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तौ लगु या मन–सदन मैं, हरि आवैं किहिं बाट। विकट जटे जौ लग निपट, खुटैं न कपट–कपाट।।

 तौ लगु या मन–सदन मैं, हरि आवैं किहिं बाट।

विकट जटे जौ लग निपट, खुटैं न कपट–कपाट।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग:-

 प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने कहा कि जब तक मन का कपट नहीं समाप्त होगा, तब तक ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है।

 व्याख्या:-

 कवि बिहारी जी कहते हैं कि जब तक दृढ़ निश्चय से मन के कपटरूपी दरवाजे हमेशा के लिए खुलेंगे नहीं, तब तक इस मन रूपी घट में भगवान श्रीकृष्ण किस मार्ग से आएं अर्थात जब तक मनुष्य के मन का कपट समाप्त नहीं होगा, तब तक श्रीकृष्ण मन में वास नहीं करेंगे।


 काव्यगत सौंदर्य 

भाषा – ब्रज। शैली - मुक्तक

 गुण - प्रसाद। रस - भक्ति 

छंद - दोहा ।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, रूपक अलंकार।


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