22(d)परिसंचरण तन्त्र (Circulatory System):–
बहुकोशिकीय प्राणियों में शरीर की संरचना अत्यन्त जटिल होने के कारण विभिन्न जैव- क्रियाओं के उत्पाद एवं अन्य पदार्थों को शरीर के विभिन्न भागों में स्थानान्तरण की प्रबल आवश्यकता होती है; जैसे-भोज्य पदार्थों का सरलीकरण (पाचन) तो आहारनाल में होता है, परन्तु इन पदार्थों से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए इनका शरीर की कोशिकाओं में पहुँचना अतिआवश्यक है। ठीक इसी प्रकार इन भोज्य पदार्थों के ऑक्सीकरण (Oxidation) के लिए सभी कोशिकाओं में ऑक्सीजन (O२) का पहुँचना भी अतिआवश्यक है, जोकि फेफड़ों द्वारा बाह्य वातावरण से हमारे शरीर में पहुँचती है।
सरल शब्दों में, जटिल प्राणियों के शरीर में विभिन्न पदार्थों का आवश्यकतानुसार आवागमन या परिवहन (Transportation) अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है और इसे सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए एक विशेष तन्त्र उपस्थित होता है, जिसे परिसंचरण तन्त्र (Circulatory system) कहते हैं।
परिवहन की आवश्यकता( Necessity of Transportation):–
सभी जीवित उच्च श्रेणी के जन्तुओं के लिए परिवहन मुख्यतया निम्नलिखित कारणों से आवश्यक है।
(i) आहारनाल में पचे हुए भोजन का शरीर के विभिन्न भागों तक पहुँचाने के लिए।
(ii) सभी कोशिकाओं को ऑक्सीजन पहुंचाने के लिए।
(iii) उपापचय क्रिया के बाद बने उत्सर्जी पदार्थ, जैसे-CO२, अमोनिया, आदि को कोशिका से बाहर निकालने के लिए।
परिसंचरण तन्त्र (Circulatory System):–
परिसंचरण तन्त्र जन्तु शरीर में एक विस्तृत तन्त्र होता है, जिसका कार्य शरीर के विभिन्न अंगों (Organs) एवं ऊतकों के मध्य पदार्थों का निरन्तर रासायनिक आदान-प्रदान करना होता है।
जन्तुओं में निम्न दो प्रकार के परिसंचरण तन्त्र होते हैं
खुला परिसंचरण तन्त्र (Open Circulatory System):–
यह परिसंचरण तन्त्र ऊतक द्रव्य एवं रुधिर में भरे असममित पात्रों का बना होता है, इनमें केशिका (Capillary) जैसी पतली नलिकाएँ सदैव अनुपस्थित होती हैं। इस प्रकार के परिसंचरण तन्त्र में ऊतकों की कोशिकाएँ सदैव रुधिर जैसे परिवहन पदार्थ के सीधे सम्पर्क में रहती है;
उदाहरण- अधिकांश आर्थ्रोपोड़ा (कीट) तथा कुछ सिफैलोपोड्स।
बन्द परिसंचरण तन्त्र (Closed Circulatory System):–
इस परिसंचरण तन्त्र में रुधिर सदैव निश्चित वाहिनियों में बहता है तथा शरीर के ऊतकों के साथ सीधे सम्पर्क में कभी नहीं आता है। शारीरिक ऊतकों में रुधिर पहुंचाने का यह सबसे उपयुक्त तरीका है।
इस प्रकार के परिसंचरण तन्त्र में ऊतकों के स्तर पर बहुत महीन केशिकाएँ (Capillaries) उपस्थित होती हैं;
उदाहरण-ऐनेलिडा (केंचुआ) व कॉर्डेटा (खरगोश, मनुष्य, आदि)।
जन्तुओं में बन्द परिसंचरण तन्त्र मुख्यतया दो भागों में विभक्त होता है
