती है कि हे सखी! श्रीकृष्ण को तो उनकी बांसुरी ने पूर्ण रूप से अपने वश में कर लिया है। अब हमें कौन चाहेगा और हम हम से कौन प्रेम करेगा? उनकी बांसुरी तो रात दिन उनके साथ ही रहती हैं, यह तो हमें सौतन की भांति दु:ख दे रही है, इसे हम कैसे सहन करेंगे? इस बांसुरी ने मनमोहन श्रीकृष्ण को अपने मोह में फंसा लिया है और हमें ईर्ष्या से हमेशा जलाती रहती हैं।
हे सखी! आओ हम सब मिलकर इस ब्रज से भाग चलें, क्योंकि अब तो ब्रज में श्रीकृष्ण के साथ केवल यह बांसुरी ही रहेगी अर्थात इस बांसुरी की मोह ने श्रीकृष्ण को पूरी तरह से अपने वश में कर लिया है। अतः हमारा यहां अब कोई नहीं अर्थात श्री कृष्ण के प्रेम से वंचित होकर हमारा ब्रज में निर्वाह नहीं हो सकता।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक
गुण - माधुर्य । रस - श्रृंगार
छन्द - सवैया।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार, रूपक अलंकार।
पद्यांश 6
मोर–पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी।
ओढि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारन संग फिरौंगी।।
भावों वोहि मेरी रसखानि, सो तेरे कहैं सब स्वांग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की, अधरन धरी अधरा न धरौंगी।।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक का काव्य खण्ड के सवैये शीर्षक से उद्धृत है यह कवि रसखान द्वारा रचित सुजान रसखान से लिया गया है।
प्रसंग:-
उपरोक्त सवैया में श्रीकृष्ण के प्रति वियोग प्रेम से व्याकुल गोपियों का वर्णन किया गया है।
व्याख्या:-
एक गोपी दूसरे गोपी से कहती है कि मैं तुम्हारे कहने पर मोर के पंखों से बने मुकुट को अपने सिर पर धारण कर लूंगी, गुंजाओं की माला अपने गले में पहन लूंगी,
पीला वस्त्र ओढ़कर, लकड़ी अपने हाथ में लेकर जंगल में गायों और ग्वालों के साथ घूमूंगी।
तुम जो लीलाएं करने की करने को कहोगी, वही सब करूंगी अर्थात जो लीलाएं श्रीकृष्ण को पसंद है, वही लीलाएं मैं करने के लिए तत्पर हूं ,परंतु मैं उस बांसुरी को अपने होंठों पर नहीं रखूंगी जो श्री कृष्ण के अधरों पर अत्यंत सुशोभित लगती है, क्योंकि बांसुरी गोपियों को अपनी सौतन जैसी प्रतीत होती है उन्हें बांसुरी से ईर्ष्या है, क्योंकि वह श्री कृष्ण के ज्यादा मुंह नहीं लगी हुई है।
काव्य गत सौंदर्य
भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक
गुण -। माधुर्य । रस - श्रृंगार
छंद - सवैया।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार ,यमक अलंकार
Thanks for watching......................
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