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अध्याय 4 बिहारी लाल भक्ति

 अध्याय 4

बिहारी लाल

भक्ति 

पद्यांश 1

मेरी भव–बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।

जा तन की झाईं परै, स्यामु हरित–दुति होई।।


 संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग :-

प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने राधिका जी की स्तुति की है। वह उनकी कृपा पाना चाहते हैं और सांसारिक बाधाओं को दूर करना चाहते हैं।


 व्याख्या :-

कवि बिहारी राधिका जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे चतुर राधिके! तुम मेरी इस संसार/रूपी बाधाओं को दूर करो अर्थात तुम भक्तों के कष्टों का निवारण करने में परम–चतुर हो, इसलिए मुझे इन संसार के कष्टों से मुक्ति दिलाओ। जिसके तन की परछाई पड़ने से श्री कृष्ण के शरीर की नीलिमा हरे रंग में परिवर्तित हो जाती है अर्थात श्रीकृष्ण भी प्रसन्न हो जाते हैं, जिनके शरीर की परछाई पड़ने से हृदय प्रकाशमान हो उठता है। उसके सारे अज्ञान का अंधकार दूर हो जाता है ऐसी चतुर राधा मेरी सांसारिक बाधाओं को दूर करे।


 काव्यगत सौंदर्य 

भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक 

गुण - माधुर्य , प्रसाद ।      

रस - श्रृंगार एवं भक्ति ।

छन्द- दोहा।

 अलंकार - अनुप्रास अलंकार, श्लेष अलंकार।


पद्यांश 2


मोर–मुकुट की चंद्रिकनु,

यौं राजत नंदनंद। 

मनु ससि सेखर की अकस,

किय सेखर सत चंद।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग :-

प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने श्री कृष्ण के सिर पर विराजमान मोर–मुकुट का सुंदर चित्रण किया है।


 व्याख्या:-

 श्री कृष्ण जी के मस्तक पर मोर का मुकुट अत्यंत सुशोभित हो रहा है। उन मोर पंखों के बीच बनी सुनहरी चंद्राकार चंद्रिकाएं देखकर ऐसा लगता है मानो शंकर जी से तुलना करने के लिए उन्होंने अपने मस्तक पर सैकड़ों चंद्रमाओं को धारण कर लिया हो अर्थात श्रीकृष्ण के मस्तक पर मोर के पंख का मुकुट सैकड़ों चंद्रमाओं के समान लग रहा है तथा शंकर जी की परछाई–सा प्रतीत हो रहा है।


 काव्यगत सौंदर्य:-

 भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक

 गुण - माधुर्य । रस - श्रृंगार

 अलंकार - अनुप्रास अलंकार ,उत्प्रेक्षा अलंकार।


पद्यांश 3

सोहत ओढ़ै पीतु पटु, स्याम सलौने गात।

मनौ नीलमनि सैल पर, आतपु परयौ प्रभात।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग :-

प्रस्तुत दोहे में पीले वस्त्र पहने हुए श्री कृष्ण के सौंदर्य का चित्रण किया गया है।


 व्याख्या :-

बिहारी जी कहते हैं कि श्री कृष्ण के सांवले–सलोने शरीर पर पीले रंग के वस्त्र ऐसे लग रहे हैं मानो नीलमणि के पर्वत पर सुबह सुबह सूर्य की पीली किरणें पड़ रही हों अर्थात श्री कृष्ण ने जो पीले रंग के वस्त्र अपने शरीर पर धारण किऐ हैं, वे नीलमणि के पर्वत पर पड़ रही सूर्य की पीली किरणों के समान लग रही हैं। उनका यह सौंदर्य अवर्णनीय है।


 काव्यगत सौंदर्य 

भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक 

गुण - माधुर्य। रस - श्रृंगार

 छंद - दोहा।        

 अलंकार - अनुप्रास अलंकार, उत्प्रेक्षा अलंकार।



पद्यांश 4

अधर धरत हरि कै परत, ओठ–डीठि–पट जोति।

हरित बांस की बांसुरी, इंद्रधनुष–रंग होति।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग:-


 प्रस्तुत दोहे में श्रीकृष्ण द्वारा बांसुरी को होंठ पर रखने से वह हरे बांस की बांसुरी इंद्रधनुष के रंगों की हो जाती है। इसी का चित्रण यहां किया गया है



 व्याख्या:-

 एक सखी राधिका जी से कहती है कि जब श्रीकृष्ण अपनी बांसुरी को होंठ पर रखते हैं तो उस पर होंठ, नेत्र, पीतांबर की ज्योति पड़ते ही वह हरे बांस की बांसुरी इंद्रधनुष की भांति अनेक रंगों में परिवर्तित हो जाती है अर्थात बहुरंगी शोभा में परिवर्तित हो जाती है।


