गीत संदर्भ सहित व्याख्या | मैथिलीशरण गुप्त:-
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त हिंदी साहित्य की महान विभूतियों में से एक हैं। उनकी रचनाओं में देशभक्ति, सामाजिक चेतना, जीवन की वास्तविकता और नारी की पीड़ा का मार्मिक चित्रण मिलता है। प्रस्तुत रचना “गीत” में कवि ने उर्मिला के हृदय की विरह-व्यथा और ऋतुओं के माध्यम से उसके भावों का गहन वर्णन किया है।
गीत संदर्भ सहित व्याख्या
निरख सखी, ये खंजन आये,
फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाये!
फैला उनके तन का आतूप, मन से सर सरसाय,
घूमें वे इस ओर वहाँ, ये हंस यहाँ उड़ छाये!
करके ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुसकाये,
फूल उठे हैं कमल, अधर-से यह बन्धूक सुहाये!
स्वागत, स्वागत, शरद, भाग्य से मैंने दर्शन पाये,
नभ ने मोती वारे, लो, ये अश्रु अर्घ्य भर लाये।
सन्दर्भ:
यह पद्यांश राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की प्रसिद्ध कृति ‘गीत’ से लिया गया है। यह हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक में भी संकलित है।
प्रसंग:
इस पद्यांश में कवि ने शरद ऋतु के आगमन का वर्णन किया है। वर्षा ऋतु समाप्त हो चुकी है और शरद का मनोहारी दृश्य सामने है। उर्मिला इस ऋतु को अपने विरही हृदय से सम्बोधित कर उसका स्वागत कर रही है।
व्याख्या:
उर्मिला अपनी सखी से कहती है कि देखो, खंजन पक्षी आ गए हैं। ऐसा लगता है मानो मेरे प्रियतम लक्ष्मण ने अपनी सुंदर आंखों को मेरी ओर फेर दिया हो। चारों ओर फैली धूप मानो उनके तपस्वी शरीर की आभा है और उस आभा के कारण सरोवर में खिले कमल उनके हृदय की स्निग्धता का परिचय देते हैं। उड़ते हुए हंस मानो उनके वन में विचरण की याद दिला रहे हैं। प्रियतम के स्मरण मात्र से ही कमल खिल उठे हैं और लाल बन्धूक के फूल उनके अधरों की शोभा का बोध करा रहे हैं। उर्मिला कहती है कि हे शरद! तुम्हारा स्वागत है। मेरे लिए यह सौभाग्य की बात है कि आज तुम्हारे दर्शन प्राप्त हुए। आकाश ने भी ओस की बूंदों के रूप में मोतियों की वर्षा करके तुम्हारा अभिनंदन किया है।
काव्यगत सौन्दर्य:
- भाषा: शुद्ध, सरल और परिष्कृत खड़ीबोली।
- शैली: मुक्तक।
- छन्द: गेय पद।
- अलंकार: अपहृति, हेतुत्प्रेक्षा एवं उपमा।
- गुण: माधुर्य।
- शब्द-शक्ति: लक्षणा एवं व्यंजना।
शिशिर ऋतु का वर्णन
शिशिर, न फिर गिरि-वन में,
जितना माँगे, पतझड़ दूँगी मैं इस निज नन्दन में,
कितना कम्पन तुझे, चाहिए, ले मेरे इस तन में।
सखी कह रही, पाण्डुरता का क्या अभाव आनन में?
