अध्याय 22मानव शरीर की संरचना (Structure of Human Body):–
जीवों का शरीर एक या अनेक कोशिकाओं (Colls) से मिलकर बना होता है अर्थात् कोशिका शरीर की संरचनात्मक (Structural), क्रियात्मक (Functional) एवं आनुवंशिक (Heredity) इकाई है। कोशिकाओं का वह समूह जो उत्पत्ति, संरचना एवं कार्य में समान होता है, ऊतक (Tissue) कहलाता है। ऊतक मिलकर जीवों के अंगों (Organs) का निर्माण करते हैं। विभिन्न अंगों से मिलकर अंग तन्त्र (Organ system) का निर्माण होता है। अन्ततः समस्त अंग तन्त्र मिलकर पूरे शरीर (जीव) का निर्माण करते हैं।
जीव के शारीरिक संगठन के इस क्रम को निम्न प्रकार से प्रदर्शित कर सकते हैं
मानव शरीर में छोटे-बड़े अनेक अंग होते हैं, इनमें से वे अंग, जो बाहर से दिखाई देते है, बाह्य अंग (External organs) कहलाते हैं;
जैसे-हाथ, पैर, कान, आदि तथा वे अंग, जो केवल शरीर के विच्छेदन के पश्चात् हो दिखाई देते हैं.. आन्तरिक अंग अथवा आन्तरांग (Internal organs) कहलाते हैं; जैसे आमाशय, वृक्क, यकृत, आदि। विकास की दृष्टि से मानव सर्वाधिक विकसित प्राणी है, जिसके शरीर में निम्नलिखित मुख्य अंग तन्त्र होते हैं।
1. अध्यावरणी तन्त्र
2. पाचन तन्त्र
3. श्वसन तंत्र
4. परिसंचरण तन्त्र
5. उत्सर्जन तन्त्र
6. जनन तन्त्र
मानव शरीर के ये सभी तन्त्र सुचारु रूप से क्रियान्वयन हेतु एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं जैसे परिसंचरण तन्त्र ऑक्सीजन की पूर्ति के लिए श्वसन तन्त्र पर निर्भर होता है या भोज्य पदार्थों के लिए पाचन तन्त्र पर निर्भर होता है। ठीक इसी प्रकार उत्सर्जन तन्त्र विभिन्न अपशिष्ट पदार्थों के संग्रहण एवं अधिग्रहण के लिए परिसंचरण तन्त्र पर निर्भर होता है। इसी निर्भरता के कारण जीवों के ये सभी अंग तन्त्र आपसी समन्वयन (Coordination) रखते हैं तथा एक इकाई की तरह कार्य करते हैं। आगे दिए गए अध्यायों में हम इन मानव तन्त्रों का विस्तृत अध्ययन करेंगे।
22(a)
अध्यावरणी तन्त्र( integumentry system):–
अध्यावरणी तन्त्र के अन्तर्गत त्वचा तथा इसके व्युत्पन्न आते हैं। सभी कशेरुकी (Vertebrates) जन्तुओं के शरीर पर मोटा आवरण होता है, जिसे देहभित्ति (Body wall) कहते हैं। इसी देहभित्ति के बाहरी स्तर को त्वचा (Skin) अथवा अध्यावरण (Integument) कहते हैं।
त्वचा या अध्यावरण (Skin or Integument):–
मानव की त्वचा पतली, शुष्क तथा रोमयुक्त (Hairy) होती है तथा यह वसीय ऊतकों (Adipose tissues) द्वारा पेशी स्तर (Muscle layer) से जुड़ी होती है। त्वचा मानव अध्यावरणी तन्त्र का सबसे बड़ा तथा मानव शरीर का प्रमुख स्पर्श संवेदी अंग है। मानव त्वचा में मुख्यतया दो स्तर होते हैं
1. अधिचर्म या उपचर्म (बाहरी स्तर)
2. चर्म (भीतरी स्तर)
अधिचर्म या उपचर्म (Epidermis):–
अधिचर्म उत्पत्ति भ्रूण (Embryo) के बाह्यजनन स्तर (Ectoderm) से होती है। यह त्वचा की सबसे बाहरी परत होती है तथा बाहर से अन्दर की ओर क्रमशः निम्न उप-परतों में विभेदित होती है
(i) किण स्तर (Stratum Corneam) यह अधिधर्म की सबसे बाहर की ओर पाई जाने वाली उप-परत है, जोकि मृत कोशिकाओं (Dead cells) की बनी होती है। ये कोशिकाएं चपटी, किरैटिन युक्त तथा जलरोधी होती है। यह परत समय-समय पर शरीर में निर्मोचन (Moulting) होती रहती है।
निर्मोचन क्रिया सर्पों में काफी वृहद एवं तकनीकी समन्वयन के साथ होती है। इस क्रिया में सर्पों का पूरा बाह्य आवरण एक साथ एक परत (केचुली) के रूप में उत्तर जाता है। इस प्रक्रिया को केंचुलीकरण (Sloughing) कहते हैं। यह स्तर हमें LIV किरणे, संक्रमण एवं हमारे अन्तरंगों को सूखने, आदि से सुरक्षा प्रदान करती है।
(ii) स्वच्छ स्तर (Stratum Laucidum) यह स्तर किण स्तर के ठीक नीचे पाया जाता है। यह भी मृत चपटी कोशिकाओं का होता है, परन्तु इन कोशिकाओं की मोटाई किन स्तर की कोशिकाओं से ज्यादा होती है तथा यह स्तर 3-5 कोशिकीय परतों से बना होता है। इन कोशिकाओं के कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) में कैरेटोहायलिन (Keratohyaline) नामक प्रोटीन एलीडिन (Bihidin) नामक प्रोटोन में बदल जाता है, जोकि एक पारदर्शी पदार्थ होता है।
