Header Ads Widget

सुमित्रानन्दन पन्त संक्षिप्त जीवन परिचय, नौका विहार, परिवर्तन, बापू के प्रति, सन्दर्भ सहित व्याख्या

WhatsApp Group Join Now
Telegram Group Join Now

 सुमित्रानन्दन पन्त संक्षिप्त जीवन परिचय:–



• जन्म — सन् 1900 ई० ।
• जन्म स्थान कौसानी (कुमायूँ)।
• पूर्व - नाम – गुसाईं दत्त ।
• पिता- गंगादत्त पन्त ।
• मृत्यु — सन् 1977 ई० ।



नौका विहार सन्दर्भ सहित व्याख्या:–

शान्त, स्निग्ध ज्योत्सना उज्जवल!
अपलक अनंत नीरव भूतल !
सैकत शय्या पर दुध अवल, सन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल, लेटी हैं आन्त, क्लान्त, निश्चल!
तापस बाला गंगा निर्मल, शशिमुख से दीपित मृदु करतल,
लहरे डर पर कोमल कुन्तल !
गोरे अंगों पर सिहर सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर
चंचल अंचल-सा नीलाम्बर!
साड़ी सी सिकुड़न सी जिस पर शशि की रेशमी विभा से भर
सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर !

सन्दर्भ:–

प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘नौका-विहार’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

प्रसंग:–

प्रस्तुत पद्यांश में कवि पन्त जी ने चाँदनी रात में किए गए नौका-विहार का चित्रण किया है। इसमें कवि ने गंगा की कल्पना नायिका के रूप में की है।

व्याख्या:–

कवि कहता है कि चारों ओर शान्त, तरल एवं उज्ज्वल चाँदनी छिटकी हुई है। आकाश टकटकी बाँधे पृथ्वी को देख रहा है। पृथ्वी अत्यधिक शान्त एवं शब्दरहित है। ऐसे मनोहर एवं शान्त वातावरण में क्षीण धार वाली गंगा बालू के बीच मन्द-मन्द बहती ऐसी प्रतीत हो रही है मानो कोई छरहरे, दुबले-पतले शरीर वाली सुन्दर युवती दूध जैसी सफेद शय्या पर गर्मी से व्याकुल होकर थकी, मुरझाई एवं शान्त लेटी हुई हो। गंगा के जल में चन्द्रमा का बिम्ब झलक रहा है, । जो ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे गंगारूपी कोई तपस्विनी अपने चन्द्र-मुख को अपने ही कोमल हाथों पर रखकर लेटी हुई हो और छोटी-छोटी लहरें उसके वक्षस्थल। पर ऐसी प्रतीत होती है मानों वे लहराते हुए कोमल केश हैं। तारों भरे आकाश की चंचल परछाईं गंगा के जल में जब पड़ती है, तो वह। ऐसी प्रतीत होती है मानो गंगा रूपी तपस्विनी बाला के गोरे-गोरे अंगों के स्पर्श स । बार-बार कॉपता, तारों जड़ा उसका नीला आँचल लहरा रहा हो। उत्त। आकाशरूपी नीले आँचल पर चन्द्रमा की कोमल चाँदनी में प्रकाशित छोटी-छोटा, कोमल, टेढ़ी, बलखाती लहरें ऐसी प्रतीत होती हैं मानो लेटने के कारण उसके रेशमी साड़ी में सिलवटें पड़ गई हों।

काव्य गत सौंदर्य:–

रस– शान्त।
भाषा– संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली।
शैली – प्रतीकात्मक ।
छन्द – स्वच्छन्द।
अलंकार – अनुप्रास, मानवीकरण, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, सांगरूपक एवं स्वाभावोक्ति।
गुण– माधुर्य ।
शब्द शक्ति–  अभिधा एवं लक्षणा।


चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
हम चले नाव लेकर सत्वर ।
सिकता की सस्मित सीपी पर मोती की ज्योत्स्ना रही विचर
लो, पालें चढ़ी, उठा लंगर !
मंद-मंद, मंथर-मंदर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर,
मृदु तिर रही खोल पालों के पर!
निश्चल जल के शुचि दर्पण पर बिम्बित हो रजत पुलिन निर्भर
दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर !
कालाकाँकर का राजभवन सोया जल में निश्चिन्त, प्रमन
पलकों पर वैभव-स्वप्न सघन !

सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।

प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में चाँदनी रात में किए जाने वाले नौका-विहार का मनोरम चित्रण किया गया है।

व्याख्या: –

कवि पन्त जी कहते हैं कि वे चाँदनी रात के प्रथम पहर में नौका-विहार करने के लिए एक छोटी-सी नाव लेकर तेज़ी से गंगा में आगे बढ़ जाते हैं। गंगा के तट के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि गंगा का तट ऐसा रम्य लग रहा है मानो खुली पड़ी रेतीली सीपी पर चन्द्रमा रूपी मोती की चमक यानी चाँदनी भ्रमण कर रही हो। ऐसे सुन्दर वातावरण में गंगा में खड़ी नावों की पालें नौका-विहार के लिए ऊपर चढ़ गई हैं और उन्होंने अपने लंगर उठा लिए हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि एक साथ अनेक नावें नौका-विहार के लिए गंगा तट से खुली हैं। लंगर उठते ही छोटी-छोटी नावें अपने पालरूपी पंख खोलकर सुन्दर हंसिनियों के समान धीमी-धीमी गति से गंगा में तैरने लगीं। गंगा का जल शान्त एवं निश्चल है, जो दर्पण के समान शोभायमान है। उस जलरूपी स्वच्छ दर्पण में चाँदनी में नहाया रेतीला तट प्रतिबिम्बित होकर दोगुने परिमाण में प्रकट हो रहा है। गंगा तट पर शोभित कालाकाँकर के राजभवन का प्रतिबिम्ब गंगा जल में झलक रहा है। ऐसा लग रहा है मानो यह राजभवन गंगा जलरूपी शय्या पर निश्चिन्त होकर सो रहा है और उसकी झुकी पलकों एवं शान्त मन में वैभवरूपी स्वप्न तैर रहे हैं।

काव्य गत सौंदर्य:–

रस– शान्त।
भाषा– संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली।
शैली – प्रतीकात्मक ।
छन्द –स्वच्छन्द।
अलंकार – अनुप्रास, मानवीकरण, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, सांगरूपक एवं स्वाभावोक्ति।
गुण–  माधुर्य ।
शब्द शक्ति– अभिधा एवं लक्षणा।