 काव्यगत सौंदर्य 

भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक 

गुण - प्रसाद । रस - भक्ति

 छंद - दोहा ।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, उपमा अलंकार, यमक अलंकार।



पद्यांश 5

या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।

ज्यौं–ज्यौं बूड़े स्याम रंग, त्यौं–त्यौं उज्जलु होई।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग:-


 प्रस्तुत दोहे में श्री कृष्ण के प्रेम में डूबने से मन व चित्त प्रकाशित हो जाता है। इसी पवित्र प्रेम का चित्रण कवि ने यहां किया है।


 व्याख्या:-

 कवि का कहना है कि श्री कृष्ण से प्रेम करने वाले मेरे मन की दशा अत्यंत विचित्र है। इसकी दशा को कोई और समझ नहीं सकता। ऐसे तो श्रीकृष्ण का वर्णन भी श्याम है, परंतु कृष्ण के प्रेम में मग्न मेरा मन जैसे-जैसे श्याम रंग में मग्न होता है, वैसे-वैसे श्वेत अर्थात पवित्र हो जाता है।


 काव्यगत सौंदर्य :-

भाषा - ब्रज । शैली - मुक्तक 

गुण - माधुर्य। रस - शांत 

छंद - दोहा ।

अलंकार - पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार।


पद्यांश 6

तौ लगु या मन–सदन मैं, हरि आवैं किहिं बाट।

विकट जटे जौ लग निपट, खुटैं न कपट–कपाट।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग:-

 प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने कहा कि जब तक मन का कपट नहीं समाप्त होगा, तब तक ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है।

 व्याख्या:-

 कवि बिहारी जी कहते हैं कि जब तक दृढ़ निश्चय से मन के कपटरूपी दरवाजे हमेशा के लिए खुलेंगे नहीं, तब तक इस मन रूपी घट में भगवान श्रीकृष्ण किस मार्ग से आएं अर्थात जब तक मनुष्य के मन का कपट समाप्त नहीं होगा, तब तक श्रीकृष्ण मन में वास नहीं करेंगे।


 काव्यगत सौंदर्य 

भाषा – ब्रज। शैली - मुक्तक

 गुण - प्रसाद। रस - भक्ति 

छंद - दोहा ।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, रूपक अलंकार।


पद्यांश 7


जगतु जलायौ जिहिं सकलु, सो हरि जान्यौ नांहिं।

ज्यौं आंखिनु सबु देखियै, आंखि न देखी जांहि।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग :-

उपरोक्त दोहे में बिहारी जी भक्त को समझा रहे हैं कि उस परम सत्य ईश्वर को जान ले, तभी तेरा कल्याण है। इसी सर्वभौमिक सत्ता का यहां वर्णन किया गया है।


 व्याख्या:-

 कवि बिहारी जी कहते हैं कि तू उस ईश्वर को जान ले, जिसने तुझे इस संपूर्ण संसार से अवगत कराया है। अभी तक तूने उस हरि(राम) को नहीं जाना है; यह बात ऐसी अब ऐसी प्रतीत हो रही है, जैसे आंखों से हम सब कुछ देख लेते हैं परंतु आखें स्वयं अपने आप को नहीं देख पाती हैं।


 काव्यगत सौंदर्य 

भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक 

गुण - प्रसाद । रस - शांत 

छंद - दोहा ।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार।



पद्यांश 8

जप माला छापा तिलक, सरै न एकौ कामु।

मन–कांचै नाचै वृथा, सांचे राचै रामु।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग :-

प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने भक्ति में आडंबर करने वालों पर कटाक्ष तथा सच्चे मन के अनुराग की महत्ता का चित्रण किया है अर्थात भगवान की सच्ची भक्ति पर बल दिया गया है।


 व्याख्या :-

कवि बिहारी जी कहते हैं कि भक्ति के नाम पर दिनभर माला जपना तथा दिखावे के लिए अपने माथे पर तिलक लगाना आदि बाह्य आडम्बरों से कोई एक भी काम सिद्ध नहीं होता अर्थात भक्तों के नाम पर धार्मिक आडंबरों से कोई लाभ नहीं होता, बल्कि सच्चे मन से की गई भक्ति से ही राम अनुरक्त होंगे और ईश्वर की प्राप्ति होगी। ईश्वर तो केवल सच्चे मन की भक्तों से ही प्रसन्न होते हैं ।


काव्यगत सौंदर्य 

भाषा - साहित्यिक ब्रज । शैली - मुक्तक

गुण - प्रसाद। रस - शांत 

छन्द - दोहा।

 अलंकार - अनुप्रास अलंकार।










Thanks for watching.................

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