वीर, जमा दे नयन-नीर यदि तू मानस- भाजन में,
तो मोती-सा मैं अकिंचना रक्खूँ उसको मन में।
हँसी गई, रो भी न सकूँ मैं, अपने इस जीवन में,
तो उत्कण्ठा है, देखूँ फिर क्या हो भाव-भुवन में।
सन्दर्भ: पूर्ववत।
प्रसंग:
इस पद्यांश में उर्मिला शिशिर ऋतु से संवाद करती है। वह उसे अपने पास बुलाती है और चाहती है कि वह पर्वत और वनों में न जाए जिससे लक्ष्मण को अधिक ठंड न लगे।
व्याख्या:
उर्मिला कहती है कि हे शिशिर! तू पर्वतों और वनों में न घूम, मैं तुझे अपने शरीर से ही पतझड़ और शीतलता प्रदान कर दूँगी। पति के वियोग में उसका शरीर पीला और कांपता रहता है। उसकी सखी भी कहती है कि उसके मुख पर पीलापन आ गया है। उर्मिला कहती है कि यदि तू मेरे आंसुओं को मानस-पात्र में संग्रह कर ले, तो मैं उन्हें मोतियों की तरह संजोकर अपने मन में रखूँगी। वह आगे कहती है कि अब वह न हँस सकती है न रो सकती है, और यही सोचकर उसे जिज्ञासा होती है कि उसके भावलोक में अब क्या शेष रह जाएगा।
काव्यगत सौन्दर्य:
- भाषा – खड़ीबोली, सरल एवं भावप्रवण।
- अलंकार – रूपक, उपमा, मानवीकरण।
- छन्द – गेय पद।
- गुण – माधुर्य।
वसन्त ऋतु और कामदेव
मुझे फूल मत मारो,
मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु, गरल न गारो,
मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।
नहीं भोगिनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह-यह हरनेत्र निहारो!
रूप-दर्प कन्दर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो।
प्रसंग:
इस पद्यांश में वसन्त ऋतु के दौरान कामदेव के प्रहार से व्यथित उर्मिला उसकी प्रार्थना करती है कि वह उसे पुष्पबाणों से घायल न करे।
व्याख्या:
वियोगिनी उर्मिला कहती है कि हे कामदेव! मुझे अपने पुष्पबाणों से घायल मत करो। मैं कोई भोग-विलास की इच्छुक स्त्री नहीं हूँ। यदि तुम्हें अपनी शक्ति और सौंदर्य पर गर्व है, तो उसे मेरे पति के चरणों पर अर्पित करो। उर्मिला कहती है कि तुम्हारे प्रयास व्यर्थ हैं क्योंकि तुम्हें मुझे विचलित करने में कभी सफलता नहीं मिलेगी।
काव्यगत सौन्दर्य:
- अलंकार – श्लेष, अनुप्रास, रूपक।
- शैली – मुक्तक।
- गुण – माधुर्य।
उर्मिला का वनवास की इच्छा
यही आता है इस मन में,
धाम-धन जाकर मैं भी रहूँ उसी वन में।
प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ, रहूँ निकट भी दूर,
व्यथा रहे, पर साथ-साथ ही समाधान भरपूर।
हर्ष डूबा हो रोदन में,
यही आता है इस मन में।
बीच बीच में उन्हें देख लूँ मैं झुरमुट की ओट,
जब वे निकल जायँ तब लेदूँ उसी धूल में लोट।
रहें रत वे निज साधन में,
यही आता है इस मन में।
प्रसंग:
इस पद्यांश में उर्मिला अपने पति लक्ष्मण के साथ वन में जाने की इच्छा प्रकट करती है। वह चाहती है कि वह उनके पास भी रहे और उनकी तपस्या में बाधा भी न आए।
व्याख्या:
उर्मिला कहती है कि अब उसका मन घर-परिवार और धन में नहीं लगता। वह वन में जाकर प्रियतम के पास रहना चाहती है। यदि वह उन्हें दूर से ही देख सके और उनके चरणों की धूल में लोट सके तो वही उसका परम सुख है। साथ ही वह यह संदेश देना चाहती है कि संसार में धन के पीछे संघर्ष नहीं बल्कि प्रेम की विजय ही शाश्वत है।
काव्यगत सौन्दर्य:
- अलंकार – विरोधाभास, अनुप्रास।
- छन्द – गेय पद।
- शब्द-शक्ति – व्यंजना।
- गुण – माधुर्य।
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