नौका से उठती जल-हिलोर,
हिल पड़ते नम के ओर-छोर !
विस्फारित नयनों से निश्चल कुछ खोज रहे चल तारक दल
ज्योतित कर जल का अंतस्तल,
जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किए अविरल
फिरती लहरें लुक-छिप पल-पल !
सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती परी -सी जल में कल,
रुपहरे कचों में हो ओझल!
लहरों के घूँघट से झुक झुक दशमी का शशि निज तिर्यक्-मुख
दिखलाता मुग्धा सा रुक-रुक ।

सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।

प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में नौका-विहार करने के दौरान गंगा की अपूर्व छटा का वर्णन किया गया है।

व्याख्या:–

गंगा में नौका-विहार करते हुए कवि पन्त जी कहते हैं कि नौका चलने के कारण जल में तरंगें उठती हैं, जिससे जल में प्रतिबिम्बित आकाश इस छोर से उस छोर तक हिलता हुआ-सा प्रतीत होता है। जल में पड़ती तारों की परछाई को देखकर ऐसा आभास होता है, मानों तारों का दल जल के अन्दर के
भाग में प्रकाश फैलाकर अपनी आँखें फाड़-फाड़ कर कुछ ढूँढ रहा हो। गंगा में रह-रहकर उठने वाली चंचल लहरें भी अपने आँचल की आड़ में तारे रूपी छोटे-छोटे जगमगाते दीपकों को छिपाकर प्रतिक्षण लुकती-छिपती हुई-सी प्रतीत होती हैं। वहीं पास में शुक्र तारे की झिलमिलाती परछाई जल में किसी सुन्दर-सी परी की तरह तैरती हुई दिख रही है। श्वेत चमकती हुई जल-तरंगों में उस परछाई के ओझल होने का दृश्य इतना मनोरम है कि कवि को चाँदी से चमकते सुन्दर केशों में परी के छिप जाने का आभास होता है। जल में प्रतिबिम्बित दसमी का चाँद का तिरछा मुख कभी लहरों की चंचलता में छिप जाता है, तो कभी साकार हो उठता है। उसे देख कवि को ऐसी प्रतीत होती है, मानो अपने ही रूप-यौवन से मुग्ध होकर नायिका अपने मुख को कभी चूँघट में छिपा लेती हो, तो कभी उससे बाहर करती है।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली ।
शैली – प्रतीकात्मक ।
छन्द – स्वच्छन्द।
अलंकार – उपमा, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण।
गुण – माधुर्य ।
शब्द शक्ति – लक्षणा।

जब पहुँची चपला बीच धार
छिप गया चाँदनी का कगार!
दो बाँहों से दूरस्थ तीर धारा का कृश कोमल शरीर
आलिंगन करने को अधीर!
अति दूर, क्षितिज पर विटप-माल लगती भ्रू-रेखा-सी अराल,
अपलक नभ, नील-नयन विशाल,
माँ के उर पर शिशु-सा, समीप, सोया धारा में एक द्वीप,
उर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप,
वह कौन विहग? क्या विकल कोक, उड़ता हरने निज विरह शोक? छाया को कोकी का विलोक!

सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।

प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने नौका विहार करते हुए दोनों तटों के । प्राकृतिक दृश्यों का मनोरम चित्र अंकित किया है।

व्याख्या :–

कवि की नाव जब गंगा के मध्य धार में पहुँचती है, तो वहाँ से चन्टमा की चाँटनी में चमकते हुए रेतीले तट स्पष्ट दिखाई नहीं देते। कवि को । दर से दिखते दोनों किनारे ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, जैसे वे व्याकल होकर गंगा की। धारा रूपी नायिका के पतले कोमल शरीर का आलिंगन करना चाहते हों, जिसके लिए उन्होंने अपनी दोनों बाँहें फैला रखी हैं। दूर क्षितिज पर कतारबद्ध वृक्षों को देख ऐसा लग रहा है, मानो वे नीले आकाश के विशाल नेत्रों की तिरछी भौंहें हैं और धरती को एकटक निहार रहे हैं।
कवि आगे कहते हैं कि वहाँ पास ही एक द्वीप है, जो लहरों के प्रवाह को विपरीत दिशा में मोड़ रहा है। गंगा की धारा के मध्य स्थित उस द्वीप को देख कवि को ऐसा आभास हो रहा है, जैसे कोई छोटा-सा बालक अपनी माता की छाती से लगकर सो रहा हो। वहीं गंगा नदी के ऊपर एक पक्षी को उड़ते देख कवि सोचने लगता है कि कहीं यह चकवा तो नहीं है, जो भ्रमवश जल में अपनी ही छाया को चकवी समझ उसे पाने की चाह लिए विरह-वेदना को मिटाने हेत व्याकुल हो आकाश में उड़ता जा रहा है।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली ।
शैली – प्रतीकात्मक ।
छन्द – स्वच्छन्द।
अलंकार – उपमा, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण।
गुण – माधुर्य ।
शब्द शक्ति – लक्षणा।

पतवार घुमा, अब प्रतनु भार
नौका घूमी विपरीत धार।
डाँड़ों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन-स्फार।
बिखराती जल में तार-हार!
चाँदी के साँपों-सी रलमल नाचती रश्मियाँ जल में चल
रेखाओं-सी खिंच तरल-सरल!
लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल
फैले फूले जल में फेनिल;
अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले-ले सहज थाह।
हम बढ़े घाट को सहोत्साह!

सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।

प्रसंग:–

प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने नौका-विहार के दौरान गंगाजल में प्रतिबिम्ब रूप में पड़ने वाले चन्द्रमा और तारों के नृत्य का वर्णन किया है।

व्याख्या:–

बीच धारा में पहुँचने पर अथाह जल होने के कारण नाव के भार में स्वाभाविक रूप से कमी आ जाती है। इसी आधार पर पन्त जी कहते हैं कि जब मेरी नाव गहरे पानी में धारा के मध्य जा पहँची और उसका भार अत्यधिक कमा हो गया, तब मैंने पतवारों को घमा कर नाव को धारा की विपरीत दिशा में मात्र दिया। पतवारों के चलने से जल में काफी मात्रा में झाग उत्पन्न हो रहा है। इस दृश्य को देख कवि को ऐसा आभास होता है, जैसे पतवार अपनी हथेलियों व फैलाकर उनमें झाग रूपी मोतियों को भर-भर कर तथा तारों रूपी माला तोड़-तोड़कर जल में बिखेर रहे हैं। पतवारों के चलने के कारण नदी के शान्त जल में उठने वाली लहरें चाँदी के । साँपों-सी चमकती हुई आगे की ओर रेंगती हुई प्रतीत हो रही हैं। चन्द्रमा की किरणें लहरों पर पड़कर इस प्रकार नृत्य करती हुई-सी दिख रही है, जैसे बहते हुए जल में असंख्य सीधी रेखाएँ खिंची हुई हों। एक साथ उठती बहुत-सी लहरों में एक ही चन्द्रमा सौ-सौ चन्द्रमा और एक-एक तारा सौ-सौ तारे बनकर झिलमिला रहे हैं। उन्हें देख ऐसा आभास होता है, जैसे गंगा रूपी खेत में लहरों रूपी लताएँ फल-फूल रही हैं। किनारे की ओर लौटते हुए कवि कहते हैं कि अब नदी की गहराई कम होने लगी है और हम लग्गी से पानी की गहराई का अनुमान लगाते हुए अत्यन्त उत्साहित होकर घाट की ओर बढ़े जा रहे हैं।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली ।
शैली – प्रतीकात्मक ।
छन्द – स्वच्छन्द।
अलंकार – उपमा, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण।
गुण – माधुर्य ।
शब्द शक्ति – लक्षणा।

ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार
उर के आलोकित शत विचार।
इस धारा-सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम,
शाश्वत है गति, शाश्वत संगम!
शाश्वत नभ का नीला विकास, शाश्वत शशि का यह रजत हास,
शाश्वत लघु लहरों का विलास!
हे जग-जीवन के कर्णधार! चिर जन्म-मरण के आरपार,
शाश्वत जीवन-नौका-विहार!
मैं भूल गया अस्तित्व ज्ञान, जीवन का यह शाश्वत प्रमाण,
करता मुझको अमरत्व दान!

सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।

प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने नौका-विहार के अनुभव का वर्णन किया है।

व्याख्या:–

प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि कहता है कि जैसे-जैसे हमारी नाका दूसरे किनारे की ओर बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे हमारे हृदय में सैकड़ों विचार उठते हैं। ऐसा लगता है मानो इस संसार का क्रम भी इस जलधारा के समान ही है।

व्याख्या:–

प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि कहता है कि जैसे-जैसे हमारी। का दसरे किनारे की ओर बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे हमारे हृदय में सैकड़ों विचार उठते हैं। ऐसा लगता है मानो इस संसार का क्रम भी इस जलधारा के समान ही है। जिस प्रकार धारा निरन्तर बहती चली आ रही है, आगे बह चुके जल का स्थान पीछे का जल ले लेता है, उसी प्रकार जीवन का बहाव भी निरन्तर है। जलधारा के समान ही जीवन का विस्तार शाश्वत है। जीवन का क्रम धारा की तरह कभी न टूटने वाला क्रम है। कवि पन्त कहते हैं कि आकाश का यह विस्तार शाश्वत है। चन्द्रमा की चाँदी जैसी हँसी अर्थात् चाँदनी भी चिरस्थायी है। लहरों का ऐश्वर्य भी निरन्तर बना रहता है। कवि कहता है कि संसार की जीवनरूपी नौका को चलाने वाले ईश्वर जीवन की गति में जन्म एवं मृत्यु का शाश्वत कर्म बनाए रखते हैं। जीवनरूपी नौका का विहार निरन्तर होता रहता है। कवि कहते हैं कि चिन्तनशील होकर मैं अपने अस्तित्व का, सत्ता का ज्ञान भूल गया। जीवन की शाश्वतता का जलधारारूपी यह शाश्वत प्रमाण मुझे अमरत्व प्रदान करता है।

काव्य गत सौन्दर्य:–

भाषा – संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली ।
शैली – प्रतीकात्मक ।
छन्द – स्वच्छन्द।
अलंकार – उपमा, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण।
गुण – माधुर्य ।
शब्द शक्ति – लक्षणा।


परिवर्तन संदर्भ सहित व्याख्या:–


कहाँ आज वह पूर्ण, पुरातन, वह सुवर्ण का काल ? 

भूतियों का दिगंत छवि जाल,

ज्योति चुंचित जगती का भाल ? 

राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार ? 

स्वर्ग की सुषमा जब साभार 

धरा पर करती थी अभिसार!

प्रसूनों के शाश्वत शृंगार,

(स्वर्ण भृगों के गंध विहार)

गूंज उठते थे बारंबार न

सृष्टि के प्रथमादगार! 

नग्न सुन्दरता थी सुकुमार

ऋद्धि औ' सिद्धि अपार!

अये, विश्व का स्वर्ण स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात, 

कहाँ वह सत्य, वेद विख्यात? 

दुरित, दुख, दैन्य न थे जब ज्ञात, 

अपरिचित जरा-मरण भ्रु-पात।



सन्दर्भ: –

प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।


प्रसंग:–

 यहाँ कवि ने भारतवर्ष के वैभवपूर्ण और समृद्ध अतीत का उल्लेख करते हुए समय के साथ-साथ देश की भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों में होने वाले परिवर्तनों का संकेत भी किया है।


