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या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ। ज्यौनार–ज्यौं बूड़े स्याम रंग, त्यौं–त्यौं उज्जलु होई।।

 या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।

ज्यौनार–ज्यौं बूड़े स्याम रंग, त्यौं–त्यौं उज्जलु होई।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग:-


 प्रस्तुत दोहे में श्री कृष्ण के प्रेम में डूबने से मन व चित्त प्रकाशित हो जाता है। इसी पवित्र प्रेम का चित्रण कवि ने यहां किया है।


 व्याख्या:-

 कवि का कहना है कि श्री कृष्ण से प्रेम करने वाले मेरे मन की दशा अत्यंत विचित्र है। इसकी दशा को कोई और समझ नहीं सकता। ऐसे तो श्रीकृष्ण का वर्णन भी श्याम है, परंतु कृष्ण के प्रेम में मग्न मेरा मन जैसे-जैसे श्याम रंग में मग्न होता है, वैसे-वैसे श्वेत अर्थात पवित्र हो जाता है।


 काव्यगत सौंदर्य :-

भाषा - ब्रज । शैली - मुक्तक 

गुण - माधुर्य। रस - शांत 

छंद - दोहा ।

अलंकार - पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार।


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