(iii) कणि स्तर (Stratum Granulosum) यह वह पतला स्तर है, जोकि हमारी त्वचा को सूखने से बचाता है। इसकी कोशिकाएं चपटी कैटालिन प्रोटीन के कारण कणिकामय होती है।
(iv) शूल स्तर (Stratumn Spinosum) यह स्तर कणि तथा मैल्पीघी स्तर के मध्य पाया जाता है। इस स्तर की कोशिकाएँ बाह्य तथा भीतरी दबाव के कारण शाखित तथा चपटी हो जाती है। इसकी कोशिकाओं के प्रवर्ध परस्पर एक-दूसरे में फँसकर अधिचर्म को दृढ़ता प्रदान करते हैं।
(v) अंकुरण या मैल्पीधी स्तर (Stratum Germinativum or Malpighi) यह अधिचर्म का सबसे भीतरी स्तर होता है तथा इसका निर्माण स्तम्भाकार (Columnar) सजीव कोशिकाओं से होता है। यह अधिचर्म का एक मात्र स्तर है, जिसकी कोशिकाएँ सजीव (Living) होती हैं। इन कोशिकाओं में निरन्तर कोशिका विभाजन (Cell division) होने के कारण नई कोशिकाएँ बनती रहती हैं तथा बाहर (ऊपर) की ओर सरकती रहती हैं।
इसके परिणामस्वरूप बाह्यत्वचा या अधिचर्म की किण स्तर की कोशिकाओं के शरीर से पृथक होने की भरपाई होती रहती है।
इस स्तर की कोशिकाओं के मध्य कुछ रंगा कोशिकाएँ (Melanocytes) भी पाई जाती हैं, जिनमें मिलैनिन (Melanin) नामक रंगा पदार्थ होता है, जो धूप के दुष्प्रभावों से शरीर की रक्षा करता है। रंगा कोशिकाओं की अधिकता के कारण ही मानव त्वचा का रंग गहरा भूरा या काला हो जाता है।
चर्म (Dermis):–
चर्म की उत्पत्ति भ्रूण की मध्यजनन स्तर (Mesoderm) से होती है। यह परत अधिचर्म के ठीक नीचे पाई जाती है। यह अधिचर्म की तुलना में 2-3 गुना मोटी होती है तथा इसका निर्माण तन्तुमय संयोजी ऊतकों (Filamentous ttmnective tissues) से होता है। इसमें अनेक प्रकार की त्वक् ग्रन्थियाँ Cutaneous glands), रोम (Hairs), कोलेजन तन्तु (Collagen fibres), क्षेत्रका तन्तु (Nerve fibres), अरेखित पेशी तन्तु (Unstriated muscle Stres) तथा स्पर्श कणिकाएं (Touch receptors) पाई जाती हैं।
इस स्तर के नीचे स्थित वसीय ऊतक (Fatty or areolar tissue) इसे शियों से जोड़कर रखते हैं। यह शरीर की बाह्य आद्यातों (External juries) से रक्षा करती है।
त्वचा के व्युत्पन्न (Skin Derivatives):–
मानव शरीर में त्वचा से सम्बन्धि निम्नलिखित व्युत्पन्न पाए जाते है
1. बाल या रोम (Hair):–
बाल उपचर्म के व्युत्पन्न होते हैं। शरीर पर बालों का पाया जाना स्तनधारियों का एक मुख्य लक्षणा है। बाल का वह भाग जो त्वचा के भीतर स्थित होता है, बाल की जड़ (Boot) कहलाता है। यह जड़ रोम पुटिका (Hair follicle) में बन्द रहती है। रोम पुटिका का फूला हुआ आधारीय भाग रोम अंकुरक (Hair papilla) कहलाता है।
इस अंकुरक में रुधिर कैशिकाओं (Blood capillaries) का गुच्छा होता है, जो बाल को भोजन तथा ऑक्सीजन प्राप्त कराता है। रोम पुटिका से तेल ग्रन्थि (Sebaceous gland) तथा ऊर्ध्वं पिलाई (Arrector pilli) पेशियों लगी होती है। यातावरण में विभिन्न परिवर्तन जैसे-उण्ड, भय, आदि होने पर उर्ध्वं पिलाई संकुचित हो जाती है, जिसके कारण बाल खड़े हो जाते हैं। इस प्रक्रिया की सामान्य भाषा में रोगटे खड़े होना (Goosebumps) बोलते हैं। तेल अन्धि से सीबम (Sebum) नामक चिकना पदार्थ स्ावित होता है, जो बालों को चिकना व जलरोधी बनाता है। बात का वह भाग जो अधिचर्म से बाहर निकला होता है, रोम काण्ड (Hair shaft) कहलाता है।।
रोम काण्ड की उत्कट (Cortex) कोशिकाओं में रंगा कणिकाओं (Pigmented granules) के कारण बालों का रंग काला होता है। रंगा कणिकाओं का निर्माण न होने के कारण वल्कुट कोशिकाओं में हवा भर जाती है. जिसके कारण प्रकाश की किरणें चारों ओर फैलती है। इसके कारण बाल सफेद दिखाई देने लगते हैं।
2. त्वचीय ग्रन्थियाँ (cutaneous Glands):–
इनका निर्माण अधिचर्म के अंकुरण (मैल्पीपी) स्तर से होता है। ये चाहा लावो । प्रन्थियों होती है तथा बनने के पश्चात् चर्म में धंस जाती हैं। मनुष्य में निम्नलिखित त्वचीय ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं
