अध्याय 11
विद्युत चुम्बकीय प्रेरण (Electomagnectic induction):–
चुम्बकीय फ्लक्स (Magnetic Flux):–
किसी एकसमान चुम्बकीय क्षेत्र में स्थित पृष्ठ से उसके तल के लम्बवत् गुजरने वाली चुम्बकीय बल रेखाओं की संख्या, उस पृष्ठ का चुम्बकीय फ्लक्स कहलाती है। चुम्बकीय फ्लक्स को ø (फाई) से प्रदर्शित करते हैं। यह एक अदिश राशि है। माना एक पृष्ठ का क्षेत्रफल A है जोकि B तीव्रता के चुम्बकीय क्षेत्र में क्षेत्र के लम्बवत् स्थित है, तो पृष्ठ से निर्गत कुल चुम्बकीय फ्लक्स
ø = BA
यदि पृष्ठ चुम्बकीय क्षेत्र के सम्बवत नहीं है तथा पृष्ठ पर खींचा गया लम्ब चुम्बकीय क्षेत्र B के साथ 6 कोण बनाता है,
तब
ø = BA cos θ
यदि ø=0°, तो ø = BA (अधिकतम) अर्थात् इस स्थिति में पृष्ठ चुम्बकीय क्षेत्र के लम्बवत् स्थित होता है।
यदि ø = 90", तो ø = 0 (न्यूनतम) अर्थात् इस स्थिति में पृष्ठ चुम्बकीय क्षेत्र के समान्तर स्थित होता है।
MKS पद्धति में चुम्बकीय फ्लक्स का मात्रक वेबर (Weber) अथवा न्यूटन- मीटर/ ऐम्पियर होता है।
हम जानते हैं, चुम्बकीय क्षेत्र (B) का मात्रक वेबर प्रति मीटर होता है ( B = ø/A)। इसी कारण B को चुम्बकीय फ्लक्स घनत्व (Magnetic flux density) से भी प्रदर्शित करते हैं। चुम्बकीय फ्लक्स घनत्व, चुम्बकीय क्षेत्र के लम्बवत् रखे एकांक क्षेत्रफल में से होकर गुजरने वाली चुम्बकीय बल रेखाओं की संख्या के बराबर होता है।
यदि चुम्बकीय क्षेत्र में N फेरों वाली कुण्डली रखी है, तो उससे बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स
ø= NBA cos θ
विद्युत चुम्बकीय प्रेरण(Electromagnetic Induction):–
जब किसी बन्द परिपथ से सम्बन्धित चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है, तो परिपथ में एक विद्युत वाहक बल प्रेरित हो जाता है जिसके कारण परिपथ में धारा बहने लगती है। यह धारा तब तक बहती है जब तक चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है। इस घटना को विद्युत चुम्बकीय प्रेरण कहते हैं तथा उत्पन्न विद्युत वाहक बल को प्रेरित विद्युत वाहक बल कहते है। इस बल के कारण परिपथ में बहने वाली धारा प्रेरित धारा (Induced current) कहलाती है।
फैराडे के प्रयोग (Faraday's Experiments):–
विद्युत चुम्बकीय प्रेरण की घटना को समझाने के लिए फैराडे ने निम्नलिखित प्रयोग किए।
दिए गए चित्रों में तारों की एक कुण्डली को धारामापी से जोड़ा गया है। NS एक छड़ चुम्बक है जिसे कुण्डली के समीप अथवा दूर विस्थापित किया जा सकता है।
प्रथम स्थिति (First position) इस स्थिति में चुम्बक स्थिर है। धारामापी में विक्षेप शून्य है। अतः परिपथ में प्रवाहित धारा का मान शून्य है। अतः कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में कोई परिवर्तन न होने पर परिपथ में कोई धारा प्रवाहित नहीं होती है।
द्वितीय स्थिति (Second position) इस स्थिति में चुम्बक का उत्तरी ध्रुव, कुण्डली की ओर गतिशील है। धारामापी में दाई ओर विशेष प्राप्त होता है तथा परिपथ मे वामावर्त (Anti-clockwise) दिशा में धारा प्रवाहित होती है। चुम्बक को कुण्डली की ओर लाने पर कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स बढ़ता है। अर्थात् कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है। परिपथ में धारा का प्रवाह दर्शाता है कि कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होने पर परिषद में विद्युत धारा बहती है।