1. रुधिर परिसंचरण तन्त्र (Blood Circulatory System)
2. लसीका परिसंचरण तन्त्र (Lymph Circulatory System)
मनुष्य में रुधिर परिसंचरण तन्त्र की संरचना (Structure of Blood Circulatory System in Human):–
मनुष्य में रुधिर परिसंचरण तन्त्र के अन्तर्गत रुधिर, हृदय तथा रुधिर वाहिनियाँ आते हैं।
रुधिर (Blood):–
रुधिर एक तरल संयोजी ऊतक है, जिसकी उत्पत्ति भ्रूण के मध्यजनस्तर (Mesoderm) से होती है। यह जल से कुछ भारी (घनत्व 1.04-1.07), चिपचिपा (श्यानता जल से 4.5-5.5 गुना अधिक), स्वाद में नमकीन, कुछ क्षारीय (pH 7.3-7.5) तथा अपारदर्शी (Opaque) पदार्थ है।
मानव शरीर में रुधिर की मात्रा शरीर के भार की लगभग 7-8% होती है। अतः एक 70 किलोग्राम के मनुष्य के शरीर में औसतन 5-6 लीटर रुधिर होता है। स्त्रियों में रुचिर की मात्रा कुछ कम होती है।
रुधिर के निम्न दो मुख्य घटक हैं
(i) प्लाज्मा (Plasma) यह रुधिर का लगभग 55% भाग बनाता है, जिसमें 90% जल तथा 10% में जटिल कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ होते हैं। इसे रुधिर का निर्जीव भाग कहते हैं, क्योंकि इसमें रुधिर कणिकाओं का अभाव होता है।
प्लाज्मा के कार्बनिक पदार्थों में प्रतिरक्षी, ग्लूकोस, अमीनो अम्ल, वसीय अम्ल, हॉर्मोन, एन्जाइम, विटामिन तथा प्रोटीन
(जैसे- एल्ब्युमिन, ग्लोब्यूलिन, प्रोथ्रॉम्बिन, फाइब्रिनोजन, हिपैरिन), आदि पदार्थ आते हैं।
हिपैरिन (Heparin) मानव रुधिर का प्रतिजामन अथवा प्रतिस्कन्दन (Anticoagulant) है, यह रुधिर वाहिनियों में रुधिर का स्कन्दन (Clotting) रोकता है। इसके विपरीत प्रोथ्रॉम्बिन (Prothrombin) व फाइब्रिनोजन (Fibrinogen) प्रोटीन चोट लगने पर रुधिर के स्कन्दन में मदद करती है।
अकार्बनिक पदार्थों में पोटैशियम, सोडियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम के फॉस्फेट, बाइकार्बोनेट, सल्फेट, क्लोराइड, आदि सम्मिलित हैं।
(ii) रुधिर कणिकाएँ या रुधिराणु (Blood Corpuscles) ये रुधिर का लगभग 45% भाग बनाते हैं।
मानव में रुधिराणु निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं
(a) लाल रुधिर कणिकाएँ (Red Blood Corpuscles - RBCs) मानव रुधिर में इनकी मात्रा सबसे अधिक लगभग (45-55 लाख प्रति क्यूबिक मिमी) होती है, ये लाल रंग की, केन्द्रकरहित तथा उभयावतल (Biconcave) कणिकाएँ होती हैं।
इनका लाल रंग इनमें उपस्थित हीमोग्लोबिन नामक श्वसन रंगा (Pigment) के कारण होता है। ये ऑक्सीजन के परिवहन का कार्य करती हैं। इनका जीवन काल लगभग 120 दिन का होता है।
(b) श्वेत रुधिर कणिकाएँ या ल्यूकोसाइट्स (White Blood Corpuscles-WBCs) ये लाल रुधिर कणिकाओं से बड़ी संख्या में कम (500-9500 प्रति क्यूबिक मिमी), केन्द्रकयुक्त, अमीबाभ (Amoeboid) तथा रंगहीन कणिकाएँ होती हैं। इनका जीवन काल 1-2 दिन तक का ही होता है।
