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मनुष्य में आन्तरिक परिवहन (Internal Transportation in Human)

 मनुष्य में आन्तरिक परिवहन (Internal Transportation in Human):-


हम यह पढ़ चुके हैं, कि मानव में बन्द परिसंचरण तन्त्र (Closed circulatory system) पाया जाता है। इस तन्त्र में परिवहन माध्यम विशेषीकृत तरल संयोजी ऊतक (Liquid connective tissue) क्रमश: रुधिर (Blood) और लसीका (Lymph) होते हैं, जोकि विशेष वाहिनियों और अंगों द्वारा मानव शरीर में विचरण करते हैं। अतः मनुष्य में आन्तरिक परिवहन के लिए शरीर में दो प्रकार के परिसंचरण तन्त्र होते हैं। यह अध्याय मुख्यतया इन परिसंचरण तन्त्रों की कार्य प्रणाली से सम्बन्धित है।


रुधिर परिसंचरण तन्त्र (Blood Circulatory System):-


रुधिर परिसंचरण तन्त्र की खोज विलियम हार्वे (William Harvey; 1578-1657) ने की थी। इसे हृदयीसंचरण तन्त्र भी कहते हैं, क्योंकि इसमें रुधिर को नलिकाओं में पम्प करने का कार्य हृदय करता है।


रुधिर (Blood):-

रुधिर एक तरल संयोजी ऊतक है। इसमें लाल व श्वेत रुधिर कणिकाएँ पाई जाती हैं। यह मानव शरीर का मुख्य परिवहन माध्यम है। रुधिर के निम्न दो मुख्य घटक (Components) हैं


(i) प्लाज्मा (Plasma)


(ii) रुधिराणु (Blood Corpuscles)


इनका विस्तृत अध्ययन हम अध्याय 22(d) [परिसंचरण तन्त्र] में कर चुके हैं।


रुधिर के कार्य (Functions of Blood):-


 रुधिर के कार्य निम्नलिखित हैं


(i) ऑक्सीजन का परिवहन (Transportation of Oxygen) रुधिर ऑक्सीजन के परिवहन का मुख्य माध्यम है। रुधिर की लाल रुधिर कणिकाओं (Red Blood Corpuscles-RBCs) में उपस्थित हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन से क्रिया करके एक अस्थाई यौगिक ऑक्सीहीमोग्लोबिन (Oxyhaemoglobin) का निर्माण करता है, जो ऊतकों में पहुँचकर ऑक्सीजन और हीमोग्लोबिन में विखण्डित हो जाता है। इस प्रकार मुक्त ऑक्सीजन ऊतकों द्वारा ग्रहण कर ली जाती है।


(ii) पोषक पदार्थों का परिवहन (Transportation of Nutrients) रुधिर पचे हुए पोषक पदार्थों को ग्रहण करके इन्हें पहले यकृत (Liver) में पहुँचाता है, फिर शरीर की आवश्यकतानुसार पूरे शरीर में उनकी आपूर्ति करता है।


(iii) उत्सर्जी पदार्थों का परिवहन (Transportation of Excretory Products) शरीर में उपापचयी क्रियाओं के कारण यूरिया, आदि उत्सर्जी पदार्थ निर्मित होते हैं। इन पदार्थों को रुधिर पहले यकृत में और फिर यकृत से वृक्कों (Kidneys) में पहुँचाता है। ठीक इसी प्रकार कोशिकाओं में अपचय (Catabolism) के फलस्वरूप बनी कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) को प्लाज्मा ग्रहण करके श्वसनांगों (Respiratory organs) में ले जाता है।


(iv) शारीरिक ताप का नियन्त्रण और नियमन (Control and Regulation of Body Temperature) रुधिर शरीर के सभी भागों में ताप को समान बनाए रखने में मदद करता है।


(v) रोगों से बचाव (Protection from Diseases) शरीर में जब कोई घाव हो जाता है या हानिकारक जीवाणु, विषाणु, आदि का आक्रमण होता है, तो श्वेत रुधिर कणिकाएँ वहाँ पहुँचकर रोगाणुओं (हानिकारक जीवाणुओं) से लड़ती हैं और मवाद (Pus) बना लेती हैं। इस प्रकार वहाँ इन आक्रमणकारियों को समूल (जड़ से) नष्ट करके रुधिर के अवयव होने वाले रोगों से बचाव करते हैं।


