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भूप सयानप सकल सिरानी। सखी विधि गति कछु जाति न जाने।। बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी।।

 भूप सयानप सकल सिरानी।

सखी विधि गति कछु जाति न जाने।।

बोली चतुर सखी मृदु बानी।

तेजवंत लघु गनिअ न रानी।। 

कह कुंभज कह सिंधु अपारा।

सोशेउ सुजसु सकल संसारा। 

रवि मंडल देखत लघु लागा। 

उदास तासु तीभवन तम भागा।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।


 प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी की माता श्री राम की कोमलता को देख विचलित हो उठती हैं तब उनकी सखियां उनकी शंका को दूर करने के लिए तेजस्वी व्यक्तियों को तेजस्विता का वर्णन करती है।


व्याख्या:–

 तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी की माता राजा जनक को उलाहना देते हैं कि चाहे कोई विश्वामित्र को समझाइए या न समझाए, परंतु राजा को तो उन्हे समझाना चाहिए, लेकिन अब तो मुझे ऐसा लग रहा है कि राजा जनक की सारी समझदारी समाप्त हो गई है। हे सखी! विधाता की करनी को कोई नहीं जानता कि वह क्या चाहते हैं? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। तभी उनकी एक सखी कहती है कि है रानी! तेजवान व्यक्ति चाहे उम्र में छोटा क्यों ना हो, उसे छोटा नहीं मानना चाहिए।

 कहां घड़े से उत्पन्न होने वाले मुनि अगस्तय और कहां विस्तृत और अपार समुंद्र। दोनों में कोई समानता नहीं है, पर मुनि ने अपने पराक्रम से उस अपार समुद्र को सोख लिया था। इस कारण उनका यश सारे संसार में विद्यमान है अर्थात जिस प्रकार सूर्य को घेरा छोटा सा दिखाई देता है, किंतु सूर के उदित होते ही तीनों लोक का अंधकार मिट दूर हो जाता है, उसी प्रकार तुम श्रीराम को छोटा मत समझो।


 काव्य गत सौंदर्य:–

 भाषा –अवधी।     शैली – प्रबंध और विवेचनात्मक

 गुण – प्रसाद।       रस–  वीर 

छंद –चौपाई ।      अलंकार –अनुप्रास अलंकार








Thanks 🙏


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