जगतु जलायौ जिहिं सकलु, सो हरि जान्यौ नांहिं।
ज्यौं आंखिनु सबु देखियै, आंखि न देखी जांहि।।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।
प्रसंग :-
उपरोक्त दोहे में बिहारी जी भक्त को समझा रहे हैं कि उस परम सत्य ईश्वर को जान ले, तभी तेरा कल्याण है। इसी सर्वभौमिक सत्ता का यहां वर्णन किया गया है।
व्याख्या:-
कवि बिहारी जी कहते हैं कि तू उस ईश्वर को जान ले, जिसने तुझे इस संपूर्ण संसार से अवगत कराया है। अभी तक तूने उस हरि(राम) को नहीं जाना है; यह बात ऐसी अब ऐसी प्रतीत हो रही है, जैसे आंखों से हम सब कुछ देख लेते हैं परंतु आखें स्वयं अपने आप को नहीं देख पाती हैं।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक
गुण - प्रसाद । रस - शांत
छंद - दोहा ।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार।
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