(i) स्वेद ग्रन्थियाँ (Sweat Glands) ये ग्रन्थियाँ अशाखित व लम्बी कुण्डलित नली समान संरचना के रूप में होती है, जो पसीने (Sweat) का लावण करती हैं। ये त्वचा की चर्म स्तर पर पाई जाती हैं। गर्मियों में ये अधिक मात्रा में पसीना लावित करके मानव शरीर के ताप नियमन में सहायता करती है। इसके अतिरिक्त थे पसीने के द्वारा मानव शरीर के अनावश्यक जल तथा उत्सर्जी पदार्थों को भी शरीर से निष्कासित करती है।
(ii) तेल या सिबेसियस ग्रन्थियाँ (Sebaceous Glands) ये रोम पुटिका में खुलती हैं। इनसे तैलीय तरल सीबम (Sebum) स्रावित होता है, जो बाल तथा त्वचा को चिकना तथा जलरोधी बनाता है।
(iii) स्तन ग्रन्थियाँ (Mammary Glands) ये स्वेद ग्रन्थि का ही रूपान्तरित रूप हैं तथा यह केवल स्त्रियों में ही पूर्ण विकसित होती हैं। स्त्रियों में प्रसव के पश्चात् इनसे दुग्ध का स्रावण होता है, जो नवजात के पोषण का कार्य करता है।
(iv) सेरूमिनस ग्रन्थियाँ (Ceruminous Glands) ये मानव कर्ण (Ear) में पाई जाती हैं तथा रुपान्तरित स्वेद ग्रन्थियाँ होती हैं। इन ग्रन्थियों से मोम समान पदार्थ सेरूमेन (Cerumen) स्रावित होता है, जो बाह्य कर्ण नलिका को चिकना तथा कर्णपटह को नम रखता है।
(v) अश्रु या लैक्राइमल ग्रन्थि (Tear or Lacrimal Gland) अश्रु ग्रन्थि नेत्र के बाहरी कोण पर ऊपर की ओर त्वचा के नीचे स्थित होती है। इससे एक विशेष प्रकार का जलीय तरल स्त्रावित होता है, जो कॉर्निया को स्वच्छ रखता है। यह ग्रन्थि मानव शिशु में जन्म के 4 माह के पश्चात् सक्रिय होती है।
(vi) मीबोमियन ग्रन्थियाँ (Meibomian Glands) ये ग्रन्थियाँ नेत्र की बरोनियों की पुटिकाओं में खुलती है। इनसे स्त्रावित तैलीय तरल नेत्र की कॉर्निया (Cornea) को नम एवं चिकना बनाता है।
(vii) मूलाधार ग्रन्थियाँ (Perineal Glands) ये ग्रन्थियों जननागों एवं गुदा के समीप स्थित होती हैं। इससे विशेष गन्धयुक्त तरल लावित होता है, जो लैंगिक आकर्षण हेतु सहायक होता है।
त्वचा के कार्य (Functions of Skin)–
त्वचा के कार्य निम्नलिखित हैं
(i) शरीर की सुरक्षा (Protection of Body) त्वचा शरीर के भीतर स्थित सभी ऊतकों, अंगों, आदि को पूर्णतया ढककर उनकी सुरक्षा करती है। यह रोगाणुओं तथा रसायनों को शरीर के अन्दर प्रवेश करने से रोकती है। साथ ही शरीर के कोमल आन्तरिक अंगों को रगड़ व चोट से बचाती है। त्वचा में उपस्थित मिलैनिन नामक वर्णक सूर्य की हानिकारक पराबैगनी किरणों से शरीर की रक्षा करती है।
(ii) ताप नियन्त्रण एवं उत्सर्जन (Temperature Control and Excretion) मानव समतापी प्राणी (Homeothermous) है। शरीर के ताप नियमन में त्वचा का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। मानव त्वचा मौसम अनुसार ताप नियमन में सहायक होती है। ग्रीष्म ऋतु में त्वचा में उपस्थित स्वेद ग्रन्थियों के कारण हमारे शरीर से पसीना ज्यादा निकलता है, जिसके वाष्पीकरण से शरीर का तापमान नियन्त्रित रहता है। पसीने में यूरिया, यूरिक अम्ल, अमोनिया, फॉस्फेट्स तथा क्लोराइड्स, आदि उत्सर्जी पदार्थों के रूप में होते हैं।
(ii) त्वक् संवेदांग (Cutaneous Henie Receptors) त्वचा के में पाई आने वाली संवेदी कोशिकाएँ हमे स्पर्श, दाब, पीड़ा, साप, आ उद्दीपनों का अनुभव कराती है।
नोट: वातावरण या शरीर के अन्त में होने वाले परिवर्त ग्रहण करने वाले अंग, संवेदांग कहलाते हैं। मानावया में उपमुख्य संवेग निम्न है-मिसन कणिकाएँ (ताप पाही), सीनियम का (दाब ग्राही), मर्केल डिस्क (स्पर्श ग्राही), रोम पुटिकाएँ (स्पर्श) एवं तन्त्रिकाओं के स्वतन्त्र अन्तिम सिरे (पीडा ग्राही
(iv) अवशोषण (Absorption) त्वचा जल एवं हानिकारक पदार्थों को शरीर के अन्दर नहीं जाने देती, परन्तु कुछ उपयोगी पदार्थों जैसे दवाइयों का अवशोषण भी करती है।
(v) तेल ग्रन्थियाँ (Sebaceous Glands) त्वचा में उपस्थित तेल ग्रन्थियाँ त्वचा को चिकना एवं जलरोधी बनाने में सहायक होती हैं।
(vi) स्तन ग्रन्थियाँ (Mammary Glands) मादाओं की स्तन पन्थियाँ शिशु जन्म के बाद दुग्ध लावण करती हैं, जो नवजात का मुख्य पोषण होता है।
(vii) बाल या रोम (Hair) त्वचा पर उपस्थित बाल शरीर पर तापरोधी के समान कार्य करते हैं साथ ही पलकों तथा बरोनियों के रूप में ये नेत्र की सुरक्षा करते हैं। ठण्ड लगने या उत्तेजना के कारण ये खड़े हो जाते हैं तथा शरीर की रक्षा करते हैं। साथ ही इनकी पेशियों के संकुचन से उत्पन्न मानव शरीर को तत्काल ऊष्मा देती है, इसीलिए ठण्ड लगने पर कपक आती है।