व्याख्या: –

भारतवर्ष के वैभवपूर्ण व समृद्धशाली अतीत से वर्तमान की तुलना करते हुए कवि पन्त कहते हैं कि आज हमारी समद्धि और ऐश्वर्य कहाँ विलुप्त हो गए, जो हमारे स्वर्णिम अतीत की पहचान थे? कभी हमारा देश सोने की चिड़िया कहलाता था, वह स्वर्ण युग कहाँ खो गया है? प्राचीन युग में यहाँ चारों दिशाओं में इस छोर से उस छोर तक सुख-समृद्धि का जाल फैला था। ज्ञान के प्रकाश से इस देश का मस्तक हर समय जगमगाता रहता था अर्थात् यहाँ जन-जन में शिक्षा का प्रचार था। धरती का कण-कण हरियाली से परिपूर्ण रहता था। चारों ओर हरी-भरी फसलों से लहलहाते खेतों को देखकर ऐसा प्रतीत होता था, जैसे पृथ्वी अपने यौवन के विस्तार पर हो, पृथ्वी पर चारों ओर फैली हरियाली ऐसी दिखती थी मानो पथ्वी का आभार मान स्वयं स्वर्ग की शोभा ही प्रेम-मिलन हेत यहाँ उतर आई हो। नित तरह-तरह के रंग-बिरंगे और सुगन्धित पुष्प खिलकर पृथ्वी का श्रृंगार करते रहते थे। उन पुष्पों के सुगन्ध से मदमस्त होकर उन पर गंजार करने वाले सुनहले भौरों को देख ऐसा प्रतीत होता था, जैसे सृष्टि भौंरों के रूप में घूम-घूम कर अपने हृदय के प्रथम उद्गार व्यक्त कर रही हो। उस समय धरती पर चहुँओर (चारों और) छाया हुआ सौन्दर्य उन्मुक्त और सुकुमार था। धरती अपूर्व वैभव और सुख-समृद्धि से पूर्ण थी। सचमुच वह वैभवशाली। युग विश्व के स्वर्णिम स्वप्न का युग था। वह युग सृष्टि के प्रथम प्रभात के समान आशा, उल्लास, सौन्दर्य व जीवन से परिपूर्ण था। कवि उस बीते हुए प्राचीन युग की विशेषताओं को आज न पाकर चिन्तित मुद्रा में पूछते हैं आज वह सत्य कहाँ खो गया, हमारे ऋषि-मुनियों ने जिसका मुक्त कण्ठ से गुणगान किया था? पूरी मानव जाति को ज्ञान का पाठ पढ़ाने वाले विश्वभर में प्रसिद्ध हमारे वेद आज कहाँ विलुप्त हो गए? कितने अच्छे वे दिन थे? जब हमारा समाज पाप, दुःख, दीनता आदि से मुक्त था और हम बुढ़ापा, मृत्यु जैसी विभीषिकाओं से भी परिचित न थे।


काव्य गत सौंदर्य:–

रस– शान्त।

 भाषा– संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली।

शैली – प्रतीकात्मक ।

छन्द – स्वच्छन्द ।

अलंकार – अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण ।

 गुण – ओज।

शब्द शक्ति – लक्षणा।




हाय! सब मिथ्या बात! 

आज तो सौरभ का मधुमास

शिशिर में भरता सूनी साँस ! 

मधुऋतु की गुंजित डाल 

झुकी थी जो यौवन के भार, 

अकिंचनता में निज तत्काल 

सिहर उठती....जीवन है भार!

आज पावस नद के उद्गार

काल के बनते चिह्न कराल,

प्रात का सोने का संसार,

जला देती संध्या सी ज्वाल!

अखिल यौवन के रंग उभार

हड्डियों के हिलते कंकाल,

कचों के चिकने, काले व्याल,

केंचुली, काँस, सिवार,

गूँजते हैं सबके दिन चार,

सभी फिर हाहाकार!


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने अतीत के गौरवपूर्ण समय से वर्तमान समय की तुलना की गई है।


व्याख्या:–

 अतीत के स्वर्णिम युग को स्मरण करते हुए पन्त जी कहते हैं कि । वर्तमान समय की दयनीय दशा को देखकर कल के वैभव व समृद्धि का भला कौन । विश्वास करेगा। आज तो अतीत की वे सारी बातें व्यर्थ व झूठी प्रतीत होती हैं। आज तो चारों ओर सुगन्ध बिखेर देने वाला बसन्त, शिशिर अर्थात् जाड़े का रूप धारण कर निर्जनता में गहरी साँसे भर रहा है अर्थात् मानव जीवन की सुख-समृद्धियाँ आज दुःख और दीनता में बदल गई हैं। बसन्त ऋतु में भौंरों के समूहों से गुंजायमान वृक्षों की जो डालियाँ नए-नए पत्तों और मंजरों-फूलों से लदकर झुक जाती थीं, आज वही डालियाँ नव पत्ते, मंजर व पुष्पों के लिए तरस रही हैं। दूसरों को सुख आनन्द पहुँचाने वाली डालियाँ आज अपने ही जीवन के लिए भार बन गई हैं। इस प्रकार, कवि उक्त उदाहरणों के द्वारा यह स्पष्ट करना चाहता है कि समय परिवर्तनशील है। समय की परिवर्तनशीलता का उल्लेख करते हुए कवि कहते हैं कि आज वर्षा ऋतु में बाढ़ लाकर जो नदियाँ चारों ओर भीषण तबाही मचाती हैं, वही नदियाँ वर्षा ऋतु के बीत जाने के पश्चात्, अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करती नजर आती हैं और रेत, कचरा, झाड़-झंखाड़ आदि के रूप में बस अपने कुछ चिह्न छोड़ जाती हैं। सुख के बाद दुःख के आने का दूसरा उदाहरण देते हुए कवि कहते हैं कि सवेरा होने पर सूर्य की प्रथम सुनहली किरणों के कारण समस्त धरती और पूरी प्रकृति सोने के रंग में रंग जाती है, पर दिन चढ़ने पर सूर्य की आग (लाल प्रकाश) उस सुनहले संसार को जला कर भस्म कर देती है। यौवनावस्था में शरीर के सुन्दर रंग और उभार उसे मजबूत और आकर्षक बना देते हैं, किन्तु वृद्धावस्था आने पर वहीं मानव-शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह जाता है और उसमें कोई आकर्षण शेष नहीं रहता। काले सर्प के सदश चिकने सुन्दर। केश सर्प की केंचुली-सी मलिन (बेजान), काँस के पुष्प से सफेद एवं काई के समान। उलझे हुए दिखने लगते हैं। इस प्रकार, हमारे जीवन में सुख स्थायी रूप से नहीं। ठहरता। सुख के चार दिनों के बीतने के बाद दुःख का आना तय है।


काव्य गत सौंदर्य:–

 रस– शान्त।

भाषा– संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली ।

 शैली– प्रतीकात्मक ।

छन्द – स्वच्छन्द ।

अलंकार – अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण ।

 गुण– ओज।

 शब्द शक्ति –लक्षणा।





आज बचपन का कोमल गात

जरा का पीला पात!

चार दिन सुखद चाँदनी रात

और फिर अंधकार, अज्ञात !

शिशिर-सा झर नयनों का नीर 

झुलस देता गालों के फूल !' 