श्वेत रुधिराणु दो प्रकार की होती हैं
• कणिकामय श्वेत रुधिराणु (Granulocytes)
इनका कोशिकाद्रव्य कणिकामय तथा केन्द्रक पालियुक्त होता है। ये असममित आकृति की होती हैं।
अभिरंजन गुणधर्मों (Staining characteristics) के आधार पर इन्हें तीन भागों में बाँटा जा सकता है
• एसिडोफिल्स या इओसिनोफिल्स (Acidophils or Eosinophils) ये कुल श्वेत रुधिर कणिकाओं की लगभग 2-4% होती हैं तथा अम्लीय अभिरंजक (जैसे-इओसिन) द्वारा अभिरंजित की जा सकती हैं। इनका केन्द्रक दो पालियों में विभाजित रहता है। रोगों के संक्रमण के समय इनकी संख्या बढ़ जाती है। ये शरीर को प्रतिरक्षा प्रदान करने में सहायक होती हैं तथा एलर्जी व अतिसंवेदनशीलता में महत्त्वपूर्ण कार्य करती हैं।
• बेसोफिल्स (Basophils) ये कुल श्वेत रुधिर कणिकाओं की 0.5-2.0% होती हैं। ये क्षारीय अभिरंजक ग्रहण करती हैं: जैसे- मेथिलीन ब्लू, इनका केन्द्रक 2-3 पालियों में विभाजित तथा 'S' आकृति का दिखाई देता है। ये हिपैरिन, हिस्टैमिन एवं सिरोटोनिन नामक पदार्थों का स्रावण करती हैं।
• न्यूट्रोफिल्स (Neutrophils) श्वेत रुधिर कणिकाओं में इनकी संख्या सबसे अधिक (60-70%) होती है। ये उदासीन अभिरंजकों द्वारा अभिरंजित होती हैं। इनका केन्द्रक 3-5 पालियों में विभाजित रहता है। ये भक्षकाणु (Phagocytosis) क्रिया में सबसे अधिक सक्रिय होती हैं।
• कणिकारहित श्वेत रुधिराणु (Agranulocytes)
इन श्वेत रुधिर कणिकाओं के कोशिकाद्रव्य में कणिकाएँ नहीं पाई जाती हैं। इनका केन्द्रक गोल होता है तथा पिण्डों में विभाजित नहीं रहता है। ये दो प्रकार की होती हैं
• लिम्फोसाइट्स या लसिकाणु (Lymphocytes) इनका आकार सबसे छोटा होता है। ये कुल श्वेत रुधिर कणिकाओं की 20-30% होती हैं। इनका कार्य प्रतिरक्षी (Antibodies) का निर्माण करना तथा शरीर की सुरक्षा करना होता है।
• मोनोसाइट्स (Monocytes) ये बड़े आकार की कोशिकाएँ होती हैं। ये कुल श्वेत रुधिर कणिकाओं की 2-10% होती हैं। ऊतक द्रव में जाकर ये वृहद् भक्षकाणु (Macrophages) में परिवर्तित हो जाती हैं। इनका कार्याणु क्रिया द्वारा जीवाणुओं का भक्षण करना होता है।
(c) रुधिर प्लेटलेट्स या थ्रॉम्बोसाइट्स (Blood Platelet or Thrombocyte) ये केवल स्तनधारियों के रुधिर में पाई जाती हैं। मनुष्य के रुधिर में इनकी संख्या 2-5 लाख प्रति क्यूबिक मिमी होती है। ये केन्द्रकरहित, गोल या अण्डाकार होती हैं। यह चोट लगने पर रुधिर का धक्का जमने की क्रिया में सहायक होती हैं।
हृदय (Heart):–
हृदय मानव शरीर का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग है। हृदय की संरचना विशेष प्रकार की कार्डियक पेशियों (Cardiac muscles) के द्वारा होती है। ये पेशियाँ जीवनपर्यन्त क्रियाशील होती हैं। हृदय विभिन्न अंगों से रुधिर एकत्र करके विशेष वाहिनियों की सहायता से विभिन्न अंगों में पम्प करता है।