(viii) विटामिन D का संश्लेषण (Synthesis of Vitamin-D) सूर्य के प्रकाश की पराबैगनी किरणों का अवशोषण करके त्वचा में विटामिन-D का संश्लेषण होता रहता है। यह विटामिन हमारी अस्थियों से सम्बन्धित मुख्य विटामिन है।
(ix) हामियोस्टेसिस (Homecostasis) त्वचा ताप नियमन, जल नियमन, आदि द्वारा शरीर के अन्त वातावरण को सन्तुलित रखती है।
22(b)
पाचन तंत्र (digestive system):–
भोजन के रूप में ग्रहण किए गए जटिल पदार्थों को शरीर द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले उपयुक्त सरल रूप में अपघटित करने की क्रिया पाचन क्रिया कहलाती है। इस क्रिया को परिणा (कार्यान्वित) करने के लिए मानव शरीर में एक सम्पूर्ण तन्त्र होता है, जिसे पाचन तन्त्र कहते हैं। इस पाचन तन्त्र में भोजन का पाचन विभिन्न प्रकार के विकारों या एन्जाइम्स (Digestive enzymes) की सहायता से होता है। इन पाचक एन्जाइम्स का लावण इसी पाचन तन्त्र में उपस्थित पाचक ग्रन्थियाँ (Digestive glands) करती हैं। अत: अध्ययन की सुविधा हेतु मानव में पाए जाने वाले पाचन तन्त्र को दो भागों में बाँटा जा सकता है।
1. आहारनाल
2. पाचक त्रन्दियों
मनुष्य की आहारनाल तथा उससे सम्बन्धित पाचक ग्रन्थियों को नीचे दिए गए चित्र में दर्शाया।
आहारनाल (Alimentary Canal):–
मानव की आहारनाल लगभग 8-10 मीटर लम्बी होती है तथा मुखद्वार (Mouth) से गुदाद्वार (Anus) तक फैली रहती है। इसका विभिन्न भागों में अलग-अलग व्यास होता है। कार्यिकी के आधार पर इसमें निम्न भाग होते हैं
1. मुख एवं मुख गुहिका (Mouth and Buccal Cavity ):–
मुख एक अनुप्रस्थ काट के रूप में मानव शरीर के प्रतिपृष्ठ तल पर स्थित होता है तथा दो मांसल तथा चल होठों (Lips) से घिरा रहता है। मुखद्वार, पीछे की तरफ मुख गुहिका में खुलता है। इस मुख गुहिका की निचली सतह पर एक मांसल जिह्वा ((Tongue) होती है, जो पीछे की ओर जुड़ी हुई तथा आगे स्वतन्त्र होती है साथ ही मुख गुहिका बाईं तथा दाईं ओर गालों से घिरी रहती है। अतः मुख गुहिका की दीवारें गालों से तथा फर्श जिह्वा के द्वारा बनी होती हैं। मुख गुहिका की छत तालु (Palate) कहलाती है। तालु मुख गुहिका (Buccal cavity) तथा श्वसन मार्ग (Respiratory path) को अलग करती है। तालु के अग्रभाग में अस्थियाँ होती हैं, जिससे इस भाग को कठोर तालु (Hard palate) कहते हैं, जबकि तालु का पश्चभाग कोमल तालु (Soft palate) कहलाता है। इसका निर्माण उपास्थि (Cartilage) से होता है।
कोमल तालु का पश्चभाग काग या अलिजिह्वा (Uvula) के रूप में मुख गुहिका तथा ग्रसनी गुहा (Pharyngeal cavity) के मध्य में लटका रहता है। इसके समीप लसीका ऊतक के बने टॉन्सिल्स या गलतुण्डिका (Tonsils) होते हैं।
मुख गुहिका में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण अंग पाए जाते हैं
(i) दाँत (Teeth) मुख गुहिका में दोनों जबड़ों के किनारों पर दाँतों की पंक्तियाँ पाई जाती हैं। मानव में पाए जाने वाले दाँतों की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं
(a) गर्तदन्ती (Thecodont) ये दाँत हड्डियों की खाँच में धँसे रहते हैं।
(b) विषमदन्ती (Heterodont) मानव के एक जबड़े में विभिन्न प्रकार के दाँत पाए जाते हैं अर्थात् कृन्तक, रदनक, अग्रचर्वणक एवं चर्वणक। यह स्थिति मानव को विषमदन्ती बनाती है।
(c) द्विबारदन्ती (Diphyodont) अग्रचर्वणक के अतिरिक्त मानव के सभी दाँत जीवन काल में दो बार निकलते हैं।
मनुष्य में निम्नलिखित चार प्रकार के दाँत पाए जाते हैं
(a) कृन्तक अथवा छेदक (Incisors) ये आगे की तरफ लगे चपटे, धारदार दाँत होते हैं, जो भोजन को कुतरने या काटने के काम आते हैं। यह चार ऊपरी जबड़े में तथा चार निचले जबड़े में सामने की ओर स्थित होते हैं।
(b) रदनक (Canines) ये कृन्तक से सटे नुकीले धारदार दाँत होते हैं, जो भोजन को चीरने फाड़ने का काम करते हैं। ऊपरी और निचले जबड़े दो-दो रदनक होते हैं। ये मांसभक्षियों में अधिक विकसित होते है।
(c) अग्रचर्वणक (Premolars) इनकी संख्या ऊपरी तथा निचले जबड़े में चार-चार होती है। ये भोजन को पीसने का कार्य करते हैं।
