Header Ads Widget

बैठी खिन्ना यक दिवस वे गेह में थीं अकेली। आके आँसू दृग-युगल में थे धरा को भिगोते।। आई धीरे इस सदन में पुष्प-सद्गन्ध को ले। प्रात:वाली सुपवन इसी काल वातयनों से।।

Telegram Group Join Now

 1. बैठी खिन्ना यक दिवस वे गेह में थीं अकेली।

आके आँसू दृग-युगल में थे धरा को भिगोते।।

आई धीरे इस सदन में पुष्प-सद्गन्ध को ले।

प्रात:वाली सुपवन इसी काल वातयनों से।।

सन्तापों को विपुल बढ़ता देख के दुःखिता हो।

धीरे बोली स-दुख उससे श्रीमती राधिका यो।।

प्यारी प्रात: पवन इतना क्यों मुझे है सताती।

क्या तू भी है कलुषित हुई काल की क्रूरता से।।


सन्दर्भ :–

प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में राधा द्वारा प्रातःकालीन पवन को फटकार लगाने का वर्णन किया गया है। राधा को लगता है कि प्रातः की सुगन्धित वायु उसके दु:ख को और अधिक बढ़ा रही है।


व्याख्या:–

 कवि कहता है कि एक दिन जब राधा उदास, खिन्न मन के साथ घर में अकेली बैठी हुई थी और उसकी दोनों आँखों से आँसू बहकर ज़मीन पर गिर रहे थे, तभी प्रातःकालीन सुगन्धित पवन रोशनदानों से होक घर के अन्दर प्रवेश करती है, किन्तु इससे राधा का दु:ख और अधिक बढ़ गया और वह दुःखी होकर पवन को फटकार लगाते हुए बोली कि हे प्रातःकालीन पवन! तू मुझे और क्यों सता रही है? क्या तू भी समय की कठोरता से दूषित हो गई है? क्या तुझ पर भी समय की क्रूरता का प्रभाव पड़ गया है? कहने का अभिप्राय यह है कि दुःखी राधा को सुगन्धित पवन का झोंका और भी दु:खी कर रहा है। इसे वह पवन की क्रूरता मान रही हैं और पवन से पूछ रही हैं कि आखिर वह क्रूर क्यों हो गई है?


काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – खड़ीबोली ।

शैली– प्रबन्ध।

छन्द – मन्दाक्रान्ता ।

अलंकार – अनुप्रास तथा मानवीकरण।

गुण – प्रसाद ।


शब्द शक्ति – अभिधा।

Post a Comment

0 Comments