(vi) रुधिर का थक्का बनना व घाव भरना (Blood Clotting and Healing of Wounds) रुधिर में इस प्रकार की सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ होती हैं कि यदि कहीं पर भी घाव हो और रुधिर बाहर से सम्पर्क में आता है, तो तुरन्त ही उसमें थक्का बनने की कार्यवाही प्रारम्भ हो जाती है। यह थक्का घाव को भरते समय संक्रमण से बचाता है तथा रुधिर में उपस्थित विटामिन C घाव के भरने में मुख्य सहायक की भूमिका निभाता है।


रुधिर स्कन्दन (Blood Clotting):-


 चोट लगने के कुछ समय पश्चात् चोट से रुधिर का बहना रुक जाता है, जिससे चोट ग्रस्त ऊतक का अत्यधिक रुधिर ह्रास नहीं होता है। इसे रुधिर का थक्का बनना या रुधिर स्कन्दन कहते हैं। यह एक जटिल प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसके मुख्य चरण निम्न हैं


चरण 1 चोटिल भाग की रुधिर वाहिनियाँ सिकुड़ जाती हैं तथा क्षतिग्रस्त ऊतक थ्रॉम्बोप्लास्टिन नामक पदार्थ स्रावित करते हैं, जो कुछ लाइपोप्रोटीन्स तथा फॉस्फोलिपिड्स का मिश्रण होता है। क्षतिग्रस्त रुधिर कोशिकाओं से निकली रुधिर प्लेटलेट्स भी विघटित होकर एक फॉस्फोलिपिड मुक्त करती हैं। ये दोनों पदार्थ प्लाज्मा के कैल्शियम आयनों (Ca2+) और कुछ प्लाज्मा-प्रोटीन्स से मिलकर प्रोथ्रॉम्बिनेज नामक एन्जाइम का निर्माण करते हैं।


चरण 2 प्रोथ्रॉम्बिनेज एन्जाइम Ca 2+ की उपस्थिति में प्लाज्मा में उपस्थित प्रतिजामन का प्रतिस्कन्दक (हिपैरिन) को निष्क्रिय करता है और प्रोथ्रॉम्बिन नामक निष्क्रिय प्रोटीन को सक्रिय थ्रॉम्बिन तथा अन्य छोटी पेप्टाइड श्रृंखलाओं में तोड़ता है।


चरण 3 इस चरण में थ्रॉम्बिन एक एन्जाइम की भाँति कार्य करके प्लाज्मा की घुलनशील फाइब्रिनोजन प्रोटीन को अन्य कई प्रोटीन यौगिकों एवं Ca2+ आयन की सहायता से पहले इसके एकलकों (अमीनो अम्लों) में विखण्डित करता है और फिर इन एकलकों का बहुलीकरण (Polymerisation) करके फाइब्रिन नामक अघुलनशील प्रोटीन अणुओं के संश्लेषण को प्रेरित करता है। अतः फाइब्रिन के लम्बे-लम्बे ठोस व महीन सूत्र, घने जाल के रूप में चोट पर जम जाते हैं। अनेक रुधिराणु इस जाल में फँसते हैं तथा चोट पर 2-6 मिनट में रुधिर का थक्का जम जाता है।


थोड़ी देर बाद थक्का सिकुड़ने लगता है, जिससे इसमें से हल्के पीले रंग का सीरम निकल आता है। यह फाइब्रिनोजन एवं रुधिराणुरहित प्लाज्मा होता है।


रुधिर वर्ग (Blood Group):-


कार्ल लैण्डस्टीनर (Karl Landsteiner) ने वर्ष 1902 में रुधिर वर्ग (A, B, AB तथा O) की खोज की। रुधिर में दो प्रकार की प्रोटीन (प्रतिजन तथा प्रतिरक्षी) होती है। प्रतिजन (Antigens) लाल रुधिराणु की कला या सतह पर, जबकि प्रतिरक्षी (Antibodies) प्लाज्मा पाए जाते हैं। प्रतिजन विशेष ग्लाइकोप्रोटीन्स हैं।


प्रतिजन एवं प्रतिरक्षी की उपस्थिति के आधार पर रुधिर को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जाता है111

रुधिर वर्ग प्रतिजन प्रतिरक्षी
A A b या एल्फा (α)
B B a या बीटा (β)
AB A तथा B कोई नहीं
O कोई नहीं दोनों a तथा b


रुधिर वर्ग 'AB' वाले व्यक्ति सभी रुधिर वर्गों वाले व्यक्तियों से रुधिर ग्रहण कर सकते हैं, इन्हें सर्वग्राही (Universal acceptor) कहा जाता है। रुधिर वर्ग '0' वाले व्यक्ति, सभी को रुधिर दे सकते हैं। इन्हें सर्वदाता (Universal donor) कहा जाता है।