(d) चर्वणक (Molars) ये ऊपरी तथा निचले जबड़े में छ:-छ: होते हैं। इनका शिखर अधिक चौड़ा व उभारयुक्त होता है। ये भोजन को पीसने का कार्य करते हैं।
दन्त सूत्र (Dental Formula):–
मनुष्य के चारों प्रकारों के दाँतों की संख्या को एक समीकरण द्वारा प्रदर्शित किया जाता है, जिसे दन्त सूत्र कहते हैं। दन्त सूत्र में एक जबड़े के आधे भाग के दाँतों को प्रदर्शित किया जाता है। दन्त सूत्र को इस प्रकार प्रदर्शित
किया जाता है = I CPm M I / C Pm M
जहाँ, ।-कृन्तक, C-रदनक, Pm-अग्रचर्वणक तथा M-चर्वणक
वयस्क मनुष्य का दन्त सूत्र
दाँतों की कुल संख्या = दन्त सूत्र में दाँत x 2 = I C Pm M / I C Pm M × 2
= 2123 / 2123 ×2 = 8/8 ×2 = 32
शिशु का दन्त सूत्र
दाँतों की कुल संख्या = दन्त सूत्र में दाँत x 2 = I C Pm M / I C Pm M x 2
2102 / 2102 ×2 = 5 /5 x 2 = 20
शिशुओं में दूध के दाँत 20 होते हैं, इनमें मुख्यतया अग्रचर्वणक दाँत नहीं पाए
(ii) जिह्वा (Tongue) मुख गुहिका में जिह्वा पाई जाती है, जो एक लम्बी व चपटी मांसल संरचना होती है, यह मुख की तरफ स्वतन्त्र व अन्दर तरफ सतह से जुड़ी होती है। जिह्वा इच्छानुसार कार्य करती है। की जिह्वा की श्लेष्म कला, श्लेष्म (Mucous) का स्रावण करती है, जो जिहा को गीला बनाए रखने में सहायक है। जिला के ऊपरी भाग पर चार प्रकार की स्वाद कलिकाएँ (Taste buds) होती हैं। मनुष्य में इसका अग्र छोर मीठे, पश्चभाग कड़वे, पार्श्व किनारे खट्टे तथा अग्र छोर के कुछ नमकीन स्वादों का अनुभव दिलाते हैं।
जिह्वा भोजन को पीसने, लार को मिलाने, भोजन को निगलने तथा बोलने में सहायता करती है।
(iii) लार ग्रन्थियाँ (Salivary Glands) तीन जोड़ी लार ग्रन्थियाँ पृथक वाहिनियों द्वारा मुख गुहिका में खुलती हैं, जिनका विवरण आगे पाचक ग्रन्थियों में दिया गया है।
ग्रसनी (Pharyna):–
मुख गुहिका का पिछला भाग ही ग्रसनी कहलाता है। वह लगभग 12-14 सेमी लम्बी कीपाकार नली होती है, जोकि वायु व भोजन का सहमार्ग होती है। इसके अतिरिक्त यह बोलते ध्वनि की गुंज उत्पन्न करने में सहायता करती है।
ग्रसनी में अन्दर एक बड़ा छिद्र होता है, जो निगलद्वार (Gullet) कहलाता है। इसके पास ही का छिद्र अथवा घाँटीदार (Glottis) होता है। पाटीदार पर लटकी हुई पत्ती के समान उपास्थिमय (Cartilaginous) घांटीढापन (Epilots) होता है। भोजन निगलते समय घांटीढापन, घाँटीद्वार की ढक लेता है, जिससे भोजन श्वासनली में नहीं जा पाता है। इस प्रकार यह भोजन को ग्रासनली तक पहुँचाने में सहायता करती है।
3. ग्रसिका या ग्रासनली (Oesophagus):–
यह पहली पेशीय, संकुचनशील एवं लगभग 23.27 सेमी लम्बी नली है। ग्रसनी, निगलद्वार द्वारा आहारनाल के दूसरे भाग अर्थात् ग्रासनली में खुलती है। इसकी दीवार में पाचन ग्रन्थियों नहीं होती, परन्तु श्लेष्म ग्रन्थियां होती हैं, जिससे भोजन फिसलता हुआ आमाशय में पहुँच जाता है। यह भोजन को आमाशय तक पहुंचाती है तथा एक पेशीय, संकुचनशील छिद्र आमाशय में इसके खुलने को नियंत्रित करता है।
4. आमाशय (Stomach):–
यह लगभग 25 सेमी लम्बा, आहारनाल का सबसे चौड़ा थैलीनुमा भाग होता है जोकि ' J ' के आकार का होता है। इसमें जठर ग्रन्थियां (Gastric glands) जाती है, जो भोजन के पाचन हेतु जठर रस (Gastric juice) का स्रावण करती है। प्रत्येक व्यक्ति के आमाशय की दीवार में लगभग 3.5 करोड़ जठर ग्रन्थियां होती है। जठर रस में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCl), पेप्सिन, लाइपेज नामक विकर या एन्जाइम उपस्थित होते हैं।
आमाशय के चार प्रमुख भाग होते हैं
(a) कार्डियक भाग (Cardiac Region) आमाशय का ऊपरी भाग, जिसमें ग्रासनली खुलती है।
(b) फण्डिक भाग (Fundic Region) मध्य आमाशय ।
(c) पाइलोरिक भाग (Pyloric Region) यह आमाशय का निचला भाग है, जो छोटी आँत में खुलता है। इसका अन्तिम भाग पाइलोरिक संकोचक (Pyloric sphincter) द्वारा सुरक्षित रहता है।
(d) शेषाग्र भाग (Body Region) उपरोक्त तीनों भागों के अतिरिक्त बचा हुआ भाग शेषाग्र या बॉड़ी कहलाता है।
