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अधर धरत हरि कै परत, ओठ–डीठि–पट जोति। हरित बांस की बांसुरी, इंद्रधनुष–रंग होति।।

 अधर धरत हरि कै परत, ओठ–डीठि–पट जोति।

हरित बांस की बांसुरी, इंद्रधनुष–रंग होति।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के भक्ति शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग:-


 प्रस्तुत दोहे में श्रीकृष्ण द्वारा बांसुरी को होंठ पर रखने से वह हरे बांस की बांसुरी इंद्रधनुष के रंगों की हो जाती है। इसी का चित्रण यहां किया गया है



 व्याख्या:-

 एक सखी राधिका जी से कहती है कि जब श्रीकृष्ण अपनी बांसुरी को होंठ पर रखते हैं तो उस पर होंठ, नेत्र, पीतांबर की ज्योति पड़ते ही वह हरे बांस की बांसुरी इंद्रधनुष की भांति अनेक रंगों में परिवर्तित हो जाती है अर्थात बहुरंगी शोभा में परिवर्तित हो जाती है।


 काव्यगत सौंदर्य 

भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक 

गुण - प्रसाद । रस - भक्ति

 छंद - दोहा ।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, उपमा अलंकार, यमक अलंकार।


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