प्रणय का चुम्बन छोड़ अधीर 

अधर जाते अधारो को भूल !

मृदुल होठों का हिमजल हास 

उड़ा जाता निःश्वास समीर; 

सरल भौंहों का शरदाकाश 

घेर लेते घन, घिर गंभीर !

शून्य साँसों का विधुर वियोग 

छुड़ाता आपराधिक अधर मधुर संयोग; 

मिलन के पल केवल दो चार, 

विरह के कल्प अपार !


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने विविध उदाहरणों के माध्यम से समय की । परिवर्तनशीलता को स्पष्ट करने की कोशिश की है।


व्याख्या: –

प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि कहता है कि आज बचपन का । जो कोमल, सुन्दर शरीर है, वृद्धावस्था आ जाने पर वही शरीर पीले, सूखे, खुरदरे पत्ते के समान हो जाएगा। जीवन में सुख देने वाली चाँदनी रातें हैं और सुख के क्षण बहुत थोड़े समय के लिए ही रहते हैं, शेष जीवन में तो अज्ञात अन्धकार से परिपूर्ण रात्रि मौजूद रहती है और सारे सुख नष्ट हो जाते हैं। दुःख के क्षणों में आँसू इस प्रकार गिरते हैं, जैसे पतझड़ में पेड़ों से पीले पत्ते झड़ते हैं। आँखों से गिरते रहने वाले आँसू, पुष्पों के समान गालों को इस प्रकार झुलसा देते हैं, जैसे शिशिर की ओस फूल एवं पत्तों को झुलसा देती है। उस समय प्रेमी के अधर प्रणय के चुम्बनों को भूलकर अपने प्रिय के अधरों को भी भूल जाते हैं। युवावस्था में जिन होंठों पर हमेशा ओस कणों-सी निर्मल और आकर्षक हँसी विद्यमान रहती है। वृद्धावस्था में वही होंठ गहरी साँसों के छोड़ने से मलिन पड़ जाते हैं, उनकी हँसी गायब हो जाती है। चिन्ताविहीन यौवन में जो भौहें शरद ऋतु के स्वच्छ आकाश की तरह स्वाभाविक और सरल होकर मुख की शोभा बढ़ाती हैं, उम्र बढ़ने के साथ-साथ उन्हीं भौंहों से चिन्ता की लकीरें स्पष्ट ‘झाकती दिखती हैं। उनकी सरलता लुप्त हो जाती है और वे सिकुड़ने लगती है। मिलन के सुखद समय में प्रेमी-प्रेमिका के जो होंठ आपस में जुड़े होते हैं, वियोग के विकट समय में वही होंठ विरह-वेदना से व्याकुल हो गहरी साँसें छोड़ने के लिए विवश हो जाते हैं। इस प्रकार, मिलन का समय अल्प जबकि वियोग का दीर्घ होता है अर्थात सुख कुछ समय साथ रहकर चला जाता है, जबकि दु:ख का प्रभाव देर तक बना रहता है।


काव्य गत सौंदर्य:–

 रस– शान्त।

भाषा– संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली ।

 शैली– प्रतीकात्मक ।

छन्द – स्वच्छन्द ।

अलंकार – अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण ।

 गुण– ओज।

 शब्द शक्ति –लक्षणा।






अरे, वे अपलक चार नयन 

आठ आँसू रोते निरुपाय, 

उठे रोओं के आलिंगन  

कसक उठते काँटों से हाय!

किसी को को सोने के सुख साज

मिल गया यदि ऋण भी कुछ आज,

चुका लेता दुख कल ही ब्याज 

काल को नहीं किसी की लाज !

विपुल मणि रत्नों का छविजाल, 

इन्द्रधनुष की सी छटा विशाल —

विभव की विधुत ज्वाल 

चमक छिप जाती तत्काल ;

मोतियों जड़ी ओस की डार 

हिला जाता चुपचाप बयार ! 


                     


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में सांसारिक दुःख की दयनीय तस्वीर तथा सुख-दुःख के चक्र को समय के साथ जोड़कर स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।


व्याख्या:–

 संसार के दु:ख का चित्रण करते हुए पन्त जी कहते हैं कि प्रिय की विरह-वेदना में पथराई आँखें बिना पलक झपकाए फूट-फूट कर रोया करती हैं। उन असहाय आँखों को दु:ख कम करने का कोई उपाय नहीं सूझता। वियोग के दौरान आने वाले दुःखों की कल्पना करके तथा स्वयं को असहाय जानकर व्यक्ति की दशा चिन्ताजनक हो जाती है। भय की आशंका से उसका रोम-रोम | इस प्रकार खड़ा हो जाता है, जैसे वे एक-दूसरे का आलिंगन करना चाहता हो। दुःखों से उसे इस प्रकार पीड़ा पहुँच रही है, मानो उसके शरीर में काँटे चुभो दिए गए हों। कवि पन्त जी कहते हैं कि सुख मानव का स्थायी साथी नहीं होता। यदि आज किसी को सुख-सुविधाओं के साधन उधार प्राप्त हो भी जाएँ तो समय का चक्र कल उसे इतना कमजोर और दुःखी बना देता है कि उसे प्राप्त सारे साधन ब्याज सहित चुकाने पड़ जाते हैं और उसकी दशा पहले से भी खराब हो जाती है। इस प्रकार यहाँ कवि ने समय को निर्लज्ज महाजन की तरह माना है। कवि कहते हैं कि मानव द्वारा असंख्य मणियों व रत्नों के रूप में संचित सम्पत्ति इन्द्रधनुष की तरह चकाचौंध करने वाली और अत्यन्त मोहक होती है, पर वह उसी क्षण भर में नष्ट हो जाने वाली भी है। जिस प्रकार बिजली की आग अपनी चमक बिखेर कर क्षण-भर में किसी अज्ञात संसार में विलुप्त हो जाता है, उसी प्रकार वैभव व सुख-सम्पत्ति का भी मानव-जीवन में क्षणिक प्रभाव रहता है।


काव्य गत सौंदर्य:–

 रस– शान्त।

भाषा– संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली ।

 शैली– प्रतीकात्मक ।

छन्द – स्वच्छन्द ।

अलंकार – अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण ।

 गुण– ओज।

 शब्द शक्ति –लक्षणा।



खोलता इधर जन्म लोचन

मूंदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण

अभी उत्सव औ हास हुलास

अभी अवसाद, अश्रु, उच्छवास!