आमाशय भोजन को कुछ समय के लिए एकत्रित रखता है फिर उसे पीसकर व तोड़कर उसका आंशिक पाचन करता है। इस कार्य में जठर रस का योगदान महत्त्वपूर्ण होता है। अतः आमाशय में पेशीय क्रमाकुंचन गति के कारण भोजन लुगदी (Chyme) में रूपान्तरित होता है।
5. छोटी आँत या क्षुदान्त्र (Small Intestine):–
यह भोजन के पाचन तथा अवशोषण का मुख्य केन्द्र होती है। यह लगभग 6-7 मीटर लम्बी तथा 2.5 सेमी चौड़ी तथा अत्यधिक कुण्डलित नली होती है। इसमें अधिकतर भाग में रसांकुर (Villi) पाए जाते हैं, जो भोजन के पाचन तथा अवशोषण के लिए सहायक होते हैं।
इसे निम्न तीन भागों में बाँटा जा सकता है।
(i) ग्रहणी (Duodenum) यह लगभग 25 सेमी लम्बी 'C' अथवा 'U' के आकार की होती है। इसमें पाचक एन्जाइम्स को स्रावित करने वाली ग्रन्थियों का अभाव होता है, परन्तु इसमें ग्रहणी ग्रन्थियाँ तथा ब्रूनर ग्रन्थियाँ (Brunner glands) पाई जाती हैं, जो श्लेष्म का स्रावण करती हैं।
(ii) मध्यान्त्र (Jejunum) नीचे की ओर ग्रहणी मध्यान्त्र में खुलती है, जो लगभग 2.4 मीटर लम्बी कुण्डलित नलिका होती है तथा इसका व्यास लगभग 4 सेमी होता है।
(iii) शेषान्त्र (Ileum) मध्यान्त्र लगभग 3.4 मीटर लम्बी कुण्डलित नलिका में खुलती है, जो छोटी आँत का अन्तिम हिस्सा है। इसकी दीवार मध्यान्त्र से पतली होती है। यह छोटी आँत का सबसे लम्बा भाग है। यह बड़ी आँत के उण्डुक या सीकम (Caecum) में खुलता है। छोटी आँत के इस भाग में रसांकुर उपस्थित होते हैं, जोकि पचे हुए भोजन के अवशोषण को कई गुना बढ़ा देते हैं।
6. बड़ी आँत या बृहदान्त्र (Large Intestine):–
यह आहार नाल का अन्तिम भाग है। यह लगभग 1.5 मीटर लम्बी तथा 4.7 सेमी चौड़ी लम्बी नलिका होती है। इस भाग में बचे हुए शेष भोजन का तथा जल का अवशोषण होता है और साथ ही अपच भोजन को शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। छोटी आँत तथा बड़ी आंत के सन्धि स्थल पर एक शेषान्त्र उण्डुकीय कपाट (lleocaocal valve) होता है।
बड़ी आंत को तीन भागों में बाँटा जा सकता है
(i) उण्डुक या सीकम (Caecum) यह लगभग 6-8 सेमी लम्बी नली होती है। छोटी आंत तथा बड़ी और के मिलने के स्थान पर एक अंगुली सदृश्य नलिका जुड़ी रहती है, जिसे कृमिरूप परिशेषिका (Vermiform appendix) कहते है। मानव में यह अवशेषी अंग (Vestigial organ) है। कभी-कभी इस परिशेषिका में भोजन के कण पहुँच जाते हैं, जिनके सड़ने पर इसमें सूजन आ जाती है और रोगी अपेन्डिसाइटिस (Appendicitis) से ग्रसित हो जाता है।
(ii) कोलन (Colon) यह उल्टे 'U' के आकार की नलिका होती है, जो लगभग 1.3 मीटर लम्बी होती है, जो निम्न चार खण्डों में विभाजित होती है
(n) आरोही खण्ड (Ascending segment)
(b) अनुप्रस्थ खण्ड (Transverse segment)
(c) अवरोही खण्ड (Descending gment)
(d) सिग्मॉइड खण्ड (Sigmoid segment)
कोलन जगह-जगह से फूला रहता है, जिसे हाँस्ट्रा (Houstra) कहते हैं।
(iii) मलाशय (Rectum) यह बड़ी आंत का अन्तिम भाग है, जो लगभग 15 सेमी लम्बा होता है। मलाशय की भिति बहुत पतली होती है। मलाशय का अन्तिम भाग गुदा नाल (Anal canal) कहलाता है, जो एक वृत्ताकार गुदा या मलद्वार (Anus) द्वारा शरीर से बाहर खुलती है। मलाशय की भित्ति में उपस्थित चषक कोशिकाएँ (Goblet cells) तथा अवशोषी कोशिकाएं (Absorptive cells) मलाशय की दीवार तथा मल को चिकना तथा लसलसा बनाए रखती है। मलाशय में ही मल में उपस्थित जल का पुनः अवशोषण होता है।
पाचक ग्रन्थियाँ (Digestive Glands ):–
आहारनाल से सम्बन्धित पाचक ग्रन्थियाँ निम्नलिखित हैं
1. लार ग्रन्थियाँ( Salivary Glands):–
मनुष्य में निम्न तीन जोड़ी लार ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं, जो प्रतिदिन लगभग 1.5 लीटर लार का स्रावण करती हैं।
ये निम्न प्रकार की होती हैं
(i) कर्णपूर्व ग्रन्थियाँ (Parotid Glands) ये चेहरे के दोनों पार्श्व भागों में कान व कपोलों के पीछे स्थित होती हैं। ये स्टेन्सन की नलिका (Stensen's duct) के द्वारा मुख गुहिका में खुलती हैं। लार में श्लेष्म तथा टायलिन (Ptyalin) नामक एन्जाइम होता है, जो मण्ड को पचाने में सहायक होता है। ये सबसे बड़ी लार ग्रन्थियाँ हैं।