Rh वर्ग या कारक (Rh Group or Factor):-


A, B, AB और 0 रुधिर वर्गों के अतिरिक्त मानवों में Rh वर्ग या कारक भी पाया जाता है, जिन मानवों में यह कारक उपस्थित होता है, उन्हें Rh (+)ve और जिनमें यह अनुपस्थित होता है, उन्हें Rh (-)ve कहते हैं। Rh (-)ve महिलाओं की सन्तानों की विशेष परिस्थितियों में एरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटेलिस (Erythroblastosis foetalis) नामक बीमारी से मृत्यु हो जाती है।


मानव हृदय की क्रियाविधि(Mechanism of Human Heart):-


मानव हृदय की विस्तृत संरचना हम अध्याय 22 (d) [परिसंचरण तन्त्र] में कर चुके हैं। इस अध्याय में इसकी कार्यविधि पर ध्यान केन्द्रित करेंगे। मानव हृदय पम्प के समान कार्य करता है। एक तरफ यह रुधिर को ग्रहण करता है और दूसरी तरफ दबाव के साथ उसे अंगों की ओर भेज देता है। यह नियमित, सतत् एवं जीवनपर्यन्त काम करता रहता है। एक सामान्य मनुष्य का हृदय एक मिनट में 72-75 बार धड़कता है। इसे हृदय स्पन्दन दर (Heartbeat rate) कहते हैं।


हृदय स्पन्दन (Heartbeat):-


कार्य करते समय मानव हृदय अपनी पेशियों को क्रमानुसार फैलाता एवं सिकोड़ता रहता है। हृदय की पेशियों के सिकुड़ने की अवस्था को प्रकुंचन (Systole) एवं फैलने को अनुशिथिलन (Diastole) कहते हैं। इस प्रकार फैलने सिकुड़ने की क्रिया से एक हृदय स्पन्दन बनती है अर्थात् प्रत्येक हृदय स्पन्दन में कार्डियक या हृद पेशियों (Cardiac muscles) का एक बार प्रकुंचन तथा एक बार अनुशिथिलन होता है। यहाँ यह बात भी स्मरण रखने योग्य है, कि इस प्रक्रिया में अलिन्द एवं निलय अलग-अलग स्पन्दन करते हैं।


हृदय में रुधिर परिसंचरण (Blood Circulation in Heart):-


शरीर के सभी अंगों से अनॉक्सीकृत (Deoxygenated) या अशुद्ध रुधिर अग्र एवं निम्न महाशिराओं (Vena cava) द्वारा दाहिने अलिन्द में आता है। इसी तरह फेफड़ों द्वारा ऑक्सीकृत या शुद्ध रुधिर बाएँ अलिन्द में आता है। दोनों अलिन्दों के रुधिर से भरने के बाद इनमें एक साथ संकुचन होता है, जिससे इनका रुधिर अलिन्द-निलय छिद्रों (Artrio ventricular apertures) द्वारा अपनी ओर के निलयों में आ जाता है। इस प्रक्रिया में द्विवलन व त्रिवलन कपाट रुधिर को वापस अलिन्दों में जाने से रोकते हैं।


निलयों में रुधिर आने पर दोनों निलयों में संकुचन होता है। अतः दाहिने निलय का अनॉक्सीकृत या अशुद्ध रुधिर फुफ्फुस महाधमनी (Pulmonary arch or aorta) द्वारा फेफड़ों में चला जाता है, जबकि बाएँ निलय का ऑक्सीकृत रुधिर कैरोटिको सिस्टेमिक या दैहिक महाधमनी (Carotico-systemic aorta) द्वारा सम्पूर्ण शरीर में पहुँचता है।


इस प्रक्रिया में इन महाधमनियों के तल में उपस्थित अर्द्धचन्द्राकार कपाट रुधिर को निलयों में वापस जाने से रोकते हैं।


दैहिक महाधमनी कशेरुकदण्ड के नीचे पृष्ठ महाधमनी (Dorsal aorta) कहलाती है, जोकि कपाल व ग्रीवा के अतिरिक्त मानव शरीर के सभी अंगों को ऑक्सीकृत रुधिर पहुँचाती है। निलयों के संकुचन के समाप्त होने पर अलिन्दों में पुनः संकुचन प्रारम्भ हो जाता है। इस प्रकार रुधिर का परिसंचरण लगातार होता रहता है।




मानव में दोहरा रुधिर परिसंचरण(Double Blood Circulation in Humans):-


मानव हृदय ऑक्सीकृत रुधिर (बायाँ भाग) और अनॉक्सीकृत रुधिर (दायाँ भाग) को विभिन्न अंगों तक प्रवाहित करता है। परिसंचरण के दौरान मानव हृदय में रुधिर दो बार आता है। इसी कारण इस परिसंचरण को हम दोहरा परिसंचरण कहते हैं।


