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दुसह दुराज प्रजानु कौं, क्यौं न बढ़ै दु:ख–दंदु। अधिक अंधेरौ जग करत, मिलि मावस रबि–चंदु।।

 दुसह दुराज प्रजानु कौं, क्यौं न बढ़ै दु:ख–दंदु।

अधिक अंधेरौ जग करत, मिलि मावस रबि–चंदु।।


 संदर्भ:-

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के नीति शीर्षक से उद्धृत है यह कभी बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


प्रसंग :-

प्रस्तुत पद्यांश में बिहारी जी ने नीतिपरक मत दिया है कि जिस राज्य में दो राजाओं का स्वामित्व होता है, वहां प्रजा का दु:ख भी दोगुना हो जाता है।


 व्याख्या:-

 जिस राज्य में दो राजाओं का शासन होता है, उस राज्य की प्रजा का दु:ख दोगुना क्यों न बढ़ेगा, क्योंकि दो राजाओं के भिन्न-भिन्न मंतव्य, उनके आदेश, नियमों व नीतियों के बीच प्रजा ऐसे पिसती है जैसे दो पाटों के बीच आटा। जिस प्रकार अमावस्या की तिथि को सुर्य और चंद्रमा एक ही राशि पर मिलकर संसार में और अधिक अधेरा कर देते हैं, उसी प्रकार दो राजाओं का एक ही राज्य पर शासन करना, प्रजा के लिए दोहरे दुख का कारण बन जाता है। 


काव्यगत सौंदर्य 

भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक 

गुण - प्रसाद। रस - शांत 

छंद - दोहा।             

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, श्लेष अलंकार।


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