(ii) अधोहनु ग्रन्थियाँ (Submaxillary Glands) ये निचले जबड़े में पश्चभाग में स्थित होती हैं। ये ग्रन्थियाँ निचले कृन्तक दाँतों के पास व्हारटन्स नलिकाओं (Wharton's ducts) द्वारा जिल्ह्वा के नीचे खुलती हैं।
(iii) अधोजिह्वा ग्रन्थियाँ (Sublingual Glands) ये जिह्वा के ठीक नीचे स्थित छोटी तथा संकरी ग्रन्थियाँ हैं। ये कई महीन रिविनस या बर्थोलिन की नलिकाओं (Ducts of Rivinus or Bartholin) द्वारा मुख गुहिका के फर्श पर आकर खुलती हैं।
लार में α-एमाइलेज (α-amylase) नामक पाचक एन्जाइम होता है, जो मण्ड को शर्करा में परिवर्तित कर भोजन को मीठा बनाता है। इसमें लाइसोजाइम (Lysozyme) भी होता है, जो प्रतिजीवाणु कारक है।
2. आमाशयी या जठर ग्रन्थियाँ(Stomach or Gastric Glands):–
आमाशय की दीवार में निम्न तीन प्रकार की जठर ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं, जो जठर रस का स्रावण करती हैं।
(i) कार्डियक ग्रन्थियाँ (Cardiac Glands) यह आमाशय का ऊपरी भाग हैं, जिसमें ग्रासनली 'खुलती है।
(ii) फण्डिक ग्रन्थियाँ (Fundic Glands) यह आमाशय के मध्य भाग में उपस्थित होती है तथा जठर रस बनाती है, जिससे पेप्सिन (Pepsin); रेनिन (Renin) नामक एन्जाइम एवं श्लेष्म तथा गैस्ट्रिन (Gastrin) नामक हॉर्मोन स्रावित होता है। इसके अतिरिक्त इस भाग की ग्रन्थियों HCl नामक अम्ल का भी स्रावण करती है, जोकि जठर रस को अम्लीय माध्यम (pH 1.5–2.5) प्रदान करता है। यह माध्यम जठर रस में उपस्थित एन्जाइम्स को कार्यान्वित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
(iii) पाइलोरिक ग्रन्थियाँ (Pyloric Glands) इनसे केवल श्लेष्म का स्रावण होता है, जो विभिन्न पाचक रसों एवं HCI से आमाशय की दीवार की सुरक्षा करता है। जठर रस में उपस्थित एन्जाइम मुख्यतया भोजन में उपस्थित प्रोटीन का आंशिक पाचन करते हैं।
3.यकृत(liver):–
यह मानव शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि एवं अंग है। इसका भार लगभग 1500 ग्राम होता है। यह उदरगुहा में डायाफ्राम के नीचे तथा आमाशय के ऊपर स्थित होता है। मानव के यकृत में तीन पालियाँ (Lobes) होती हैं। यकृत के पिण्ड अनेक बहुभुजीय पिण्डकों से बने होते हैं, जिन्हें ग्लीसन सम्पुट (Glisson's capsule) कहते हैं। इन पिण्डकों से यकृत कोशिकाओं (Hepatic cells) का निर्माण होता है, जिससे पित्त रस (Bile juice) स्रावित होता है। यह पित्त रस इसमें स्थित थैली नुमा संरचना पित्ताशय Gall bladder) में एकत्र होता है।
इसमे पाचक एन्जाइम नहीं होते, फिर भी भोजन के पाचन में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
यकृत के कार्य (Functions of Liver):–
यकृत मानव शरीर की अतिमहत्त्वपूर्ण ग्रन्थि है। यह मानव शरीर में पाचन के अतिरिक्त बहुत सारे अतिमहत्त्वपूर्ण कार्य करता है, जो निम्न हैं
(i) पित्तरस का स्त्रावण (Secretion of Bile Juice) आमाशयिक रस के अम्ल को प्रभावहीन करने के लिए पित्तरस बनाता है, जो भोजन को क्षारीय माध्यम देता है साथ ही वसा का इमल्सीकरण करता है। यह भोजन को सड़ने से भी बचाता है तथा हानिकारक जीवाणुओं से रक्षा करता है।
(a) हिपैरिन (Heparin) यकृत कोशिकाएँ हिपैरिन नामक प्रतिपक पदार्थ का लावण करती हैं, जो रुधिर वाहिनियों में रुधिर को जमने से रोकता है।
(iii) ग्लाइकोजन का संचय (Accumulation of Glycogen) जब पावन के पश्चात् रुधिर में आवश्यकता से अधिक ग्लूकोस ((Glucose) पहुँचता है, तो वह यकृत कोशिकाओं द्वारा ग्लाइकोजन (Glycogen) में बदल दिया जाता है और यकृत में संचित कर दिया जाता है।
(iv) ग्लूकोजिनोलाइसिस (Glucogenolysis) रुधिर में ग्लूकोस की मात्रा कम होने पर यकृत में संचित ग्लाइकोजन को ग्लूकोस में बदल कर रुधिर में छोड़ दिया जाता है।
(v) ग्लाइकोनिओजेनेसिस (Glyconeogenesis) इस क्रिया में आवश्यकता पड़ने पर यकृत कोशिकाएँ अमीनो अम्लो तथा वसा अम्लों की अतिरिक्त मात्रा को ग्लाइकोजन में बदलकर अपने भीतर संचित कर लेती है।
(vi) वसा संश्लेषण (Fat Synthesis) यकृत, कोशिकाओं में उपस्थित ग्लूकोस की अतिरिक्त मात्रा को वसा में बदलकर वसीय ऊतकों में संचित कर देता है।