अचरिता देख जगत् की आप

शून्य भरता समीर नि:श्वास,

डालता पातों पर चुपचाप

ओस के आँसू नीलाकाश,

सिसक उठता समुद्र का मन,

सिहर उठते उहुगन!




सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में परिवर्तनशील संसार का कारुणिक चित्रण किया गया है।



व्याख्या:–

 संसार की परिवर्तनशीलता को स्पष्ट करते हुए पन्त जी कहते हैं कि इस मृत्युलोक में जन्म-मरण का चक्र सदा चलता रहता है। एक ओर कितने ही मानव धरती पर जन्म लेकर अपनी आँखों से संसार को देखते हैं, तो दूसरी ओर मृत्यु को प्राप्त होने वाले कितने ही लोग हमेशा के लिए अपनी आँखें मूंद कर इस लोक से विदा हो जाते हैं। इस प्रकार, एक ओर जन्म लेने पर हर्षोल्लास के साथ उत्सव मनाया जाता है, तो वहीं दूसरी ओर मृत्यु के शोक में आँसू बहाए जाते हैं। वास्तव में इस संसार का अद्भुत विधान है। अभी-अभी जहाँ आनन्द और उल्लास का साम्राज्य फैला था, अगले ही क्षण वहाँ दुःख बरबस आकर अपना प्रभाव जमा लेता है। कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे संसार की क्षणिकता देख पवन दःखी होकर आहे भरने लगी है। नीला आकाश से भी यह सब नहीं देखा जाता और वह व्यथित होकर अश्रुरूप में पेड़ की शाखा पर ओस की बूंदें टपकाने लगा है। सागर भी धीरज खोकर सिसकियाँ ले रहा है और ग्रह-तारे भी करुणा से परिपूर्ण उस दृश्य को देख काँप उठे हैं।


काव्य गत सौंदर्य:–

 रस– शान्त।

भाषा– संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली ।

 शैली– प्रतीकात्मक ।

छन्द – स्वच्छन्द ।

अलंकार – अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण ।

 गुण– ओज।

 शब्द शक्ति –लक्षणा।




अहे निष्ठुर परिवर्तन!

तुम्हारा ही ताण्डव नर्तन

विश्व का करुण विवर्तन!

तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,

निखिल उत्थान, पतन!

अहे वासुकि सहस्रफन!

लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरन्तर

छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षःस्थल पर!

शत शत फेनोच्छ्वसित, स्फीत फूत्कार भयंकर

घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अम्बर

मृत्यु तुम्हारा गरल दन्त, कंचुक कल्पान्तर

अखिल विश्व ही विवर,

वक्र-कुण्डल दिङ्मण्डल।




सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में परिवर्तन को विनाशक तथा सौ के राज वासुकि के समान बताया गया है।


व्याख्या:–

 प्रस्तुत पद्यांश में कवि कहता है कि हे निष्ठुर परिवर्तन! जब तुम प्रलयकारी ताण्डव करते हो, तो उसके भँवर में फँसकर इस विश्व का करुण अन्त हो जाता है। इस संसार में जो उत्थान-पतन होते हैं, क्रान्तियाँ होती हैं, वे मानो तुम्हारे नेत्रों के खुलने और बन्द होने के साथ ही होती है अर्थात् तुम्हारे नेत्र खोलने पर उत्थान और बन्द करने पर पतन होता है। हे सहस्र फनों वाले वासुकि! तुम्हारे लाखों अदृश्य चरण इस संसार के घायल वक्षस्थल पर निरन्तर अपने चिह्न छोड़ते चलते हैं। तुम्हारे विष के झागों से भरी हुई और सारे विश्व को अपनी लपेट में ले लेने। वाली सैकड़ों भयंकर फुकारें इस संसार के मेघों के आकार से परिपूर्ण आकाश को निरन्तर घुमाती रहती हैं। हे परिवर्तनरूपी वासुकि! मृत्यु ही तुम्हारा जहरीला दाँत है, दो कल्पों के बीच का समय ही मानो तुम्हारी केंचुली है, यह समस्त संसार ही मानो तुम्हारे रहने की बाँबी (बिल) है और दिशाओं का घेरा ही माना तुम्हारी गोलाकार कुण्डली है।


काव्य गत सौंदर्य:–

 रस– शान्त।

भाषा– संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली ।

 शैली– प्रतीकात्मक ।

छन्द – स्वच्छन्द ।

अलंकार – अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण ।

 गुण– ओज।

 शब्द शक्ति –लक्षणा।


बापू के प्रति सन्दर्भ सहित व्याख्या:–


तुम मांसहीन, तुम रक्तहीन 

हे अस्थिशेष! तुम अस्थिहीन, 

तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल, 

हे चिर पुराण ! हे चिर नवीन ! 

तुम पूर्ण इकाई जीवन की, 

जिसमें असार भव-शून्य लीन, 

आधार अमर, होगी जिस पर 

भावी की संस्कृति समासीन। 


सन्दर्भ:–

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘बापू के प्रति’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का गुणगान किया गया है।


व्याख्या:–

 कवि पन्त जी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को नमन करते हुए कहते हैं। कि हे महात्मन! तुम्हारे शरीर में मांस और रक्त का अभाव है। तुम हड्डियों का ढाँचा मात्र हो। तुम्हें देख ऐसा आभास होता है कि तुम्हारा शरीर हड्डियों से रहित है। तुम पवित्रता एवं उत्तम ज्ञान से परिपूर्ण केवल आत्मा हो। हे प्राचीन संस्कृतियों के षोषक! हे नवीन संस्कृति के प्रतीक! तुम्हारे विचारों में प्राचीन व नवीन दोनों आदर्शों का सार विद्यमान है। हे आदर्श पुरुष! तुममें जीवन की सम्पूर्णता झलकती है, जिसमें विश्व की सम्पूर्ण असारता को समा लेने की क्षमता है। तुम्हारे ही आदर्शों से देश की संस्कृति का आधार परिलक्षित होगा और भविष्य की संस्कृति को पुनः प्रतिष्ठित करने में भी तुम्हारे ही जीवन के आदर्श महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे।


काव्य गत सौंदर्य:–

भाषा– संस्कृतनिष्ठ शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली।

 शैली – गीतात्मक ।

अलंकार – विरोधाभास, यमक एवं रूपक ।

 गुण – प्रसाद।

 शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।





तुम मांस, तुम्हीं हो रक्त अस्थि- 

निर्मित जिनसे नवयुग का तन, 

तुम धन्य ! तुम्हारा निःस्व त्याग 

है विश्व भोग का वर साधन 

इस भस्म काम तन की रज से 

जग पूर्ण काम नव जगजीवन, 

बीनेगा सत्य-अहिंसा के

ताने-बानों से मानवपन!