तृतीय स्थिति (Third position) इस स्थिति में चुम्बक का उत्तरी ध्रुव कुण्डली से दूर ले जाया जाता है। धारामापी में बाईं ओर विक्षेप प्राप्त होता है। अत: परिपथ में दक्षिणावर्त (Clockwise) दिशा में धारा प्रवाहित होती है। चुम्बक को कुण्डली से दूर ले जाने पर कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स का मान घटता है अर्थात् कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है। इस स्थिति में भी परिपथ में धारा का प्रवाह यह दर्शाता है कि कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन (वृद्धि या कमी) होने पर परिपथ में विद्युत धारा बहती है।
उपर्युक्त प्रयोगों से प्राप्त प्रेक्षणों से निष्कर्ष निकलता है कि जब किसी कुण्डली तथा चुम्बक के मध्य सापेक्ष गति होती हैं, तो कुण्डली में प्रेरित विद्युत वाहक बल उत्पन्न हो जाता है। यदि कुण्डली एक बन्द परिपथ है, तो इस प्रेरित विद्युत वाहक बल के कारण परिपथ में प्रेरित विद्युत धारा प्रवाहित होती है। यही घटना विद्युत चुम्बकीय प्रेरण कहलाती है।
फैराडे के विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के नियम(Faraday's Laws of Electromagnetic Induction):–
प्रथम नियम
जब किसी कुण्डली से सम्बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स के मान में परिवर्तन होता है. कुण्डली में प्रेरित विद्युत वाहक बल उत्पन्न होता है। यदि परिपथ बन्द हैं, के कुण्डली में प्रेरित धारा प्रवाहित होती है।
प्रेरित विद्युत वाहक बल का परिमाण चुम्बकीय फ्लक्स के परिवर्तन ऋणात्मक दर के बराबर होता है। यदि ∆t समयांतराल में चुंबकीय फ्लक्स मे ∆ø परिवर्तन हो,तो प्रेरित विद्युत वाहक बल
e = - ∆ø/∆t
जहां ∆ø = ø2 - ø1 (फ्लक्स में परिर्वतन)
यदि कुंडली में फेरो की संख्या N है, तो
e = - N Δø / ∆t
नोट: अधिक विद्युत वाहक बल के लिए, कुण्डली में फेरों की संख्या अधिक और चुम्बकीय फ्लक्स परिवर्तन का समय कम से कम होना चाहिए।
द्वितीय नियम
विद्युत चुम्बकीय प्रेरण की प्रत्येक अवस्था में प्रेरित विद्युत वाहक बल तथा प्रेरित धारा की दिशा इस प्रकार होती है कि वे उन कारणों का विरोध करते हैं, जिनके कारण उनकी उत्पत्ति हुई है। यह लेन्ज का नियम (Lenz's law) कहलाता है। लेन्ज का नियम ऊर्जा संरक्षण नियम पर आधारित होता है।
प्रेरित धारा की दिशा का निर्धारण(Determination of Direction of Induced Current):–
किसी चालक में प्रेरित धारा की दिशा ज्ञात करने के लिए फ्लेमिंग ने दाएँ हाथ का नियम दिया। इस नियम के अनुसार, 'यदि हम दाएँ हाथ का अगूंठा, उसके पास वाली अँगुली तथा बीच वाली अंगुली तीनों को एक-दूसरे के लम्बवत् विस्तृत फैलाएँ, तो इस स्थिति में अंगूठा चालक की गति की दिशा को प्रदर्शित करेगा, अंगूठे के पास वाली अंगुली चुम्बकीय क्षेत्र की
दिशा को प्रदर्शित करेगी तथा बीच वाली अंगुली चालक में प्रेरित धारा की दिशा को दर्शाएगी।
नोट: फ्लेमिंग के बाएँ हाथ का नियम वास्तविक धाराओं के लिए तथा दाएँ हाथ का नियम प्रेरित धाराओं के लिए प्रयोग किया जाता है।
विद्युत जनित्र अथवा डायनमो (Electric Generator or Dynamo):–
वह यन्त्र जो यान्त्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदल देता है, विद्युत जनित्र (डायनमो) कहलाता है। यह विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त पर आधारित है। विद्युत जनित्र में यान्त्रिक ऊर्जा का उपयोग चुम्बकीय क्षेत्र में रखे चालक को घूर्णी गति प्रदान करने में किया जाता है जिसके फलस्वरूप प्रेरित विद्युत धारा उत्पन्न होती है। विद्युत जनित्र दो प्रकार के होते हैं
(i) प्रत्यावर्ती धारा जनित्र (Alternating Current or AC Generator)
(ii) दिष्ट धारा जनित्र (Direct Current or DC Generator)
प्रत्यावर्ती धारा जनित्र (Alternating Current Generator):–
सिद्धान्त (Principle):–