हृदय की बाह्य संरचना (External Structure of Heart):–
हृदय वक्षगुहा (Thoracic cavity) में फेफड़ों के बीच में स्थित होता है। इसका अधिकांश भाग वक्ष के बाएँ ओर तथा थोड़ा-सा भाग अस्थि के दाएँ ओर होता है। साधारणतया इसका आकार व्यक्ति की बन्द मुट्ठी के समान होता है। मानव हृदय गुलाबी रंग का, स्पन्दनशील, शंक्वाकार, खोखला, मांसल होता है।
एक सामान्य व्यक्ति का हृदय लगभग 12-13 सेमी लम्बा तथा अग्रसिरे पर लगभग 9 सेमी चौड़ा तथा 6 सेमी मोटा होता है। इसका भार लगभग 300 ग्राम होता है। मनुष्य का हृदय एक दोहरी झिल्ली, हृदयावरणी थैली (Pericardial sae) या हृदयावरण (Pericardium) से घिरा रहता है। ये दोहरी झिल्लियाँ हैं
(i) हृदय की ओर आंतरांगी हृदयावरण (Visceral pericardium)
(ii) देहभित्ति की ओर भित्तीय हृदयावरण (Parietal pericardium)
इन दोनों झिल्लियों के मध्य की गुहा हृदयावरणी गुहा (Pericardial cavity) कहलाती है, जिसमें पारदर्शक, लसदार द्रव्य भरा होता है, जो हृदयावरणी द्रव (Pericardial fluid) कहलाता है। यह हृदय को नम बनाए रखता है तथा बाह्य आघातों, ताप, आदि से हृदय की रक्षा करता है।
मानव हृदय चार कक्षीय या वेश्मीय (Four chambered) होता है, जोकि हृदय खाँच या कोरोनरी सल्कस (Coronary sulcus) द्वारा अलिन्द (Auricle or Atrium) तथा निलय (Ventricle) में बँटा रहता है। अलिन्द हृदय का ऊपरी चौड़ा भाग तथा निलय हृदय का निचला शंकुरूपी भाग होता है। जैसा कि नीचे चित्र [22(d).2] में दर्शाया गया है।
शरीर से रुधिर लाने वाली मुख्य रुधिर वाहिनियाँ (महाशिराएँ) दाएँ अलिन्द में खुलती हैं तथा फेफड़ों से रुधिर लाने वाली वाहिनियाँ (फुफ्फुस शिराएँ) बाएँ अलिन्द में खुलती हैं। एक अन्तरानिलय खाँच (Interventricular sulcus) निलय के विभाजन को प्रदर्शित करता है।
दाएँ निलय से फुफ्फुस महाधमनी (Pulmonary arch) निकलती है तथा बाएँ निलय से धमनी महाकांड या मुख्य धमनी (Carotico systemic arch or aorta) निकलती है। ये दोनों क्रमश: फेफड़े एवं शरीर को रुधिर ले जाने वाली मुख्य रुधिर वाहिनियाँ हैं।
हृदय की आन्तरिक संरचना (Internal Structure of Heart):-
हृदय की आन्तरिक संरचना निम्नलिखित है
(i) अलिन्द एवं निलय (Atrium and Ventricle) मानव हृदय की अनुलम्ब काट का अध्ययन करने पर मनुष्य के चतुष्वेश्मी हृदय में चार पूर्णवेश्म अर्थात् दो अलिन्द तथा दो निलय दिखाई देते हैं। प्रत्येक ओर का अलिन्द व निलय आपस में सम्बन्धित होते हैं। अलिन्दों की दीवारें अपेक्षाकृत पतली होती हैं, जबकि निलयों की दीवारें मोटी होती हैं।
दोनों अलिन्द अन्तराअलिन्दीय पट्ट (Interatrial septum) तथा निलय अन्तरानिलय खाँच (Interventricular sulcus) द्वारा पृथक् होते हैं। मानव हृदय में बायाँ अलिन्द सबसे बड़ा वेश्म होता है।