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में राष्ट्रपिता को नवयुग के निर्माता के रूप में प्रस्तुत किया गया है।


व्याख्या:–

पन्त जी कहते हैं कि हे बापू! तुम नवयुग के आदर्श हो, जिस प्रकार शरीर के निर्माण में मांस, रक्त और अस्थि की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, उसी प्रकार नवयुग के निर्माण में तुम्हारे सआदर्शों का अमूल्य योगदान है। तुम धन्य हो। तुम्हारे द्वारा निःस्वार्थ भाव से किया गया सर्वस्व त्याग सम्पूर्ण जगत को कल्याण का मार्ग दिखाएगा। यह संसार तुम्हारे बताए हुए आदर्शों का अनुपालन करते हुए अपनी समस्त कामनाओं को भस्म कर उसकी राख से सत्य और अहिंसा के सिद्धान्त को आत्मसात करेगा, जिस प्रकार ताने और बाने के मेल से सुन्दर वस्त्र बुने जाते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे द्वारा दिए गए सत्य और अहिंसा रूपी ताने-बाने से मानवता का सृजन होगा अर्थात् सम्पूर्ण मानव-जाति को सुख-समृद्धि की प्राप्ति होगी।


काव्य गत सौंदर्य:–

भाषा– संस्कृतनिष्ठ, शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली ।

शैली – गीतात्मक मुक्त शैली।

 अलंकार –विरोधाभास, यमक एवं रूपक ।

 गुण – प्रसाद।

 शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।





सुख भोग खोजने आते सब, 

आये तुम करने सत्य-खोज, 

जग की मिट्टी के पुतले जन, 

तुम आत्मा के, मन के मनोज! 

जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर 

चेतना, अहिंसा, नम्र ओज, 

पशुता का पंकज बना दिया 

तुमने मानवता का सरोज!


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने गाँधीजी की महिमा का गान करते हुए उन्हें अपनी भावांजली अर्पित की है।


व्याख्या:–

 प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि पन्त जी कहते हैं कि हे बापू! प्रायः समस्त प्राणी पृथ्वी पर जन्म लेकर सुख की कामना करते हैं, परन्तु तुमने इस धरती पर सत्य की खोज करने के लिए अवतार लिया। मानव वस्तुतः मिट्टी से निर्मित एक पुतला ही तो होता है। वह मिट्टी से ही निर्मित होता है और मिट्टी में ही मिल जाता है। हे बापू! तुम भी मिट्टी के ही बने थे, परन्तु तुम्हारे मिट्टी से निर्मित शरीर में सत्य आत्मा निवास करती थी तथा तुम मन को प्रसन्न करने वाले कमल के समान थे। आपने मानव की अकर्मण्यता, हिंसा एवं प्रतिद्वन्द्विता को दूर करके उसमें ज्ञान, अहिंसा एवं आत्मिक शक्ति अर्थात् मानवीय सदगुणों को जाग्रत किया है। हे बापू! तुमने मानव-समाज में व्याप्त भेदभाव, जाति-भेद, हिंसा आदि कीचड़ में उत्पन्न कमल को सत्य, अहिंसा, त्याग एवं मानवतारूपी स्वच्छ सरोवर में उत्पन्न कमल के समान बना दिया।


काव्य गत सौंदर्य:–

भाषा– संस्कृतनिष्ठ, शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली ।

शैली – गीतात्मक मुक्त शैली।

 अलंकार –विरोधाभास, यमक एवं रूपक ।

 गुण – प्रसाद।

 शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।





पशु-बल की कारा से जग को

दिखलाई आत्मा की विमुक्ति, 

विद्वेष धृणा से लड़ने को 

सिखलाई दुर्जय प्रेम-युक्ति, 

वर श्रम प्रसूति से की कृतार्थ 

तुमने विचार परिणीत उक्ति 

विश्वानुरक्त हे अनासक्त, 

सर्वस्व त्याग को बना मुक्ति!


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने बापू को ‘जग का उद्धारक’ के रूप में दर्शाया है।


व्याख्या:– 

पन्त जी राष्ट्रपिता का गुणगान करते हुए कहते हैं कि हे बापू! जब सम्पूर्ण मानव समुदाय पाश्विक शक्ति के कारागृह में कैद होकर बाहि-त्राहि पुकार रहा था, तब तुमने सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाते हुए उसे आत्मा की मुक्ति का मार्ग दिखाया। प्रेम से घृणा, द्वेष जैसे अवगुणों को जीतने का ऐसा मन्त्र दिया जो कभी निष्फल नहीं जाता। तुमने केवल कहे गए शब्दों के द्वारा अपने विचारों को अभिव्यक्त न कर उन्हें परिश्रम और। तप के बल पर अपने आचरण में उतारा अर्थात् तुम कथनों की अपेक्षा कर्म के द्वारा सन्देश देने को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे। आसक्ति से विरक्त रहने वाले और विश्व के प्रति सदा अनुराग रखने वाले हे बापू! तुमने सर्वस्व त्याग करके मुक्ति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति कर ली है।


काव्य गत सौंदर्य:–

भाषा– संस्कृतनिष्ठ, शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली ।

शैली – गीतात्मक मुक्त शैली।

 अलंकार –विरोधाभास, यमक एवं रूपक ।

 गुण – प्रसाद।

 शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।




उर के चरखे में कात सूक्ष्म 

युग-युग का विषय-जनित विषाद, 

गुंजित कर दिया गगन जग का 

भर तुमने आत्मा का निनाद । 

रंग-रंग खद्दर के सूत्रों में, 

नव जीवन आशा, स्पृहाह्लाद, 

मानवी कला सूत्रधार ! 

हर लिया यन्त्र कौशल प्रवाद !