विद्युत जनित्र विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त पर कार्य करता है। जब किसी चालक से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है, तो उसमें विद्युत वाहक बल उत्पन्न हो जाता है जिसे प्रेरित विद्युत वाहक बल कहते हैं और यदि परिपथ बन्द है, तो उसमें विद्युत धारा प्रवाह होने लगती है जिसे प्रेरित विद्युत धारा कहते हैं।
संरचना (Construction):–
प्रत्यावर्ती धारा जनित्र के निम्नलिखित प्रमुख भाग होते हैं
(i) क्षेत्र चुम्बक (Field Magnet) यह एक अतिशक्तिशाली चुम्बक होता है। जिसके ध्रुवों के मध्य एक कुण्डली को चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा के लम्बवत् अक्ष के परितः तेजी से घुमाया जाता है।
(ii) आर्मेचर या कुण्डली (Armature) यह एक मुलायम लोहे के एक क्रोड पर लिपटी अत्यधिक संख्या में पृथक्कित तारों की कुण्डली है, जिसे चुम्बकीय क्षेत्र में तीव्र गति से घुमाया जाता है।
(iii) सर्पीवलय (Slip Rings) कुण्डली के सिरे दो अलग-अलग धातु के वलयों C व C, से जोड़ देते हैं। ये वलय सम-अक्षीय होते है तथा कुण्डली के साथ-साथ घूमते हैं।
(iv) ब्रुश (Brush) ये कार्बन या किसी धातु की पत्तियों से बने दो बुरा (B1 व B2) होते हैं। इनका एक-एक सिरा, दो वलयों को स्पर्श करता है। तथा शेष दूसरे सिरों को बाहरी परिपक्ष से सम्बन्धित कर दिया जाता है। ये ब्रुश कुण्डली के साथ नहीं घूमते हैं।
कार्यविधि (Procedure):–
माना प्रारम्भ में कुण्डली ABCD का तल चुम्बकीय क्षेत्र के लम्बवत् है। कुण्डली का सिरा A सर्पीवलय C1 से तथा सिरा D सर्पीवलय C2 से जुड़ा है। ब्रुश B1 वलय C1 को तथा ब्रुश B2 वलय C2 को स्पर्श करता है।
यदि कुण्डली दक्षिणावर्त दिशा में घुमाई जा रही है, तो फ्लेमिंग के दाएँ हाथ के नियम से कुण्डली में प्रेरित धारा ABCD दिशा में प्रवाहित होगी।
कुण्डली का आधा चक्कर पूरा होने के बाद भुजा AB व CD क्रमश: अपनी अपनी स्थितियां बदल लेती हैं। सपवलय C1 व C2 भी अपने स्थान पर घूम जाते हैं परन्तु बुश B1 का सम्बन्ध संपवलय C1 से तथा बुश B2 का सम्बन्ध सर्पीवलय C2 से ही बना रहता है।
आधा चक्र पूरा होने के पश्चात कुण्डली की दोनों भुजाओं की गति की दिशा विपरीत हो जाती है, अतः बाहरी परिपथ में धारा की दिशा परिवर्तित हो जाती है। इस प्रकार कुण्डली के एक पूरे चक्कर के दौरान बाह्य परिपथ में धारा की दिशा परिवर्तित हो जाती है जो कुण्डली के घूमने के साथ इसी प्रकार परिवर्तित होती रहती है। अत: बाह्य परिपथ में प्राप्त धारा प्रत्यावती धारा होती है क्योंकि इसकी दिशा निश्चित समयान्तराल पर बदलती रहती है।
प्रत्यावतीं धारा को आवृत्ति, कुण्डली के घूमने की आवृत्ति के बराबर होती है। तापीय विद्युत संयंत्र, जल विद्युत संयंत्र, नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र, आदि प्रत्यावर्ती विद्युत धारा उत्पन्न करते हैं।
दिष्ट धारा जनित्र (Direct Current Generator):–
सिद्धान्त (Principle):–
यह प्रत्यावर्ती धारा जनित्र की भांति ही होता है। अन्तर केवल इतना होता है कि इसमें सर्पीवलयों के स्थान पर विभक्त वलय लगे होते हैं।
दिष्ट धारा जनित्र में भी जब कोई कुण्डली या आर्मेचर शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्र में घूर्णन करती है, तो उसमें विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त के अनुसार प्रेरित विद्युत वाहक बल तथा प्रेरित धारा उत्पन्न होती है।
संरचना (Construction):–
दिष्ट धारा जनित्र के निम्न भाग होते हैं
(i) क्षेत्र चुम्बक (Field Magnet) यह एक शक्तिशाली छड़ चुम्बक होता है. जिसके ध्रुवों के मध्य कुण्डली घूमती है। इसके द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र की बल रेखाएँ N से S की ओर होती है।
(ii) आर्मेचर (Armature) यह एक आयताकार कुण्डली ABCD है, जो कच्चे लोहे के क्रोड पर पृथक्कित ताँबे के तार के अनेक फेरों को लपेट कर बनाई जाती है।