(vi) पित्त वर्णक का उत्सर्जन (Excretion of Bile Pigment) पित्त लवण तथा पित्त वर्णक का उत्सर्जन भी यकृत द्वारा होता है। पित्त लवण एवं वर्णक वास्तव में लाल रुधिर कणिकाओं के उत्सर्जी पदार्थ होते हैं, जिन्हें यकृत रुधिर से छानकर आहारनाल के उत्सर्जी पदार्थों के साथ मानव शरीर से बाहर निकालने में अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
(Viii) यूरिया का संश्लेषण (Synthesis of Urea) यकृत में यूरिया का संश्लेषण एवं विषैले पदार्थों को कम हानिकारक बनाने का कार्य होता है।
(ix) सुरक्षा (Protection) पित्त रस का क्षारीय माध्यम हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है।
(x) क्रमाकुंचन गति (Peristaltic Movement) यह आहारनाल की क्रमाकुंचन गति को उद्दीप्त करने में सहायता करता है।
(xi) रुधिर का थक्का बनना (Clotting of Blood) यकृत कोशिकाएँ प्रोथ्रॉम्बिन तथा फाइब्रिनोजन रुधिर प्रोटीन का संश्लेषण करती है, जो चोट लगने पर रुधिर का थक्का बनाने का कार्य करती है।
4. अग्न्याशय (Pancreas):–
यह यकृत के बाद शरीर की दूसरी सबसे बड़ी ग्रन्थि है। यह लगभग 12-15 सेमी लम्बी तथा 'J' के आकार की होती है। यह उदरगुहा में आमाशय व शेषान्त्र के बीच स्थित होती है।
सामान्य व्यक्ति में इसका भार 60-90 ग्राम होता है। यह एक मिश्रित ग्रन्थि (Mixed gland) है। ये छोटे-छोटे पिण्डको से बनी संरचना है, जिनकी कोशिकाएँ घनाकार तथा स्रावी होती हैं। पिण्डको के मध्य लैंगरहैन्स की द्वीपिकाएँ (Islets of Langerhans) स्थित होती हैं, जोकि अग्न्याशय का अन्तःस्रावी भाग बनाती है। इसका बाह्यस्रावी भाग क्षारीय अग्न्याशयिक रस का त्रावण करता है तथा अन्तःस्रावी भाग हॉर्मोन्स का स्त्रावण करता है।
अग्न्याशय के कार्य (Functions of Pancreas):–
अग्न्याशय के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं
(i) अग्न्याशयिक रस का स्रावण Secretion of Pancreatic Juice इसमें निम्न तीन एन्जाइम पाए जाते हैं
(a) एमाइलेस या एमाइलोप्सिन (Amylase or Amylopsin) यह कार्बोहाइड्रेट्स के उस भाग को शर्करा में बदल देता है, जो मुख गुहिका में लार के प्रभाव से बच जाता है।
(b) लाइपेस या स्टीएप्सिन (Lipasio or Steapsin) यह भोजन में उपस्थित वसा को वसीय अम्लों में परिवर्तित कर देता है, जो रुचिर तथा लसीका द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं।
(c) ट्रिप्सिन तथा काइमोट्रिप्सिन (Trypsin and Chymotrypsin) इनके द्वारा प्रोटीन का पाचन होता है। ये आमाशय में हुए प्रोटीन के आंशिक पाचन को पूर्ण करने वाले मुख्य एन्जाइम हैं।
(ii) हॉर्मोन्स का स्रावण (Secretion of Hormones):–
अग्न्याशय की लैंगर हैन्स की द्वीपिकाओं में उपस्थित - कोशिकाओं से इन्सुलिन तथा -कोशिकाओं से ग्लूकैगॉन नामक हॉर्मोन का स्रावण होता है। ये हॉर्मोन्स कार्बोहाइड्रेट्स उपापचय का नियन्त्रण एवं नियमन करते हैं।
5. आन्त्रीय ग्रन्थियाँ (Intestinal Glands):–
छोटी आँत की श्लेष्म कला में कई प्रकार की ग्रन्थियाँ उपस्थित होती हैं। इन ग्रन्थियों से स्त्रावित रस के मिश्रण को आन्त्रीय रस या सकस एन्टेरिकस (Intestinal juice or succus entericus) कहते हैं। ये ग्रन्थियाँ लिबरकुन की दरारों (Crypts of Lieberkuhn) में स्थित होती हैं। साथ ही इनमें श्लेष्म स्रावित करने वाली ब्रूनर ग्रन्थियाँ (Brunner's glands), चषक कोशिकाएँ (Goblet cells), आदि भी उपस्थित होती हैं। इनके रसों में प्रमुख रूप से श्लेष्म तथा कई प्रकार के पाचक एन्जाइम (Digestive enzymes), आदि उपस्थित होते हैं।
नोट :
• कभी-कभी शिशुओं के आमाशय के जठरनिर्गम द्वारा ठीक तरह से काम नहीं हो पाता, जिससे वे पिए दूध को वापस मुख से बाहर निकाल देते हैं, जिसे पाइलोरोस्पैज्म (Pylorospasm) कहते हैं।
• शाकाहारी जन्तुओं में सीकम बहुत लम्बा होता है, क्योंकि इनमें सेलुलोस को पचाने के लिए विशेष जीवाणु पाए जाते हैं। मलाशय के गुदा स्तम्भ में एक धमनी तथा एक शिरा होती है। गुदा स्तम्भ के फूल जाने को ही बवासीर (Piles) का रोग कहते हैं। इनमें उपस्थित शिराओं के फूलकर फट जाने से खूनी बवासीर (Haemorrhoids) हो जाती है।
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