(ii) फोसा ओवैलिस (Fosan Ovalis) अन्तराञ्जलिन्दीय पट्ट के पश्चभाग पर (दाहिनी तरफ) एक छोटा-सा अण्डाकार गड्ढा होता है, जो फोसा ओवेलिस कहलाता है। भ्रूण में यह छिद्र फोरामेन आंबेलिस के नाम से जाना जाता है।
(iii) महाशिरा (Vena cava) दाहिने अलिन्द में दो मोटी महाशिराएँ, अलग-अलग छिद्रों द्वारा खुलती है, इन्हें अग्र महाशिरा (Inferior vena (cava) तथा पश्च महाशिरा (Superior venn enva) कहते हैं।
(iv) ट्रेबीकुली कार्नी (Trabeculae Carnain) गुहाओं की ओर निलयों की दीवार सपाट न होकर छोटे-छोटे अनियमित भेजों के रूप में उभरी होती है, ये भेज ट्रेवोकुलों कानों कहलाते हैं।
(v) कोरोनरी साइनस (Coronary Simus) अन्तराअलिन्द्रीय पट के समीप हृदय की दीवारों से आने वाले रुधिर हेतु कोरोनरी साइनस का छिद्र होता है। इस छिद्र पर कोरोनरी या चिबेसियन कपाट (Thebasian valve) होता है।
(vi) स्पन्दन केन्द्र (Pacemaker) दाएँ अलिन्द में महाशिराओं के छिद्रों के समीप शिरा अलिन्द गाँठ (Sino-auricular node) होती है, जो स्पन्दन केन्द्र या पेसमेकर कहलाती है।
(vii) फुफ्फुस तथा धमनी महाकांड (Pulmonary and Carolico- systemic Arch) दाएँ निलय से फुफ्फुस चाप निकलता है, जो अशुद्ध रुचिर को फेफड़ों तक पहुंचाता है। बाएं निलय से धमनी महाकांड चाप निकलता है, जो सम्पूर्ण शरीर को शुद्ध रुधिर पहुंचाता है। दोनों चापों के एक-दूसरे के ऊपर से निकलने के स्थान पर एक स्नायु आरटीरिओसम (Ligament arteriosum) नामक ठोस स्नायु होता है। भ्रूणावस्था में इस स्नायु के स्थान पर डक्टस आरदीरिओसस (Ductus arteriosus or botalli) नामक एक महीन धमनी होती है।
फुफ्फस चाप तथा धमनी महाकांड चाप के आधार पर तीन-तीन अर्द्धचन्द्राकार कपाट (Semilunar valves) लगे होते हैं। ये कपाट रुधिर को वापस हृदय में जाने से रोकते हैं। अलिन्द, अलिन्द-निलय छिद्र (Atrio-ventricular apertures) द्वारा निलय में खुलते हैं। इन छिद्रों पर वलनीय अलिन्द-निलय कपाट (Cuspid Atrio-ventricular ivalve) स्थित होते हैं। इनकी विशेष वलनीय संरचना के कारण इन्हें यह नाम दिया जाता है। ये कपाट रुधिर को अलिन्द से निलय में तो जाने देते हैं, परन्तु वापस नहीं आने देते।
रुधिर वाहिनियाँ (Blood vessels):-
रुधिर हृदय के द्वारा पम्प होता हुआ पूर्ण शरीर में विस्तृत रूप से फैली मोटी-पतली रुधिर वाहिनियों में निरन्तर बहता रहता है। रुधिर वाहिनियों के दो तन्त्र होते हैं
(i) धमनी तन्त्र (Arterial System)
(ii) शिरा तन्त्र (Venous System) ये दोनों तन्त्र केशिकाओं (Capillaries) द्वारा एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं।