(iii) विभक्त वलय (Split Rings) ये वलय किसी पीतल की धातु के बेलन को उसकी अक्ष के अनुदिश दो बराबर भागों में काटकर बनाए जाते हैं। कुण्डली इन दोनों वलयों में जुड़ी रहती है। इस आर्मेचर कुण्डली को क्षेत्रीय चुम्बक के ध्रुवों (NS) के मध्य किसी बाह्य स्रोत, जैसे-पेट्रोल इंजन, जल टरबाइन, इत्यादि से अत्यधिक गति से घुमाया जाता है।
(iv) बुश (Brush) ये कार्बन के बने होते हैं जो चालक होते हैं। बाहरी परिपथ में धारा ब्रुशों B1 व B2 की सहायता से ही प्रवाहित होती हैं। ये विभक्त वलय को स्पर्श करते हैं तथा अपने स्थान से विस्थापित होते रहते हैं।
कार्यविधि (Procedure):–
जब आर्मेचर चुम्बकीय ध्रुवों के मध्य दक्षिणावर्त दिशा में घूर्णन करता है, तो आर्मेचर से गुजरने वाले चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है और आर्मेचर कुण्डली में एक विद्युत वाहक बल प्रेरित हो जाता है तथा इस विद्युत वाहक बल के कारण कुण्डली में धारा प्रवाहित होने लगती है। आर्मेचर कुण्डली के पहले आधे चक्कर में आर्मेचर कुण्डली में प्रेरित विद्युत वाहक बल का मान शून्य से बढ़कर अधिकतम हो जाता है तथा पुनः शून्य हो जाता है।
दूसरे आधे चक्कर में विद्युत वाहक बल विपरीत दिशा में शून्य से अधिकतम मान तक पहुँच जाता है तथा पुनः घटकर शून्य हो जाता है। परन्तु प्रत्येक आधे चक्कर के पश्चात् विभक्त वलय के भाग आपस में ब्रुशों के स्थान को बदल देते हैं। अत: बाह्य परिपथ में धारा निरन्तर एक ही दिशा में प्रवाहित होती रहती है अर्थात् दिष्ट धारा प्राप्त होती है। शुष्क सेल, बटन सेल, आदि दिष्ट धारा उत्पन्न करते हैं।
दिष्ट धारा एवं प्रत्यावर्ती धारा(Direct Current and Alternating Current):–
वह विद्युत धारा जिसका परिमाण निश्चित रहता है तथा परिपथ के किसी भी बिन्दु पर एक ही दिशा में प्रवाहित होती है, दिष्ट धारा कहलाती है। इसके विपरीत, वह विद्युत धारा जिसका परिमाण व दिशा आवर्त रूप बदलता रहता है, प्रत्यावर्ती धारा कहलाती है।
दिष्ट धारा एवं प्रत्यावर्ती धारा में अन्तर:–
दिष्ट धारा:–
(i) दिष्ट धारा का परिमाण व दिशा समय के साथ नियत रहता है।
(ii) दिष्ट धारा को बैटरी सेल में प्राथमिक व संचायक सेल से प्राप्त करते हैं।
(ii) घरों में टॉर्च व अन्य उपकरणों में इसका उपयोग होता है।
प्रत्यावर्ती धारा:–
(i) प्रत्यावर्ती धारा का परिमाण आवर्त रूप में बदलता रहता है तथा समय धारा के मध्य आरेख ज्या वक्र प्राप्त होता है।
इसमें प्रत्येक चक्र में धारा की दिशा दो बार उत्क्रमित होती है।
(ii) यह विद्युत जनित्र अथवा प्रत्यावर्ती डायनमों से प्राप्त होती है।
(iii) घरों तथा कारखानों में इसका उपयोग होता है।
दिष्ट धारा की तुलना में प्रत्यावर्ती धारा के लाभ एवं हानि(Advantages and Disadvantages of AC in Comparison of DC):–
लाभ (Advantages):–
(i) प्रत्यावर्ती धारा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर बहुत कम व्यय में आसानी से भेजा जा सकता है, जबकि दिष्ट धारा में इस प्रक्रिया में बहुत अधिक व्यय आता है तथा ऊर्जा का ह्रास भी अधिक होता है।
(ii) प्रत्यावर्ती धारा का उत्पादन, दिष्ट धारा की तुलना में बहुत सस्ता होता है।
(iii) प्रत्यावर्ती धारा जनित्र, दिष्ट धारा जनित्रों की तुलना में मजबूत व सुगम होते हैं।
(iv) प्रत्यावर्ती धारा की वोल्टता को आवश्यकतानुसार ट्रांसफॉर्मर की सहायता से आसानी से कम अथवा अधिक किया जा सकता है।
हानि (Disadvantages):–
(i) प्रत्यावर्ती धारा, दिष्ट धारा की तुलना में अधिक खतरनाक (Dangerous) होती है।
(ii) विद्युत चुम्बक व इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) में इसका उपयोग नहीं कर सकते हैं।
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