इस परिसंचरण को हम दो चरणों में विभक्त कर सकते हैं


(i) फुफ्फुसीय परिसंचरण (Pulmonary Circulation) मनुष्य के दोहरे परिसंचरण में हृदय के दाएँ अलिन्द में सम्पूर्ण शरीर से (फेफड़ों को छोड़कर) अशुद्ध रुधिर आता है। अलिन्द से यह अशुद्ध रुधिर दाएँ निलय में पहुँचता है और दाएँ निलय से फिर यह रुधिर फुफ्फुस चाप द्वारा शुद्ध (ऑक्सीकृत) होने के लिए फेफड़ों में चला जाता है। इस पूर्ण परिसंचरण परिपथ (Circulatory circuit) को फुफ्फुसीय परिसंचरण कहते हैं।


(ii) दैहिक परिसंचरण (Systemic Circulation) इस परिसंचरण परिपथ में जो शुद्ध रुधिर फेफड़ों से फुफ्फुस शिराओं द्वारा हृदय के बाएँ अलिन्द में आता है, वह शुद्ध रुधिर बाएँ अलिन्द से बाएँ निलय में पहुँचता है और दैहिक महाधमनी या कैरोटिको-सिस्टेमिक चाप द्वारा सम्पूर्ण शरीर में वितरित हो जाता है। इस परिसंचरण परिपथ को दैहिक परिसंचरण कहते हैं।



लसीका परिसंचरण तन्त्र(Lymphatic Circulatory System):-


मनुष्य के शरीर में रुधिर परिसंचरण तन्त्र के अतिरिक्त बन्द वाहिनियों का एक अन्य परिसंचरण तन्त्र भी होता है, जो लसीका तन्त्र कहलाता है। इस तन्त्र के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं


(i) लसीका ग्रन्थियों में प्रतिरक्षी (Antibody) का निर्माण होता है।


(ii) यह तन्त्र वसीय अम्ल (Fatty acid) एवं ग्लिसरॉल (Glycerol) का आहारनाल से अवशोषण करके शरीर के विभिन्न अंगों में पहुँचाने का कार्य करता है।

(iii) लसीका द्रव्य ऊतक कोशिकाओं को नम रखने में सहायक होता है। 

(iv) यह तन्त्र कोशिकाओं के मध्य भोज्य पदार्थ, गैस, हॉर्मोन, आदि के स्थानान्तरण में सहायक होता है।


(v) लसीका में लाल रुधिर कणिकाएँ अनुपस्थित होती हैं, जबकि श्वेत रुधिर कणिकाएँ अधिक मात्रा में पाई जाती है।


रुधिर दाब (Blood Pressure):-


रुधिर बन्द नलिकाओं में बहता है, जब इसे हृदय द्वारा पम्प किया जाता है, तो यह नलिकाओं की दीवार पर दबाव डालता है अर्थात् यह धमनियों की दीवार को दबाता है, इसी को रुधिर दाब कहते हैं। सर्वप्रथम हेल्स (Hales; 1733) ने घोड़े में रुधिर दाब नापा था।


हृदय द्वारा रुधिर, क्योंकि निश्चित लय (Rhythm) या चक्र (Cycle) में पम्प किया जाता है, इसीलिए रुधिर वाहिनियाँ भी रुधिर दाब को निश्चित लय में अनुभव करती है। यह हृदय प्रकुंचन (Systole) के समय सबसे अधिक होता है तथा हृदय शिथिलन (Diastole) के समय सबसे कम होता है। इसी कारण रुधिर दाब को निम्न दो अवस्थाओं में नापा जाता है


प्रकुंचन दाब (Systolic Pressure) यह रुधिर दाब की ऊपरी सीमा (Upper limit) है, जो हृदय संकुचन की अवस्था प्रदर्शित करती है। मनुष्य में सीमा 120mm Hg होती है। यह


शिथिलन दाब (Diastolic Pressure) यह रुधिर दाब की निचली सीमा (Lower limit) है, जो हृदय शिथिलन की अवस्था प्रदर्शित करती है। मनुष्य में यह सीमा 80mm Hg होती है।


जिस यन्त्र के द्वारा रुधिर दाब नापा जाता है, उसे दाबान्तरमापी या स्फिग्मोमैनोमीटर (Sphygmomanometer) कहते हैं। रुधिर दाब मनुष्य में बाजू (Arm) की ब्रेकियल धमनी (Brachial artery) में नापा जाता है। स्वस्थ मनुष्य का रुधिर दाब (BP) 120/80mm Hg होता है।






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