(i) धमनी (Arteries) धमनियों रुधिर को हृदय से शरीर के विभिन्न अंगों एवं ऊतकों में पहुंचाती हैं। अतः स्पष्ट है, कि आदर्श रूप से इन्हें हम उन वाहिनियों के रूप परिभाषित कर सकते हैं, जो रुधिर को हृदय से दूर ले जाती हैं। इनमें मुख्यतया ऑक्सीजन युक्त (Oxygenated) शुद्ध रुधिर (Pure blood) होता है। केवल फुफ्फुसीय धमनियाँ (Pulmonary arteries) इसका अपवाद होती हैं, क्योंकि ये हृदय से अशुद्ध रुधिर (Impure or deoxygenated blood) को शुद्धिकरण के लिए फेफड़ों में ले जाती हैं।
(ii) शिरा (Veins) शिराएँ शरीर के सब अंगों एवं ऊतकों से रुधिर को वापस हृदय में लाती हैं। अतः आदर्श रूप से इन्हें हम उन वाहिनियों के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जो रुधिर को हृदय से दूर ले जाती है। इनमें अशुद्ध रुधिर होता है। फुफ्फुसीय शिराएँ (Pulmonary veins) इसका अपवाद होती हैं, जिनमें शुद्ध रुधिर होता है, क्योंकि ये फेफड़ों में ऑक्सीजन युक्त रुधिर को हृदय में लाती हैं।
धमनी एवं शिरा में अन्तर:–
धमनी | शिरा |
---|---|
ये रुधिर को हृदय से शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुँचाती हैं। | ये शरीर के विभिन्न अंगों से रुधिर को हृदय की ओर ले जाती हैं। |
धमनियों में कपाट नहीं होते। | शिराओं में अर्द्धचन्द्राकार कपाट होते हैं, जो रुधिर को शरीर की ओर बहने से रोकते हैं। |
धमनियों में रुधिर अत्यधिक दबाव में बहता है। | शिराओं में रुधिर बहुत कम दबाव के साथ बहता है। |
धमनियों में अधिकतर ऑक्सीकृत रुधिर बहता है। अतः ये गुलावी या चमकीले लाल रंग की होती हैं। | शिराओं में अधिकतर अनॉक्सीकृत रुधिर बहता है। अतः ये गहरी लाल या नीली-सी प्रतीत होती है। |
धमनियाँ शरीर में गहराई में स्थित होती हैं। | शिराएँ त्वचा के समीप स्थित होती हैं। |
धमनियों की भित्ति मोटी व लचीली होती है। | शिराओं की भित्ति पतली होती है। |
धमनियों में पेशी स्तर मोटा होता है। | शिराओं में पेशी स्तर पतला होता। |
केशिकाएं (Capillaries) ये धमनी से शिरा तक रुधिर को ले जाने वाली छोटी नलिकाएं होती हैं, जो शरीर में ऊतक स्तर पर एक जाल के रूप में बिछी रहती हैं।
दरअसल, अंगों में पहुँचकर धमनियाँ धमनिकाओं (Arterioles) में विभक्त हो। जाती है तथा अन्त में पतली-पतली केशिकाओं में बँट जाती हैं। ये छोटी-छोटी केशिकाएं जुड़कर शिराकाऍ (Veinuoles) और फिर शिराएँ बनाती हैं। रुधिर का बहाव सदैव एक ही दिशा में होता है। जन्तुओं के शरीर में धमनी, धमनिका, केशिका, शिराका एवं शिरा में सम्बन्ध निम्न रेखाचित्र से समझ सकते हैं
इनकी पलती दीवारों से अपशिष्ट, पोषक पदार्थों, CO२, तथा O२ का विनिमय होता है।
लसीका परिसंचरण तन्त्र (Lymph Circulatory System):–
मनुष्य में रुधिर परिसंचरण तन्त्र के अतिरिक्त एक अन्य तरल परिसंचरण भी पाया जाता है, जिसे लसीका परिसंचरण तन्त्र कहते हैं। यह तन्त्र लसीका कहिनियों (Lymph vessels) द्वारा सम्पूर्ण शरीर में फैला होता है।
