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जप माला छापा तिलक, सरै न एकौ कामु। मन–कांचै नाचै वृथा, सांचे राचै रामु।।

 जप माला छापा तिलक, सरै न एकौ कामु।

मन–कांचै नाचै वृथा, सांचे राचै रामु।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग :-

प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने भक्ति में आडंबर करने वालों पर कटाक्ष तथा सच्चे मन के अनुराग की महत्ता का चित्रण किया है अर्थात भगवान की सच्ची भक्ति पर बल दिया गया है।


 व्याख्या :-

कवि बिहारी जी कहते हैं कि भक्ति के नाम पर दिनभर माला जपना तथा दिखावे के लिए अपने माथे पर तिलक लगाना आदि बाह्य आडम्बरों से कोई एक भी काम सिद्ध नहीं होता अर्थात भक्तों के नाम पर धार्मिक आडंबरों से कोई लाभ नहीं होता, बल्कि सच्चे मन से की गई भक्ति से ही राम अनुरक्त होंगे और ईश्वर की प्राप्ति होगी। ईश्वर तो केवल सच्चे मन की भक्तों से ही प्रसन्न होते हैं ।


काव्यगत सौंदर्य 

भाषा - साहित्यिक ब्रज । शैली - मुक्तक

गुण - प्रसाद। रस - शांत 

छन्द - दोहा।

 अलंकार - अनुप्रास अलंकार।



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