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने गाँधीजी को जगत की आत्मा का परिष्कार करने वाला बताया है।


व्याख्या:–

 कवि गाँधीजी के प्रति श्रद्धा भाव दर्शाते हुए कहते हैं कि हे बापू! तुमने चरखे को महत्त्व देकर न केवल लोगों को भौतिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु कर्म में जुड़े रहने की सीख दी, बल्कि अपने हृदयरूपी चरखे के माध्यम से युग-युग से मानव-हृदय में व्याप्त वासनाजन्य विकारों को दूर करने का महत्त्वपूर्ण कार्य भी किया। तुमने चरखा आन्दोलन के साथ-साथ सत्य और अहिंसा की पवित्र गँज से उत्पन्न आत्मिक संगीत के द्वारा सम्पूर्ण धरती और आकाश को गुंजायमान कर दिया। खादी के वस्त्रों पर रंग चढ़ाने के साथ-साथ खादी को जन-जन से जोड़कर लोगों के जीवन में आशाओं और उल्लास का रंग भर दिया। इस प्रकार तुम्हारे माध्यम से एक नई मानवीय कला का सूत्रपात किया गया। हे बापू! चरखा के माध्यम । से एक ओर तो तुमने वासनाजन्य पीड़ाओं से छुटकारा दिलाया तो दूसरी ओर मशीनीकरण को चुनौती देकर लोगों को कर्म में रत रहने का सन्देश भी दिया।


काव्य गत सौंदर्य:–

भाषा– संस्कृतनिष्ठ, शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली ।

शैली – गीतात्मक मुक्त शैली।

 अलंकार –विरोधाभास, यमक एवं रूपक ।

 गुण – प्रसाद।

 शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।




साम्राज्यवाद था कंस बन्दिनी 

मनवता पशु-बलाऽक्रान्त, 

श्रृंखला- दासता प्रहरी बहु 

निर्मम शासन पद शक्ति प्रान्त, 

कारागृह में दे दिव्य जन्म 

मानव आत्मा को मुक्त, कान्त, 

जन- शोषण की बढ़ती यमुना 

तुमने की नत, पद - प्रणत शान्त !


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अंग्रेजी शासन के दौरान भारतवासियों। पर किए जाने वाले अत्याचारों एवं बापू के द्वारा भारत को स्वतन्त्र कराने का उल्लेख किया है।


व्याख्या:–

 पन्त राष्ट्रपिता को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे बापू! जिस प्रकार कंस के शासन के दौरान मानवता पर घोर अत्याचार किया जाता था, मानो वह बन्दीगृह में कैद हो. उसी प्रकार अंग्रेजी साम्राज्यवाद में । भी भारतीयों के साथ तरह-तरह के अत्याचार किए जाते थे। यहाँ की जनता । विदेशी पाश्विक शक्तियों से पीड़ित थी। जिस प्रकार, कंस के साम्राज्य में पद और शक्ति के मद में भ्रमित क्रूर अधिकारीगण जेल के पहरेदार बनाए गए थे। बावजूद इसके देवकी ने बन्दीगृह में श्रीकृष्ण को जन्म देकर मथुरावासियों को कंस के अत्याचारों से मुक्त कराया, उसी प्रकार हे बापू! तुमने भी कई बार कारागार में जाकर मानवता का उद्धार किया। भारत के निवासियों का शोषण करने वाली अंग्रेजी साम्राज्य रूपी यमना को सत्य और अहिंसा का सहारा लेकर अपने चरणों में झुकने के लिए विवश कर दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपने चरणों के स्पर्श से भयानक रूप धारण कर यमुना को शान्त और वश में। किया था, उसी प्रकार महात्मा गाँधी के समक्ष अत्याचार और शोषण का प्रतीक बनी अंग्रेजी शासन व्यवस्था को झुकना पड़ा था। गाँधीजी के अहिंसात्मक विरोध के सामने उसकी एक न चली थी और अन्ततः बापू के। प्रयासों से अंग्रेजों को यहाँ से भागना पड़ा; तत्पश्चात् हमारा देश स्वतन्त्र हुआ।


काव्य गत सौंदर्य:–

भाषा– संस्कृतनिष्ठ, शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली ।

शैली – गीतात्मक मुक्त शैली।

 अलंकार –विरोधाभास, यमक एवं रूपक ।

 गुण – प्रसाद।

 शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।







कारा थी संस्कृति विगत, भित्ति 

बहु धर्म-जाति-गति रूप-नाम,

बन्दी जग-जीवन, भू-विभक्त 

विज्ञान–मूढ़ जन प्रकृति-काम; 

आये तुम मुक्त पुरुष, कहने- 

मिथ्या जड़ बन्धन, सत्य राम, 

नानृतं जयति सत्यं मा भै, 

जय ज्ञान ज्योति, तुमको प्रणाम!



सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी द्वारा किए गए महान कार्यों का उल्लेख किया गया है।


व्याख्या:–

 प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि पन्त जी कहते हैं कि हे बाप! भारतीय संस्कृति विगत कई वर्षों से परतन्त्र थी, कैद थी। यहाँ के लोग धर्म, जाति, अर्थ, शिक्षा, रूप, ख्याति आदि बहुत से बन्धनों में जकड़े हुए थे अर्थात् यहाँ का सामान्य जन-जीवन ही कैद था। यहाँ की धरती क्षेत्रीयता, भाषावाद जैसे कई आधारों पर बँटी हुई थी। विज्ञान के प्रभाव में आकर यहाँ के लोग अविवेक हो प्रकृति का उपभोग अपनी इच्छा के अनुरूप करना चाहते थे। किन्तु लम्बे समय से गुलामी का दंश झेलने वाले भारतीयों के लिए उद्धारक (बन्धनमुक्त कराने वाले) बनकर आने वाले हे बाप! तमने जन-जन में यह सन्देश भी फैलाया है कि सांसारिक सम्बन्ध अर्थात् रिश्ते-नाते सब झूठे और दिखावे वाले हैं। ईश्वर का नाम ही एकमात्र सत्य और शाश्वत है। असत्य की नहीं, वरन् सर्वदा सत्य की ही जीत होती है। अतः डर को त्याग दो। ज्ञान की ऐसी दिव्य ज्योति जगाने वाले युग पुरुष बापू! तुम्हें प्रणाम!


काव्य गत सौंदर्य:–

भाषा– संस्कृतनिष्ठ, शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली ।

शैली – गीतात्मक मुक्त शैली।

 अलंकार –विरोधाभास, यमक एवं रूपक ।

 गुण – प्रसाद।

 शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।




📚 आप ये भी पढ़ें:

Post a Comment

2 Comments