लसीका परिसंचरण तन्त्र निम्न अंगों से मिलकर बना होता है
(i) लसीका केशिकाएँ (Lymph Capillaries) लसीका केशिकाएँ, शरीर के विभिन्न अंगों में स्थित महीन नलिकाएं हैं। आंत के रसांकुर (Villi) में स्थित इनकी अन्तिम शाखाओं को आशीर वाहिनियाँ (Lacteals) कहते है।
(ii) लसीका वाहिनियाँ (Lymph Vessels) लसीका केशिकाएँ परस्पर मिलकर लसीका वाहिनियों का निर्माण करती हैं। लसीका वाहिनियों के अन्दर लसीका नामक द्रव भरा होता है, जो रुधिर प्लाज्मा का ही अंश होता है।
बाएँ अग्रपाद, दोनों पश्चपादों, सिर तथा गर्दन के बाएँ भागों, आहारनाल तथा वक्ष एवं उदर गुहा के अन्य भागों की लसीका वाहिनियाँ शरीर की देहभित्ति के नीचे स्थित, एक बड़ी बाई वक्षीय लसीका वाहिनी (Left thoracic lymph duct) में खुलती है तथा यह वाहिनी उदर गुहा में उपस्थित सिस्टरना काइलाई (Cisterna chyli) नामक एक बड़ी थैली से जुड़ी रहती है। आगे यह बाई अधोक्षक शिरा (Left subclavian vein) में खुलती हैं।
इसी प्रकार दाएँ हाथ तथा सिर, ग्रीवा एवं वक्ष के दाएँ भागों की लसीका वाहिनियाँ एक बड़ी दाईं वक्षीय लसीका वाहिनी (Right thoracic lymph duct) में खुलती हैं, जो बाई से छोटी होती हैं और दाई अधोक्षक शिरा (Right subclavian vein) में खुलती हैं।
(iii) लसीका गाँठें (Lymph Nodules) कुछ स्थानों पर लसीका वाहिनियाँ फूलकर लसीका गाँठों का निर्माण करती हैं। इनके मुख्य कार्य निम्न है।
(a) इनमें निर्मित लिम्फोसाइट्स लसीका में मुक्त होती हैं।
(b) ये लसीका को छानकर स्वच्छ करती हैं।
(c) ये प्रतिरक्षी (Antibody) का संश्लेषण करती हैं।
(d) ये जीवाणुओं एवं अन्य हानिकारक पदार्थों को नष्ट करती हैं।
नोट: लसीका पिण्ड, पेयर के पिण्ड़ों (Payer's patches) के रूप में आन्त्रीय श्लेष्मिका में भी उपस्थित होते हैं।
(iv) लसीका अंग (Lymph Organs) चाइमस ग्रन्थि, प्लीहा (Spleen) एवं टॉन्सिल्स, आदि प्रमुख लसीका अंग है।
लसीका एवं रुधिर में अन्तर:–
रूधिर | लसीका |
---|---|
रुधिर में लाल रुधिराणु पाए जाते हैं। | लसीका में लाल रुधिराणु नहीं पाए जाते हैं। |
इसमें विलेय प्लाज्मा प्रोटीन अधिक होती है। न्यूट्रोफिल्स की संख्या अधिक होती है। | इसमें अविलेय प्लाज्मा प्रोटीन अधिक होती है। लिम्फोसाइट्स की संख्या अधिक होती है। |
इसमें ऑक्सीजन तथा पोषक पदार्थ अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। | इसमें उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है। |
यह रुधिर वाहिनियों में परिसंचरित होता है। | यह लसीका वाहिनियों में परिसंचरित होने के साथ-साथ ऊतकों में ऊतक द्रव्य की तरह भी रहता है। |
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